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"अध्याय ३ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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तृतीयोअध्याय
 
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अर्जुन उवाच
 
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ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
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तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३- १॥
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कबहूँ कहत निष्काम कबहूँ ,
 
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तुम ज्ञान को श्रेय बताय रहे,
 
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फिरि काहे बेचारे अर्जुन को,
 
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तुम करमन घोर फँसाय रहे
 
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व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।
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तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥
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इन मिश्रित वचनन सों माधव,
 
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मोरी बुद्धि विमोहित होत घनी..
 
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एक बात कहौ दृढ़ चित्त मना ,
 
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कल्याण होय बनूँ सत्य धनी
 
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लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
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ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३- ३॥
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श्री कृष्ण उवाच
 
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अघ हीन पार्थ! सुनि जग मांहीं,
 
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ज्ञानिन की ज्ञान के योगन सौं,
 
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योगिन की योग सौं ज्ञान प्रथा
 
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न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
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न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३- ४॥
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यदि मानुष कोऊ अकरमठ हो,
 
यदि मानुष कोऊ अकरमठ हो,
 
निष्काम कबहूँ नहीं होवत है,
 
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न ही करमन कौ त्यागन भर सौं
 
न ही करमन कौ त्यागन भर सौं
 
कोऊ सिद्धि सिद्धारथ होवत है
 
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न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
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कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३- ५॥
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नहीं मानुष जग में छिन एकहूँ,
 
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बिनु कर्म किये कब  रही  पावै,
 
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सब आपुनि- आपुनि गुन प्रकृति
 
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वश परवश करमन गहि पावै
 
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कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
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इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३- ६॥
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कर्मेन्द्रिय को जो विमूढ़ जना,
 
कर्मेन्द्रिय को जो विमूढ़ जना,
 
हठ सों रोकें , मन मांहीं गहै,
 
हठ सों रोकें , मन मांहीं गहै,
 
मन मांही भोगन चित्त धरे
 
मन मांही भोगन चित्त धरे
 
मिथ्याचारी जन ताहि कहैं
 
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यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
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कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३- ७॥
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मन सों इन्द्रियन को हे अर्जुन!
 
मन सों इन्द्रियन को हे अर्जुन!
 
वश माहीं करें जो यथारथ में,
 
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बिनु मोह करम ही श्रेय करम,
 
बिनु मोह करम ही श्रेय करम,
 
आसक्ति न नैकु पदारथ में
 
आसक्ति न नैकु पदारथ में
 
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नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
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शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३- ८॥
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सुन शास्त्र नियत आपुनि करमन ,
 
सुन शास्त्र नियत आपुनि करमन ,
 
कौ पार्थ! करो तेरौ धरम यही.
 
कौ पार्थ! करो तेरौ धरम यही.
 
बिनु करम निबाह न देहन कौ,
 
बिनु करम निबाह न देहन कौ,
 
बिनु करम सों तो कछु करम सही
 
बिनु करम सों तो कछु करम सही
 
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यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
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तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३- ९॥
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अतिरिक्त यज्ञ के सबहीं करम,
 
अतिरिक्त यज्ञ के सबहीं करम,
 
बहु भांति मनुज को बाँधत हैं,
 
बहु भांति मनुज को बाँधत हैं,
 
बिनु मोह करम जो ब्रह्म हेतु,
 
बिनु मोह करम जो ब्रह्म हेतु,
 
सत रूप जनम कौ साधत हैं
 
सत रूप जनम कौ साधत हैं
 
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सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। 
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अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३- १०॥
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अति आदि में कल्प, प्रजा पति ने,
 
अति आदि में कल्प, प्रजा पति ने,
 
यज्ञ के संग प्रजा को रच्यो.
 
यज्ञ के संग प्रजा को रच्यो.
 
इच्छित फल वृद्धि सबहीं पावौ
 
इच्छित फल वृद्धि सबहीं पावौ
 
वरदान दियो आशीष कहयो
 
वरदान दियो आशीष कहयो
 
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देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
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परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३- ११॥
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करें  यज्ञ सों देवन की वृद्धि,
 
करें  यज्ञ सों देवन की वृद्धि,
 
और देवहूँ वृद्धि करें सबकी.
 
और देवहूँ वृद्धि करें सबकी.
 
यही भांति परस्पर वृद्धिं सों
 
यही भांति परस्पर वृद्धिं सों
 
कल्यान समृद्धिंन हों सबकी
 
कल्यान समृद्धिंन हों सबकी
 
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इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
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तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३- १२॥
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जिन देवन यज्ञ सों वृद्धि भई
 
जिन देवन यज्ञ सों वृद्धि भई
 
वे आपु ही श्री को बढ़ावत हैं.
 
वे आपु ही श्री को बढ़ावत हैं.
 
जो देवन अंश दिए बिनु ही
 
जो देवन अंश दिए बिनु ही
 
करैं भोग वे चोर कहावत हैं
 
करैं भोग वे चोर कहावत हैं
 
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यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
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भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्॥३- १३॥
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यज्ञ सों अन्न बचो तेहि कौ,
 
यज्ञ सों अन्न बचो तेहि कौ,
 
जो खावत पाप सों छूटत है.
 
जो खावत पाप सों छूटत है.
 
जो आपु बनाय के खावत सों
 
जो आपु बनाय के खावत सों
 
जन पाप खाय के जीवत है
 
जन पाप खाय के जीवत है
 
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अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
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यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३- १४॥
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प्राणी सब अन्न सों उपजत हैं,
 
प्राणी सब अन्न सों उपजत हैं,
 
और अन्न है उपजत वृष्टि सों,
 
और अन्न है उपजत वृष्टि सों,
 
अथ वृष्टि यज्ञ सों होत यथा,
 
अथ वृष्टि यज्ञ सों होत यथा,
 
और यज्ञ करम शुभ वृति सों
 
और यज्ञ करम शुभ वृति सों
 
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कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
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तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३- १५॥
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सब करम ही वेद सों उपजत हैं
 
सब करम ही वेद सों उपजत हैं
 
और वेद अमर परमेश्वर सों.
 
और वेद अमर परमेश्वर सों.
 
अथ यज्ञ में व्यापक ब्रह्म बस्यो
 
अथ यज्ञ में व्यापक ब्रह्म बस्यो
 
ब्रह्माण्ड बन्यो अखिलेश्वेर सों
 
ब्रह्माण्ड बन्यो अखिलेश्वेर सों
 
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एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
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अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३- १६॥
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हे पार्थ! जो मानुष यही जग में,
 
हे पार्थ! जो मानुष यही जग में,
 
विधि शास्त्र नियम बरतत  नांहीं,
 
विधि शास्त्र नियम बरतत  नांहीं,
 
वे इन्द्रिय सुख भोगन हारे,
 
वे इन्द्रिय सुख भोगन हारे,
 
अघ आयु बिरथ जीवन नाहीं
 
अघ आयु बिरथ जीवन नाहीं
 
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यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
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आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३- १७॥
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जिन तृप्त आतमा में हुइ के,
 
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आतम तृप्ति संतुष्ट रहै ,
 
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और आतमा में ही प्रीति करै,
 
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ताको न कोऊ कर्त्तव्य रहै
 
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नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
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न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३- १८॥
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ना कोऊ प्रयोजन अस जन कौ,
 
ना कोऊ प्रयोजन अस जन कौ,
 
कोऊ करमन और अकरमन में.
 
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नाहीं स्वारथ कौ सम्बन्ध कोऊ,
 
नाहीं स्वारथ कौ सम्बन्ध कोऊ,
 
संसार सकल के प्रानिन में
 
संसार सकल के प्रानिन में
 
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तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
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असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३- १९॥
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सों अर्जुन !करी कर्त्तव्य करम ,
 
सों अर्जुन !करी कर्त्तव्य करम ,
 
निष्काम, प्रभु को धारे हिया.
 
निष्काम, प्रभु को धारे हिया.
 
बिनु मोह करम निरमोही मन,
 
बिनु मोह करम निरमोही मन,
 
जिनके, समुझौ  प्रभु पाय लिया
 
जिनके, समुझौ  प्रभु पाय लिया
 
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कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
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लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३- २०॥
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बिनु मोह करम ज्ञानी जन भी,
 
बिनु मोह करम ज्ञानी जन भी,
 
करिहै, पइहैं  तब सिद्धि मही.
 
करिहै, पइहैं  तब सिद्धि मही.
 
सों लोक कौ संग्रह देखत भये
 
सों लोक कौ संग्रह देखत भये
 
करी करम हे अर्जुन! योग्य यही
 
करी करम हे अर्जुन! योग्य यही
 
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यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
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स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३- २१॥
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जो साधू जना जग मांहीं करैं ,
 
जो साधू जना जग मांहीं करैं ,
 
तस अन्य जना बरताव करैं.
 
तस अन्य जना बरताव करैं.

18:05, 9 जनवरी 2010 का अवतरण

तृतीयोअध्याय
अर्जुन उवाच

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥३- १॥

कबहूँ कहत निष्काम कबहूँ ,
तुम ज्ञान को श्रेय बताय रहे,
फिरि काहे बेचारे अर्जुन को,
तुम करमन घोर फँसाय रहे

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव में।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥३- २॥

इन मिश्रित वचनन सों माधव,
मोरी बुद्धि विमोहित होत घनी..
एक बात कहौ दृढ़ चित्त मना ,
कल्याण होय बनूँ सत्य धनी

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥३- ३॥

श्री कृष्ण उवाच
अघ हीन पार्थ! सुनि जग मांहीं,
दुइ भांति की निष्ठा होत यथा.
ज्ञानिन की ज्ञान के योगन सौं,
योगिन की योग सौं ज्ञान प्रथा

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥३- ४॥

यदि मानुष कोऊ अकरमठ हो,
निष्काम कबहूँ नहीं होवत है,
न ही करमन कौ त्यागन भर सौं
कोऊ सिद्धि सिद्धारथ होवत है

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥३- ५॥

नहीं मानुष जग में छिन एकहूँ,
बिनु कर्म किये कब रही पावै,
सब आपुनि- आपुनि गुन प्रकृति
वश परवश करमन गहि पावै

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥३- ६॥

कर्मेन्द्रिय को जो विमूढ़ जना,
हठ सों रोकें , मन मांहीं गहै,
मन मांही भोगन चित्त धरे
मिथ्याचारी जन ताहि कहैं

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥३- ७॥

मन सों इन्द्रियन को हे अर्जुन!
वश माहीं करें जो यथारथ में,
बिनु मोह करम ही श्रेय करम,
आसक्ति न नैकु पदारथ में

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥३- ८॥

सुन शास्त्र नियत आपुनि करमन ,
कौ पार्थ! करो तेरौ धरम यही.
बिनु करम निबाह न देहन कौ,
बिनु करम सों तो कछु करम सही

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥३- ९॥

अतिरिक्त यज्ञ के सबहीं करम,
बहु भांति मनुज को बाँधत हैं,
बिनु मोह करम जो ब्रह्म हेतु,
सत रूप जनम कौ साधत हैं

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥३- १०॥

अति आदि में कल्प, प्रजा पति ने,
यज्ञ के संग प्रजा को रच्यो.
इच्छित फल वृद्धि सबहीं पावौ
वरदान दियो आशीष कहयो

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥३- ११॥

करें यज्ञ सों देवन की वृद्धि,
और देवहूँ वृद्धि करें सबकी.
यही भांति परस्पर वृद्धिं सों
कल्यान समृद्धिंन हों सबकी

इष्टान्भोगान्हि वह देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥३- १२॥

जिन देवन यज्ञ सों वृद्धि भई
वे आपु ही श्री को बढ़ावत हैं.
जो देवन अंश दिए बिनु ही
करैं भोग वे चोर कहावत हैं

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा यह पचन्त्यात्मकारणात्॥३- १३॥

यज्ञ सों अन्न बचो तेहि कौ,
जो खावत पाप सों छूटत है.
जो आपु बनाय के खावत सों
जन पाप खाय के जीवत है

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥३- १४॥

प्राणी सब अन्न सों उपजत हैं,
और अन्न है उपजत वृष्टि सों,
अथ वृष्टि यज्ञ सों होत यथा,
और यज्ञ करम शुभ वृति सों

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥३- १५॥

सब करम ही वेद सों उपजत हैं
और वेद अमर परमेश्वर सों.
अथ यज्ञ में व्यापक ब्रह्म बस्यो
ब्रह्माण्ड बन्यो अखिलेश्वेर सों

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥३- १६॥

हे पार्थ! जो मानुष यही जग में,
विधि शास्त्र नियम बरतत नांहीं,
वे इन्द्रिय सुख भोगन हारे,
अघ आयु बिरथ जीवन नाहीं

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥३- १७॥

जिन तृप्त आतमा में हुइ के,
आतम तृप्ति संतुष्ट रहै ,
और आतमा में ही प्रीति करै,
ताको न कोऊ कर्त्तव्य रहै

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥३- १८॥

ना कोऊ प्रयोजन अस जन कौ,
कोऊ करमन और अकरमन में.
नाहीं स्वारथ कौ सम्बन्ध कोऊ,
संसार सकल के प्रानिन में

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥३- १९॥

सों अर्जुन !करी कर्त्तव्य करम ,
निष्काम, प्रभु को धारे हिया.
बिनु मोह करम निरमोही मन,
जिनके, समुझौ प्रभु पाय लिया

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि॥३- २०॥

बिनु मोह करम ज्ञानी जन भी,
करिहै, पइहैं तब सिद्धि मही.
सों लोक कौ संग्रह देखत भये
करी करम हे अर्जुन! योग्य यही

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥३- २१॥

जो साधू जना जग मांहीं करैं ,
तस अन्य जना बरताव करैं.
जन साधू प्रमान बनावत जो ,
तस ही बरताव सुभाव धरैं