"द्वन्द्वगीत / रामधारी सिंह "दिनकर" / पृष्ठ - ६" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 45: | पंक्ति 45: | ||
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों | जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों | ||
::उसे कहो दे अश्रु मरण? | ::उसे कहो दे अश्रु मरण? | ||
+ | |||
+ | :::(४४) | ||
+ | जाग प्रिये! यह अमा स्वयं | ||
+ | ::बालारुण-मुकुट लिये आई, | ||
+ | जल, थल, गगन, पवन, तृण, तरु पर | ||
+ | ::अभिनव एक विभा छाई; | ||
+ | मधुपों ने कलियों को पाया, | ||
+ | ::किरणें लिपट पड़ीं जल से, | ||
+ | ईर्ष्यावती निशा अब बीती, | ||
+ | ::चकवा ने चकवी पाई। | ||
+ | |||
+ | :::(४५) | ||
+ | दो अधरों के बीच खड़ी थी | ||
+ | ::भय की एक तिमिर-रेखा, | ||
+ | आज ओस के दिव्य कणों में | ||
+ | ::धुल उसको मिटते देखा। | ||
+ | जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती | ||
+ | ::पलक उतरकर प्रात-विभा, | ||
+ | जाग, लिखें चुम्बन से हम | ||
+ | ::जीवन का प्रथम मधुर लेखा। | ||
+ | |||
+ | :::(४६) | ||
+ | अधर-सुधा से सींच, लता में | ||
+ | ::कटुता कभी न आयेगी, | ||
+ | हँसनेवाली कली एक दिन | ||
+ | ::हँसकर ही झर जायेगी। | ||
+ | जाग रहे चुम्बन में तो क्यों | ||
+ | ::नींद न स्वप्न मधुर होगी? | ||
+ | मादकता जीवन की पीकर | ||
+ | ::मृत्यु मधुर बन जायेगी। | ||
+ | |||
+ | :::(४७) | ||
+ | और नहीं तो क्यों गुलाब की | ||
+ | ::गमक रही सूखी डाली? | ||
+ | सुरा बिना पीते मस्ताने | ||
+ | ::धो-धो क्यों टूटी प्याली? | ||
+ | उगा अरुण प्राची में तो क्यों | ||
+ | ::दिशा प्रतीची जाग उठी? | ||
+ | चूमा इस कपोल पर, उसपर | ||
+ | ::कैसे दौड़ गई लाली? | ||
+ | |||
+ | :::(४८) | ||
</poem> | </poem> |
19:09, 3 जनवरी 2010 का अवतरण
(४०)
कुछ सुन्दरता छिपी मुकुल में,
कुछ हँसते - से फूलों में;
कुछ सुहागिनी के कपोल,
काजल, सिन्दूर, दुकूलों में।
कविते, भूल न इस उपवन पर,
मृत - कुसुमों की याद करे;
वह होगी कैसी छवि जो
छिप रही चिता की धूलों में?
(४१)
आह, चाहता मैं क्यों जाये
जग से कभी वसन्त नहीं?
आशा - भरे स्वर्ण - जीवन का
किसी रोज हो अन्त नहीं?
था न कभी, तो फिर क्या चिन्ता
आगे कभी नहीं हूँगा?
यदि पहले था, तो क्या हूँगा
अब से अरे, अनन्त नहीं?
(४२)
भू की झिलमिल रजत-सरित ही
घटा गगन की काली है;
मेंहदी के उर की लाली ही
पत्तों में हरियाली है;
जुगुनू की लघु विभा दिवा में
कलियों की मुस्कान हुई;
उडु को ज्योति उसी ने दी,
जिसने निशि को अँधियाली है।
(४३)
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा,
और मृत्यु ही नव-जीवन,
जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों
द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन?
ज्योति-बिन्दु चिर नित्य अरे, तो
धूल बनूँ या फूल बनूँ,
जीवन दे मुस्कान जिसे, क्यों
उसे कहो दे अश्रु मरण?
(४४)
जाग प्रिये! यह अमा स्वयं
बालारुण-मुकुट लिये आई,
जल, थल, गगन, पवन, तृण, तरु पर
अभिनव एक विभा छाई;
मधुपों ने कलियों को पाया,
किरणें लिपट पड़ीं जल से,
ईर्ष्यावती निशा अब बीती,
चकवा ने चकवी पाई।
(४५)
दो अधरों के बीच खड़ी थी
भय की एक तिमिर-रेखा,
आज ओस के दिव्य कणों में
धुल उसको मिटते देखा।
जाग, प्रिये! निशि गई, चूमती
पलक उतरकर प्रात-विभा,
जाग, लिखें चुम्बन से हम
जीवन का प्रथम मधुर लेखा।
(४६)
अधर-सुधा से सींच, लता में
कटुता कभी न आयेगी,
हँसनेवाली कली एक दिन
हँसकर ही झर जायेगी।
जाग रहे चुम्बन में तो क्यों
नींद न स्वप्न मधुर होगी?
मादकता जीवन की पीकर
मृत्यु मधुर बन जायेगी।
(४७)
और नहीं तो क्यों गुलाब की
गमक रही सूखी डाली?
सुरा बिना पीते मस्ताने
धो-धो क्यों टूटी प्याली?
उगा अरुण प्राची में तो क्यों
दिशा प्रतीची जाग उठी?
चूमा इस कपोल पर, उसपर
कैसे दौड़ गई लाली?
(४८)