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बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / पृष्ठ ४

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क्षीणकाय कुत्ते के आगे
से भी अगर हटा ले कोई
उसकी सूखी हड्डी-रोटी
शेर की तरह गुर्राता है;
कान फटककर,
देह झटककर,
विद्युत गति से
अपना थूथन ऊपर कर के,
लंबे, तीखे
दाँत निकाले
रोटी लेनेवाले की छाती के ऊपर
चढ़ जाता है,
बढ़ जाता है
ले लेने को अपना हिस्सा;
कोता क़िस्सा--
पशु को भी आता है अपने
अधिकारों पर लड़ना-मरना,
जो कि आज तुम भूल गए हो,
भूखे बंग देश के वासी!

छाई है मुरदनी मुखों पर,
आँखों में है धँसी उदासी;
विपद् ग्रस्त हो,
क्षुधा त्रस्त हो,
चारों ओर भटकते फिरते,
लस्त-पस्त हो
ऊपर को तुम हाथ उठाते,
और मनाते
’बरसो राम पटापट रोटी!’
क्योंकि सिखाया,
क्योंकि पढ़ाया,
क्योंकि रटाया,
तुम्हें गया है--
’निर्बल के बल राम!
(हाय किसी ने क्यों न सुझाया
निर्बल के बल राम नहीं हैं
निर्बल के बल हैं दो घूँसे!)

जब न राम टस से मस होते,
नहीं बरसते तुम पर रोटी,
सुरुआ-बोटी,
तुम हो अपना भाग्य कोसते,
मन मसोसते,
यही बदा था,
यही लिखा था,
’ह्वैहै वही जो राम रचि राखा,
को करि तर्क बढ़ावै शाखा--’
अंतिम साँसों से रट-रटकर
तुम जाते मर,
लेकिन जीवित भी रहने पर
कब तुम थे मुर्दों से बेहतर!
पच्छिम की है एक कहावत,
इसको सीखो,
इसको धोखो,
गॉड हेल्पस दोज़
हू हेल्प देमसेल्वज़
राम सहायक उनके होते
जो अपने हैं स्वयं सहायक
पूर्व जन्म के
धर्म-कर्म में,
भाग्य मर्म में
इस जीवन का अर्थ न खोजो।
यही कायरों के शरणस्थल,
यहीं छिपा करते हैं निर्बल
यहीं आड़ लेते हैं असफल।

मुझसे सुन लो,
नहीं स्वर्ग से अन्न‍ गिरेगा,
नहीं गिरेगी नभ से रोटी;
किन्तु समझ लो,
इस दुनिया की प्रति रोटी में,
इस दुनिया के हर दाने में,
एक तुम्हारा भाग लगा है,
एक तुम्हाररा निश्चित हिस्सा,
उसे बँटाने,
उसको लेने,
उसे छीनने,
औ' अपनाने
को जो कुछ भी तुम करते हो,
सब कुछ जायज,
सब कुछ रायज।

नए जगत में आँखें खालों,
नए जगगत की चालें देखों,
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
ठोकर खाकर तो कुछ सीखों,
और भुलाओ पाठ पुराने।

अपना सारा हिस्सा खोकर,
तुम बैठे हो निश्वल होकर
कैसे कायर!
उठो भाग अब अपना माँगो,
बंग देश के भूखो जागो!

घोषित कर दो दिग दिगंत में
भूख नहीं है भीख चाहती,
भूख नहीं है भीख माँगती,
भीख माँगते केवल कादर,
केवल काहिल,
केवल बुजदिल;
भूख बली है,
भूख चली है
अब अपने प्रति न्याय माँगने,
अब अपना अधिकार माँगने,
और न दो तो रार माँगने।

कम पर मत संतोष करो तुम,
होश करो तुम,
कर संतोष कहाँ तुम पहुँचे,
हटते-हटते,
कटते-कटते,
घटते-घटते,
वहाँ जहाँ संतोष मरण है।

संतो ने संतोष सिखाया?
इसी नतीजे पर पहुँचाया
है तुमको तो
मैं कहता हूँ
संत तुम्हारे महा लंठ थे,
पर चालाक तुम्हारे शासक,
पर चालाक तुम्हारे शोषक,
जो दे लंबे-चौड़े चंदे,
करा कीर्तन,
करा हरिभजन,
इन संतों की सरस बानियाँ
हैं तुम पर बरसाते रहते,
शांत रहो तुम,
भ्रांत रहो तुम,
और तुम्हारी आग न जागे,
असंतोष का राग न जागे,
और तुम्हारे मुँह के अंदर
अटका रहे राम का रोड़ा
जिससे मुख से शब्द क्रान्ति का निकल न पाए!

नए जगत में आँखें खोलो,
नए जगत की चालें देखो,
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
ठोकर खाकर कुछ तो सीखो,
और भुलाओ पाठ पुराने।