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"बंगाल का काल / हरिवंशराय बच्चन / पृष्ठ ३" के अवतरणों में अंतर

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कवि क़ाज़ी नज़रुलिस्लाम की।
 
कवि क़ाज़ी नज़रुलिस्लाम की।
  
बोल अमर पुत्रों की जननी--
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बोल अजर पुत्रों की जननी--
 
जननी, भावी के वर द्रष्टा,
 
जननी, भावी के वर द्रष्टा,
 
राजा मोहन राय सुधी की,
 
राजा मोहन राय सुधी की,
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छद्म वेष में घूम-घूमकर
 
छद्म वेष में घूम-घूमकर
 
अलख जगाता है हुब्बुल वतनी का।
 
अलख जगाता है हुब्बुल वतनी का।
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और शहीद यतींद्र धीर की
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जिसने बंदीघर के अंदर
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पल-पल गल-गल,
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पल-पल घुल-घुल,
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तिल-तिल मिट-मिट,
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एकसठ दिन तक
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अनशन व्रत रखकर
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प्राण त्यागकर
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यह बतलाया था हो बंदी देह
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मगर आत्मा स्वतंत्र है!
  
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बोल अमर पुत्रों की जननी,
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बोल अजर पुत्रों की जननी,
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बोल अभय पुत्रों की जननी,
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बोल बंग की वीर मेदिनी,
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अब वह तेरा मान कहाँ है,
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अब वह तेरी शान कहाँ है,
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जीने का अरमान कहाँ है,
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मरने का अभिमान कहाँ है!
  
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बोल बंग की वीर मेदिनी,
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अब वह तेरा क्रोध कहाँ है,
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तेरा विगत विरोध कहाँ है,
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अनयों का अवरोध कहाँ है!
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भूलों का परिशोध कहाँ है!
  
 
बोल बंग की वीर मेदिनी,
 
बोल बंग की वीर मेदिनी,
 
अब वह तेरी आग कहाँ है,
 
अब वह तेरी आग कहाँ है,
 
आज़ादी का राग कहाँ है,
 
आज़ादी का राग कहाँ है,
लगन कहाँ है, लाग कहाँ है!
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लगन कहाँ हैं, लाग कहाँ है!
  
बोल बंग के वीर मेदिनी,
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बोल बंग की वीर मेदिनी,
 
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
 
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
 
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
 
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
 
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं!   
 
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं!   
  
बंकिम ने गर्वोन्नँत ग्रीवा
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बंकिम ने गर्वोन्नत ग्रीवा
उठा विश्वग से
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उठा विश्व से
 
था यह पूछा,
 
था यह पूछा,
'के बले मा, तुमि अबले?'
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'के बोले मा, तुमि अबले?'
  
 
मैं कहता हूँ,
 
मैं कहता हूँ,
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अगर न निर्बल,
 
अगर न निर्बल,
 
अगर न दुर्बल,
 
अगर न दुर्बल,
तो तेरे यह लक्-लक्ष सुत
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तो तेरे यह लक्ष-लक्ष सुत
वंचित रहकर उसी अन्ने से,
+
वंचित रहकर उसी अन्न से,
उसी धान्यर से
+
उसी धान्य से
जिस पर है अधिकार इन्हींं का,
+
जिसपर है अधिकार इन्हीं का,
क्योंर कि इन्होंकने अपने श्रम से
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क्योंकि इन्होंने अपने श्रम से
 
जोता, बोया,
 
जोता, बोया,
 
इसे उगाया,
 
इसे उगाया,
सींच स्वे द से
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सींच स्वेद से
 
इसे बढ़ाया,
 
इसे बढ़ाया,
काटा, मारा, ढोया,
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काटा, माड़ा, ढोया,
 
भूख-भूख कर,
 
भूख-भूख कर,
 
सूख-सूखकर,
 
सूख-सूखकर,
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गिर धरती पर,
 
गिर धरती पर,
 
यों न तोड़ देते अपना दम
 
यों न तोड़ देते अपना दम
और नपुंसक मृत्युअ न मरते।
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और नपुंसक मृत्यु न मरते।
भूखे बंग देश के वासी!
+
 
+
छाई है मुरदनी मुखों पर,
+
आँखों में है धँसी उदासी;
+
विपद् ग्रस्त  हो,
+
क्षुधा त्रस्तध हो,
+
चारों ओर भटके फिरते,
+
लस्तं-पस्त, हो
+
ऊपर को तुम हाथ उठाते।
+
 
+
मुझसे सुन लो,
+
नहीं स्वनर्ग से अन्न‍ गिरेगा,
+
नहीं गिरेगी नभ से रोटी;
+
किन्तुि समझ लो,
+
इस दुनिया की प्रति रोटी में,
+
इस दुनिया के हर दाने में,
+
एक तुम्हा रा भाग लगा है,
+
एक तुम्हाररा निश्चित हिस्साा,
+
उसे बँटाने,
+
उसको लेने,
+
उसे छिनने,
+
औ' अपनाने,
+
को जो कुछ भी तुम करते हो,
+
सब कुछ जायज,
+
सब कुछ रायज।
+
 
+
नए जगत में आँखें खालों,
+
नए जगगत की चालें देखों,
+
नहीं बुद्धि से कुछ समझा तो
+
ठोकर खाकर तो कुछ सीखों,
+
और भुलाओ पाठ पुराने।
+
 
+
मन से अब संतोष हटाओ,
+
असंतोष का नाद उठाओ,
+
करो क्रांति का नारा ऊँचा,
+
भूखों, अपनी भूख बढ़ाओ,
+
और भूख की ताकत समझो,
+
हिम्मखत समझो,
+
जुर्रत समझो,
+
कूबत समझो;
+
देखो कौन तुम्हासरे आगे
+
नहीं झुका देता सिर अपना।
+
 
+
हमें भूख का अर्थ बताना,
+
भूखों, इसको आज समझ लो,
+
मरने का यह नहीं बहाना!
+
 
+
फिर से जीवित,
+
फिर से जाग्रतत,
+
फिर से उन्नरत
+
होने का है भूख निमंत्रण,
+
है आवाहन।
+
 
+
भूख नहीं दुर्बल, निर्बल है,
+
भूख सबल है,
+
भूख प्रबल हे,
+
भूख अटल है,
+
भूख कालिका है, काली है;
+
या काली सर्व भूतेषु
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
नमस्तासै, नमस्तलसै,
+
नमस्तासै नमोनम:!
+
भूख प्रचंड शक्तिशाली है;
+
या चंडी सर्व भूतेषु
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
नमस्तासै, नमस्तलसै,
+
नमस्तासै नमोनम:!
+
भूख्‍ा अखंड शौर्यशाली है;
+
या देवी सर्व भूतेषु
+
क्षुधा रूपेण संस्थिता,
+
नमस्तासै, नमस्तलसै, नमस्तशसै नमोनम:!
+
 
+
भूख भवानी भयावनी है,
+
अगणित पद, मुख, कर वाली है,
+
बड़े विशाल उदारवाली है।
+
भूख धरा पर जब चलती है
+
वह डगमग-डगमग हिलती है।
+
वह अन्यापय चबा जाती है,
+
अन्या्यी को खा जाती है,
+
और निगल जाती है पल में
+
आतताइयों का दु:शासन,
+
हड़प चुकी अब तक कितने ही
+
अत्याचचारी सम्राटों के
+
छत्र, किरीट, दंड, सिंहासन!
+
 
+
 
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22:28, 23 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

बोल अमर पुत्रों की जननी--
जननी श्री विद्यासागर की,
राष्ट्र गीत विरची बंकिम की,
मेघनाद-वध महाकाव्य के
प्रखर प्रणेता मधुसूदन की,
मानवता के वर विज्ञानी,
शरच्चंद्र की,
विश्ववंद्य कवि श्री रवींद्र की,
पिकी हिंद की सरोजिनी की,
तोरुदत्त औ श्री द्विजेंद्र की
और अग्निवीणा के वादक
कवि क़ाज़ी नज़रुलिस्लाम की।

बोल अजर पुत्रों की जननी--
जननी, भावी के वर द्रष्टा,
राजा मोहन राय सुधी की,
रामकृष्ण से परम यती की,
योगीश्वर अरविंद ज्ञानरत
और विवेकानंद व्रती की;
देश प्रेम के प्रथमोन्मेषक
’लाल’ ’बाल’ के बन्धु ’पाल’ औ’
विद्यावाचस्पति सुरेन्द्र की,
जिसका नाम वीर अर्जुन की
अमर प्रतिज्ञा
’न पलायन’ की
आंग्ल प्रतिध्वनि
बनकर हृदय-हृदय में गूँजी--
सुरेंदर नाथ,
सरेंडर नाट!
जननी ऐसे नाम धनी की,
औ उनके समकक्षी-से ही
वाग्मि घोष की,
देशबंधु श्री चितरंजन की,
आसुतोष की,
श्री सुबोस की!

बोल अभय पुत्रों की जननी--
परदेशी के प्रथम विरोधी,
परदेशी को प्रथम चुनौती
देनेवाले
उससे लोहा लेने वाले,
कासिम औ सिराज वीर की,
और क्रान्ति के अग्रदूत
उस क्षुधीराम की
जिसने अपनी वय किशोर में
ही यह सिद्ध किया अब भी
बुझी राख में आग छिपी है;
उसी आग की चिनगारी-से,
परम-साहसी,
बंब प्रहारी
रास बिहारी की, जो अब भी
ऐसा सुनने में आता है,
अन्य देश में
छद्म वेष में घूम-घूमकर
अलख जगाता है हुब्बुल वतनी का।
और शहीद यतींद्र धीर की
जिसने बंदीघर के अंदर
पल-पल गल-गल,
पल-पल घुल-घुल,
तिल-तिल मिट-मिट,
एकसठ दिन तक
अनशन व्रत रखकर
प्राण त्यागकर
यह बतलाया था हो बंदी देह
मगर आत्मा स्वतंत्र है!

बोल अमर पुत्रों की जननी,
बोल अजर पुत्रों की जननी,
बोल अभय पुत्रों की जननी,
बोल बंग की वीर मेदिनी,
अब वह तेरा मान कहाँ है,
अब वह तेरी शान कहाँ है,
जीने का अरमान कहाँ है,
मरने का अभिमान कहाँ है!

बोल बंग की वीर मेदिनी,
अब वह तेरा क्रोध कहाँ है,
तेरा विगत विरोध कहाँ है,
अनयों का अवरोध कहाँ है!
भूलों का परिशोध कहाँ है!

बोल बंग की वीर मेदिनी,
अब वह तेरी आग कहाँ है,
आज़ादी का राग कहाँ है,
लगन कहाँ हैं, लाग कहाँ है!

बोल बंग की वीर मेदिनी,
अब तेरे सिरताज कहाँ हैं,
अब तेरे जाँबाज़ कहाँ हैं,
अब तेरी आवाज़ कहाँ हैं!

बंकिम ने गर्वोन्नत ग्रीवा
उठा विश्व से
था यह पूछा,
'के बोले मा, तुमि अबले?'

मैं कहता हूँ,
तू अबला है।
तू होती, मा,
अगर न निर्बल,
अगर न दुर्बल,
तो तेरे यह लक्ष-लक्ष सुत
वंचित रहकर उसी अन्न से,
उसी धान्य से
जिसपर है अधिकार इन्हीं का,
क्योंकि इन्होंने अपने श्रम से
जोता, बोया,
इसे उगाया,
सींच स्वेद से
इसे बढ़ाया,
काटा, माड़ा, ढोया,
भूख-भूख कर,
सूख-सूखकर,
पंजर-पंजर,
गिर धरती पर,
यों न तोड़ देते अपना दम
और नपुंसक मृत्यु न मरते।