भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तुम्हें खोकर मैंने जाना / कुंवर नारायण" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुंवर नारायण |संग्रह=वाजश्रवा के बहाने / कुंवर नारायण ...) |
|||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=कुंवर नारायण | |रचनाकार=कुंवर नारायण | ||
|संग्रह=वाजश्रवा के बहाने / कुंवर नारायण | |संग्रह=वाजश्रवा के बहाने / कुंवर नारायण | ||
− | }} | + | }} |
− | तुम्हें खोकर मैंने जाना | + | {{KKCatKavita}} |
− | हमें क्या चाहिए-कितना चाहिए | + | <poem> |
− | क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी ? | + | तुम्हें खोकर मैंने जाना |
− | जबकि उसका एक कोना बहुत है | + | हमें क्या चाहिए-कितना चाहिए |
− | देह-बराबर जीवन जीने के लिए | + | क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी? |
− | और पूरा आकाश खाली पड़ा है | + | जबकि उसका एक कोना बहुत है |
− | एक छोटे-से अहं से भरने के लिए ? | + | देह-बराबर जीवन जीने के लिए |
+ | और पूरा आकाश खाली पड़ा है | ||
+ | एक छोटे-से अहं से भरने के लिए? | ||
− | दल और कतारें बना कर जूझते सूरमा | + | दल और कतारें बना कर जूझते सूरमा |
− | क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर | + | क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर |
− | जबकि सब कुछ जीता- | + | जबकि सब कुछ जीता- |
− | हारा जा चुका है | + | हारा जा चुका है |
− | जीवन की अंतिम सरहदों पर ? | + | जीवन की अंतिम सरहदों पर? |
+ | </poem> |
15:58, 26 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
तुम्हें खोकर मैंने जाना
हमें क्या चाहिए-कितना चाहिए
क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी?
जबकि उसका एक कोना बहुत है
देह-बराबर जीवन जीने के लिए
और पूरा आकाश खाली पड़ा है
एक छोटे-से अहं से भरने के लिए?
दल और कतारें बना कर जूझते सूरमा
क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर
जबकि सब कुछ जीता-
हारा जा चुका है
जीवन की अंतिम सरहदों पर?