भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / पृष्ठ ३" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन |संग्रह=बंगाल का काल / हरिवंशरा…)
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
बोल बंग की वीर मेदिनी,
 +
अब वह तेरी आग कहाँ है,
 +
आज़ादी का राग कहाँ है,
 +
लगन कहाँ है, लाग कहाँ है!
 +
 +
बोल बंग के वीर मेदिनी,
 +
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
 +
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
 +
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं! 
 +
 +
बंकिम ने गर्वोन्नँत ग्रीवा
 +
उठा विश्वग से
 +
था यह पूछा,
 +
'के बले मा, तुमि अबले?'
 +
 +
मैं कहता हूँ,
 +
तू अबला है।
 +
तू होती, मा,
 +
अगर न निर्बल,
 +
अगर न दुर्बल,
 +
तो तेरे यह लक्-लक्ष सुत
 +
वंचित रहकर उसी अन्ने से,
 +
उसी धान्यर से
 +
जिस पर है अधिकार इन्हींं का,
 +
क्योंर कि इन्होंकने अपने श्रम से
 +
जोता, बोया,
 +
इसे उगाया,
 +
सींच स्वे द से
 +
इसे बढ़ाया,
 +
काटा, मारा, ढोया,
 +
भूख-भूख कर,
 +
सूख-सूखकर,
 +
पंजर-पंजर,
 +
गिर धरती पर,
 +
यों न तोड़ देते अपना दम
 +
और नपुंसक मृत्युअ न मरते।
 +
भूखे बंग देश के वासी!
 +
 +
छाई है मुरदनी मुखों पर,
 +
आँखों में है धँसी उदासी;
 +
विपद् ग्रस्त  हो,
 +
क्षुधा त्रस्तध हो,
 +
चारों ओर भटके फिरते,
 +
लस्तं-पस्त, हो
 +
ऊपर को तुम हाथ उठाते।
 +
 +
मुझसे सुन लो,
 +
नहीं स्वनर्ग से अन्न‍ गिरेगा,
 +
नहीं गिरेगी नभ से रोटी;
 +
किन्तुि समझ लो,
 +
इस दुनिया की प्रति रोटी में,
 +
इस दुनिया के हर दाने में,
 +
एक तुम्हा रा भाग लगा है,
 +
एक तुम्हाररा निश्चित हिस्साा,
 +
उसे बँटाने,
 +
उसको लेने,
 +
उसे छिनने,
 +
औ' अपनाने,
 +
को जो कुछ भी तुम करते हो,
 +
सब कुछ जायज,
 +
सब कुछ रायज।
 +
 +
नए जगत में आँखें खालों,
 +
नए जगगत की चालें देखों,
 +
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
 +
ठोकर खाकर तो कुछ सीखों,
 +
और भुलाओ पाठ पुराने।
 +
 +
मन से अब संतोष हटाओ,
 +
असंतोष का नाद उठाओ,
 +
करो क्रांति का नारा ऊँचा,
 +
भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,
 +
और भूख की ताकत समझो,
 +
हिम्मखत समझो,
 +
जुर्रत समझो,
 +
कूबत समझो;
 +
देखो कौन तुम्हासरे आगे
 +
नहीं झुका देता सिर अपना।
 +
 +
हमें भूख का अर्थ बताना,
 +
भूखों, इसको आज समझ लो,
 +
मरने का यह नहीं बहाना!
 +
 +
फिर से जीवित,
 +
फिर से जाग्रतत,
 +
फिर से उन्नरत
 +
होने का है भूख निमंत्रण,
 +
है आवाहन।
 +
 +
भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,
 +
भूख सबल है,
 +
भूख प्रबल हे,
 +
भूख अटल है,
 +
भूख कालिका है, काली है;
 +
या काली सर्व भूतेषु
 +
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
 +
नमस्तासै, नमस्तलसै,
 +
नमस्तासै नमोनम:!
 +
भूख प्रचंड शक्तिशाली है;
 +
या चंडी सर्व भूतेषु
 +
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
 +
नमस्तासै, नमस्तलसै,
 +
नमस्तासै नमोनम:!
 +
भूख्‍ा अखंड शौर्यशाली है;
 +
या देवी सर्व भूतेषु
 +
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
 +
नमस्तासै, नमस्तलसै, नमस्तशसै नमोनम:!
 +
 +
भूख भवानी भयावनी है,
 +
अगणित पद, मुख, कर वाली है,
 +
बड़े विशाल उदारवाली है।
 +
भूख धरा पर जब चलती है
 +
वह डगमग-डगमग हिलती है।
 +
वह अन्यापय चबा जाती है,
 +
अन्या्यी को खा जाती है,
 +
और निगल जाती है पल में
 +
आतताइयों का दु:शासन,
 +
हड़प चुकी अब तक कितने ही
 +
अत्याचचारी सम्राटों के
 +
छत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!
  
 
</poem>
 
</poem>

21:41, 23 दिसम्बर 2009 का अवतरण

बोल बंग की वीर मेदिनी,
अब वह तेरी आग कहाँ है,
आज़ादी का राग कहाँ है,
लगन कहाँ है, लाग कहाँ है!

बोल बंग के वीर मेदिनी,
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं!

बंकिम ने गर्वोन्नँत ग्रीवा
उठा विश्वग से
था यह पूछा,
'के बले मा, तुमि अबले?'

मैं कहता हूँ,
तू अबला है।
तू होती, मा,
अगर न निर्बल,
अगर न दुर्बल,
तो तेरे यह लक्-लक्ष सुत
वंचित रहकर उसी अन्ने से,
उसी धान्यर से
जिस पर है अधिकार इन्हींं का,
क्योंर कि इन्होंकने अपने श्रम से
जोता, बोया,
इसे उगाया,
सींच स्वे द से
इसे बढ़ाया,
काटा, मारा, ढोया,
भूख-भूख कर,
सूख-सूखकर,
पंजर-पंजर,
गिर धरती पर,
यों न तोड़ देते अपना दम
और नपुंसक मृत्युअ न मरते।
भूखे बंग देश के वासी!

छाई है मुरदनी मुखों पर,
आँखों में है धँसी उदासी;
विपद् ग्रस्त हो,
क्षुधा त्रस्तध हो,
चारों ओर भटके फिरते,
लस्तं-पस्त, हो
ऊपर को तुम हाथ उठाते।

मुझसे सुन लो,
नहीं स्वनर्ग से अन्न‍ गिरेगा,
नहीं गिरेगी नभ से रोटी;
किन्तुि समझ लो,
इस दुनिया की प्रति रोटी में,
इस दुनिया के हर दाने में,
एक तुम्हा रा भाग लगा है,
एक तुम्हाररा निश्चित हिस्साा,
उसे बँटाने,
उसको लेने,
उसे छिनने,
औ' अपनाने,
को जो कुछ भी तुम करते हो,
सब कुछ जायज,
सब कुछ रायज।

नए जगत में आँखें खालों,
नए जगगत की चालें देखों,
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
ठोकर खाकर तो कुछ सीखों,
और भुलाओ पाठ पुराने।

मन से अब संतोष हटाओ,
असंतोष का नाद उठाओ,
करो क्रांति का नारा ऊँचा,
भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,
और भूख की ताकत समझो,
हिम्मखत समझो,
जुर्रत समझो,
कूबत समझो;
देखो कौन तुम्हासरे आगे
नहीं झुका देता सिर अपना।

हमें भूख का अर्थ बताना,
भूखों, इसको आज समझ लो,
मरने का यह नहीं बहाना!

फिर से जीवित,
फिर से जाग्रतत,
फिर से उन्नरत
होने का है भूख निमंत्रण,
है आवाहन।

भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,
भूख सबल है,
भूख प्रबल हे,
भूख अटल है,
भूख कालिका है, काली है;
या काली सर्व भूतेषु
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
नमस्तासै, नमस्तलसै,
नमस्तासै नमोनम:!
भूख प्रचंड शक्तिशाली है;
या चंडी सर्व भूतेषु
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
नमस्तासै, नमस्तलसै,
नमस्तासै नमोनम:!
भूख्‍ा अखंड शौर्यशाली है;
या देवी सर्व भूतेषु
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
नमस्तासै, नमस्तलसै, नमस्तशसै नमोनम:!

भूख भवानी भयावनी है,
अगणित पद, मुख, कर वाली है,
बड़े विशाल उदारवाली है।
भूख धरा पर जब चलती है
वह डगमग-डगमग हिलती है।
वह अन्यापय चबा जाती है,
अन्या्यी को खा जाती है,
और निगल जाती है पल में
आतताइयों का दु:शासन,
हड़प चुकी अब तक कितने ही
अत्याचचारी सम्राटों के
छत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!