भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"परिवर्तन / अंतराल / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो (परिवर्तन (अंतराल) / महेन्द्र भटनागर का नाम बदलकर परिवर्तन / अंतराल / महेन्द्र भटनागर कर दिया गया है)
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 4: पंक्ति 4:
 
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
 
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
 
 
जग के उर में किसने डाली आज नये फूलों की माला,
 
जग के उर में किसने डाली आज नये फूलों की माला,
खाली प्याली में किसने रे भर-भर कर छलका दी हाला !
+
खाली प्याली में किसने रे भर-भर कर छलका दी हाला!
  
 
सूखे तरु-तरु, पल्लव-पल्लव में फिर से आयी अरुणाई,
 
सूखे तरु-तरु, पल्लव-पल्लव में फिर से आयी अरुणाई,
कण-कण झूम उठा चंचल हो, चमक दिशाएँ भी मुसकाईं !
+
कण-कण झूम उठा चंचल हो, चमक दिशाएँ भी मुसकाईं!
  
 
है बनी सुहागिन धरा-वधू जिसके अंग-अंग में शुचिता,
 
है बनी सुहागिन धरा-वधू जिसके अंग-अंग में शुचिता,
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
  
 
झूम रही है जगती सारी उमड़ी सरिता-सी दीवानी,
 
झूम रही है जगती सारी उमड़ी सरिता-सी दीवानी,
खेल रहा है मानों टकरा पथ के पाषाणों से पानी !
+
खेल रहा है मानों टकरा पथ के पाषाणों से पानी!
  
 
जग का उपवन स्वर्ण अलंकृत, बीती बोझिल युग-रात घनी,
 
जग का उपवन स्वर्ण अलंकृत, बीती बोझिल युग-रात घनी,
नभ के परदे पर यौवन की नव लाली उतरी स्नेह-सनी !
+
नभ के परदे पर यौवन की नव लाली उतरी स्नेह-सनी!
  
 
नव-संसृति में आया जीवन, अणु-अणु में है कंपन सिहरन,
 
नव-संसृति में आया जीवन, अणु-अणु में है कंपन सिहरन,
पंक्ति 26: पंक्ति 26:
 
गुंजित नभ-भू आँगन, होता चिड़ियों का मीठा कलरव,
 
गुंजित नभ-भू आँगन, होता चिड़ियों का मीठा कलरव,
 
परिवर्तन की मधु बेला में सबने रूप धरा है नव-नव !
 
परिवर्तन की मधु बेला में सबने रूप धरा है नव-नव !
1947
+
 
 +
'''रचनाकाल: 1947
 +
</poem>

15:17, 29 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

जग के उर में किसने डाली आज नये फूलों की माला,
खाली प्याली में किसने रे भर-भर कर छलका दी हाला!

सूखे तरु-तरु, पल्लव-पल्लव में फिर से आयी अरुणाई,
कण-कण झूम उठा चंचल हो, चमक दिशाएँ भी मुसकाईं!

है बनी सुहागिन धरा-वधू जिसके अंग-अंग में शुचिता,
कोमल नव-पंखुरि-सी सुन्दर मनहर शीतल जिसकी मृदुता!

झूम रही है जगती सारी उमड़ी सरिता-सी दीवानी,
खेल रहा है मानों टकरा पथ के पाषाणों से पानी!

जग का उपवन स्वर्ण अलंकृत, बीती बोझिल युग-रात घनी,
नभ के परदे पर यौवन की नव लाली उतरी स्नेह-सनी!

नव-संसृति में आया जीवन, अणु-अणु में है कंपन सिहरन,
चंचल लहरों से डोल उठा जगती-सरि का सोया तन-मन!

गुंजित नभ-भू आँगन, होता चिड़ियों का मीठा कलरव,
परिवर्तन की मधु बेला में सबने रूप धरा है नव-नव !

रचनाकाल: 1947