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"द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ६" के अवतरणों में अंतर

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जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
 
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
 
::उसे कहो दे अश्रु मरण?
 
::उसे कहो दे अश्रु मरण?
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जाग प्रिये! यह अमा स्वयं
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::बालारुण-मुकुट लिये आई,
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जल, थल, गगन, पवन, तृण, तरु पर
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::अभिनव एक विभा छाई;
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मधुपों ने कलियों को पाया,
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::किरणें लिपट पड़ीं जल से,
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ईर्ष्यावती निशा अब बीती,
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::चकवा ने चकवी पाई।
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दो अधरों के बीच खड़ी थी
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::भय की एक तिमिर-रेखा,
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आज ओस के दिव्य कणों में
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::धुल उसको मिटते देखा।
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जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती
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::पलक उतरकर प्रात-विभा,
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जाग, लिखें चुम्बन से हम
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::जीवन का प्रथम मधुर लेखा।
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अधर-सुधा से सींच, लता में
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::कटुता कभी न आयेगी,
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हँसनेवाली कली एक दिन
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::हँसकर ही झर जायेगी।
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जाग रहे चुम्बन में तो क्यों
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::नींद न स्वप्न मधुर होगी?
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मादकता जीवन की पीकर
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::मृत्यु मधुर बन जायेगी।
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और नहीं तो क्यों गुलाब की
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::गमक रही सूखी डाली?
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सुरा बिना पीते मस्ताने
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::धो-धो क्यों टूटी प्याली?
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उगा अरुण प्राची में तो क्यों
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::दिशा प्रतीची जाग उठी?
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चूमा इस कपोल पर, उसपर
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::कैसे दौड़ गई लाली?
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19:09, 3 जनवरी 2010 का अवतरण

(४०)
कुछ सुन्दरता छिपी मुकुल में,
कुछ हँसते - से फूलों में;
कुछ सुहागिनी के कपोल,
काजल, सिन्दूर, दुकूलों में।
कविते, भूल न इस उपवन पर,
मृत - कुसुमों की याद करे;
वह होगी कैसी छवि जो
छिप रही चिता की धूलों में?

(४१)
आह, चाहता मैं क्यों जाये
जग से कभी वसन्त नहीं?
आशा - भरे स्वर्ण - जीवन का
किसी रोज हो अन्त नहीं?
था न कभी, तो फिर क्या चिन्ता
आगे कभी नहीं हूँगा?
यदि पहले था, तो क्या हूँगा
अब से अरे, अनन्त नहीं?

(४२)
भू की झिलमिल रजत-सरित ही
घटा गगन की काली है;
मेंहदी के उर की लाली ही
पत्तों में हरियाली है;
जुगुनू की लघु विभा दिवा में
कलियों की मुस्कान हुई;
उडु को ज्योति उसी ने दी,
जिसने निशि को अँधियाली है।

(४३)
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा,
और मृत्यु ही नव-जीवन,
जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों
द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तो
धूल बनूँ या फूल बनूँ,
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
उसे कहो दे अश्रु मरण?

(४४)
जाग प्रिये! यह अमा स्वयं
बालारुण-मुकुट लिये आई,
जल, थल, गगन, पवन, तृण, तरु पर
अभिनव एक विभा छाई;
मधुपों ने कलियों को पाया,
किरणें लिपट पड़ीं जल से,
ईर्ष्यावती निशा अब बीती,
चकवा ने चकवी पाई।

(४५)
दो अधरों के बीच खड़ी थी
भय की एक तिमिर-रेखा,
आज ओस के दिव्य कणों में
धुल उसको मिटते देखा।
जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती
पलक उतरकर प्रात-विभा,
जाग, लिखें चुम्बन से हम
जीवन का प्रथम मधुर लेखा।

(४६)
अधर-सुधा से सींच, लता में
कटुता कभी न आयेगी,
हँसनेवाली कली एक दिन
हँसकर ही झर जायेगी।
जाग रहे चुम्बन में तो क्यों
नींद न स्वप्न मधुर होगी?
मादकता जीवन की पीकर
मृत्यु मधुर बन जायेगी।

(४७)
और नहीं तो क्यों गुलाब की
गमक रही सूखी डाली?
सुरा बिना पीते मस्ताने
धो-धो क्यों टूटी प्याली?
उगा अरुण प्राची में तो क्यों
दिशा प्रतीची जाग उठी?
चूमा इस कपोल पर, उसपर
कैसे दौड़ गई लाली?

(४८)