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"ज़माना आ गया / बलबीर सिंह 'रंग'" के अवतरणों में अंतर
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कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये । | कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये । |
22:49, 24 दिसम्बर 2006 का अवतरण
रचनाकार: बलबीर सिंह 'रंग'
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ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आये ।
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आये ।।
धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आये ।
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आये ।
किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आये ।
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये ।
न शम्म'अ है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये ।