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"द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ६" के अवतरणों में अंतर

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उडु को ज्योति उसी ने दी,
 
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जीवन ही कल मृत्यु बनेगा,
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::और मृत्यु ही नव-जीवन,
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जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों
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::द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
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ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तो
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::धूल बनूँ या फूल बनूँ,
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जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
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::उसे कहो दे अश्रु मरण?
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18:51, 3 जनवरी 2010 का अवतरण

(४०)
कुछ सुन्दरता छिपी मुकुल में,
कुछ हँसते - से फूलों में;
कुछ सुहागिनी के कपोल,
काजल, सिन्दूर, दुकूलों में।
कविते, भूल न इस उपवन पर,
मृत - कुसुमों की याद करे;
वह होगी कैसी छवि जो
छिप रही चिता की धूलों में?

(४१)
आह, चाहता मैं क्यों जाये
जग से कभी वसन्त नहीं?
आशा - भरे स्वर्ण - जीवन का
किसी रोज हो अन्त नहीं?
था न कभी, तो फिर क्या चिन्ता
आगे कभी नहीं हूँगा?
यदि पहले था, तो क्या हूँगा
अब से अरे, अनन्त नहीं?

(४२)
भू की झिलमिल रजत-सरित ही
घटा गगन की काली है;
मेंहदी के उर की लाली ही
पत्तों में हरियाली है;
जुगुनू की लघु विभा दिवा में
कलियों की मुस्कान हुई;
उडु को ज्योति उसी ने दी,
जिसने निशि को अँधियाली है।

(४३)
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा,
और मृत्यु ही नव-जीवन,
जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों
द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तो
धूल बनूँ या फूल बनूँ,
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
उसे कहो दे अश्रु मरण?