भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिल्लियाँ / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह }} हाथी की नंगी पीठ पर घुमाया ग...)
 
छो ("दिल्लियाँ / शलभ श्रीराम सिंह" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
 
(एक अन्य सदस्य द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह  
 
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह  
 +
|संग्रह=उन हाथों से परिचित हूँ मैं / शलभ श्रीराम सिंह
 
}}
 
}}
 
+
{{KKCatKavita‎}}
 +
<poem>
 
हाथी की नंगी पीठ पर  
 
हाथी की नंगी पीठ पर  
 
 
घुमाया गया दाराशिकोह को गली-गली
 
घुमाया गया दाराशिकोह को गली-गली
 
 
और दिल्ली चुप रही
 
और दिल्ली चुप रही
 
  
 
लोहू की नदी में खड़ा
 
लोहू की नदी में खड़ा
 
 
मुस्कुराता रहा नादिर शाह
 
मुस्कुराता रहा नादिर शाह
 
 
और दिल्ली चुप रही
 
और दिल्ली चुप रही
 
 
लाल किले के सामने  
 
लाल किले के सामने  
 
 
बन्दा बैरागी के मुँह में डाला गया
 
बन्दा बैरागी के मुँह में डाला गया
 
+
ताज़ा लहू से लबरेज़ अपने बेटे का कलेजा
ताजा लहू से लबरेज अपने बेटे का कलेजा
+
 
+
 
और दिल्ली चुप रही
 
और दिल्ली चुप रही
  
  
गिरफ्तार कर लिया गया
+
गिरफ़्तार कर लिया गया
 
+
बहादुरशाह जफ़र को
बहादुरशाह जफर को
+
 
+
 
और दिल्ली चुप रही
 
और दिल्ली चुप रही
 
+
दफ़ा हो गए मीर गालिब
दफा हो गए मीर गालिब
+
 
+
 
और दिल्ली चुप रही
 
और दिल्ली चुप रही
 
  
 
दिल्लियाँ  
 
दिल्लियाँ  
 
 
चुप रहने के लिए ही होती हैं हमेशा
 
चुप रहने के लिए ही होती हैं हमेशा
 
 
उनके एकान्त में
 
उनके एकान्त में
 
 
कहीं कोई नहीं होता
 
कहीं कोई नहीं होता
 +
कुछ भी नहीं होता कभी भी शायद
  
कुछ भी नहीं होता कभी भी शायद
+
 
 +
'''रचनाकाल : 1991, नई दिल्ली
 +
</poem>

01:29, 24 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

हाथी की नंगी पीठ पर
घुमाया गया दाराशिकोह को गली-गली
और दिल्ली चुप रही

लोहू की नदी में खड़ा
मुस्कुराता रहा नादिर शाह
और दिल्ली चुप रही
लाल किले के सामने
बन्दा बैरागी के मुँह में डाला गया
ताज़ा लहू से लबरेज़ अपने बेटे का कलेजा
और दिल्ली चुप रही


गिरफ़्तार कर लिया गया
बहादुरशाह जफ़र को
और दिल्ली चुप रही
दफ़ा हो गए मीर गालिब
और दिल्ली चुप रही

दिल्लियाँ
चुप रहने के लिए ही होती हैं हमेशा
उनके एकान्त में
कहीं कोई नहीं होता
कुछ भी नहीं होता कभी भी शायद


रचनाकाल : 1991, नई दिल्ली