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बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / पृष्ठ ५

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मन से अब संतोष हटाओ,
असंतोष का नाद उठाओ,
करो क्रांति का नारा ऊँचा,
भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,
और भूख की ताकत समझो,
हिम्मत समझो,
जुर्रत समझो,
कूवत समझो;
देखो कौन तुम्हासरे आगे
नहीं झुका देता सिर अपना।

याद मुझे हो आई सहसा
एक पते की बात पुरानी,
हुए दस बरस,
जापानी कवि योन नगूची
भारत में था,
देख देश की अकर्मण्यता
उसने यह आदेश किया था--
’यू हैव टु गिव योर पीपुल
दि सेंस ऑफ़ हंगर,
’अपने देश वासियों को है तुम्हें बताना
अर्थ भूख का।’

जबकि पढ़ा था
खूब हँसा था,
जहाँ करोड़ों दिन भर मर-खप
आधा पेट नहीं भर पाते
एक बार भी जो जीवन में
नहीं अघाते,
और जहाँ का नेता-नेता
नहीं भूलता है दुहराना
देता भाषण,
स्टारविंग मिलियन--
भूखे अनगिन,
वहाँ सुनाना
’अपने देश वासियों को है तुम्हें बताना
अर्थ भूख का।’
कितना उपहासास्पद, सच है,
कवि ही ठहरे,
जल्प दिया जो जी में आया।

बीत गए दस बरस देश के,
पड़ा काल बंगाल भूमि पर
और पढ़ा पत्रों में मैंने,
कैसे भूखों के दल के दल
गहना-गुरिया, बर्तन-भाँड़ा
गैया-गोरू, बैल-बछेरू,
बोरी-बँधना, कपड़ा-लत्ता,
ज़र-ज़मीन सब बेच-बाचकर,
पुश्तैनी घर-बार छोड़कर,
चले आ रहे हैं कलकत्ता।

कैसे भूखों के दल के दल
दर-दर मारे-मारे फिरते,
दाने-दाने को बिललाते,
ग्रास-ग्रास के लिए तरसते,
कौर-कौर के लिए तड़पते,
मौत मर रहे हैं कुत्तों की;
अरे नहीं,
कुत्ता भी मरता नहीं इस तरह,
मौत मर रहे हैं कीड़ों की,
या इनसे भी निम्न कोटि की।
(उफ़ मनुष्य के महापतन की
बनी न सीमा!)

और सुना जब मैंने यह भी,
भूखे देखे गए छीनकर
बच्चों से निज रोटी खाते,
या कि बेचते उनको हाटों
में कुछ ताँबे के टुकड़ों पर,
जिससे दो दिन और जिएँ वे
पशु का जीवन,
और फिरें फिर
घूरों पर
कूड़ाखानों पर,
और अधिक गंदी जगहों पर,
उठा दाँत से लेने को यदि--
मानवता को निंदित करते,
लज्जित करते,
मानव को मानव संज्ञा से
वंचित करते......

तब मैंने यह कहा कि हमने
अर्थ भूख का अभी न जाना,
हमें भूख का अर्थ बताना,
भूखों, इसको आज समझ लो,
मरने का यह नहीं बहाना!

फिर से जीवित,
फिर से जाग्रत,
फिर से उन्नत
होने का है भूख निमंत्रण,
है आवाहन।

भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,
भूख सबल है,
भूख प्रबल हे,
भूख अटल है,
भूख कालिका है, काली है,
या काली सर्व भूतेषु
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,
नमस्तस्यै, नमोनम:!

भूख प्रचंड शक्तिशाली है,
या चंडी सर्व भूतेषु
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै,
नमस्तस्यै, नमोनम:!

भूख अखंड शौर्यशाली है,
या देवी सर्व भूतेषु
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमोनम:!

भूख भवानी भयावनी है,
अगणित पद, मुख, कर वाली है,
बड़े विशाल उदरवाली है।
भूख धरा पर जब चलती है,
वह डगमग-डगमग हिलती है।
वह अन्याय चबा जाती है,
अन्यायी को खा जाती है,
और निगल जाती है पल में
अन्यायी का दु:सह शासन,
हड़प चुकी अब तक कितने ही
अत्याचारी सम्राटों के
छत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!