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15:59, 26 दिसम्बर 2009 का अवतरण
रचनाकार: शकील् बदयुनि |
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नही,
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नही,
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नही,
सर झुका सकते नही,
हमने सदियॊ में ये आज़ादी कि नेमत पाई है,
हमने ये नेमत पाई है,
सैकड़ों कुर्बानियाँ देकर ये दौलत पाई है,
हमने ये दौलत पाई है,
मुस्कुरा कर खाई है सीनों पे अपने गोलियाँ,
सीनों पे अपने गोलियाँ,
कितने वीरानो से गुज़रे है तो जन्नत पाई है।
ख़ाक मॆ हम अपनी इज्ज़़त को मिला सकते नहीं,
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
क्या चलेगी ज़ुल्म की, अहले वफ़ा के सामने,
अहले वफ़ा के सामने,
आ नही सकता कोई, शोला हवा के सामने,
शोला हवा के सामने,
लाख फ़ौजें ले के आए अमन का दुश्मन कोई,
लाख फ़ौजें ले के आए अमन का दुश्मन कोई,
रुक नही सकता हमारी एकता के सामने,
हम वो पत्थर है जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं,
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं,
सर झुका सकते नहीं,
वक़्त की आवाज़ के हम साथ चलते जाएंगे,
हम साथ चलते जाएंगे,
हर क़दम पर ज़िन्दगी का रुख बदलते जाएंगे,
हम रुख़ बदलते जाएंगे,
’गर वतन मे भी मिलेगा कोई गद्दारे वतन,
जो कोई गद्दारे वतन,
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे,
एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं,
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
वन्दे मातरम, वन्दे मातरम,
हम वतन के नौजवाँ है हम से जो टकरायेगा,
हम से जो टकरायेगा,
वो हमारी ठोकरों से ख़ाक मॆ मिल जायेगा,
ख़ाक मॆ मिल जायेगा,
वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम,
आसमाँ पे ये तिरंगा उम्र भर लहरायेगा,
उम्र भर लहरायेगा,
जो सबक बापू ने सिखलाया भुला सकते नहीं,
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं,
सर कटा सकते है लेकिन सर झुका सकते नहीं,