"अध्याय ३ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…) |
|||
पंक्ति 5: | पंक्ति 5: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | <span class="upnishad_mantra"> | ||
+ | न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। | ||
+ | नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३- २२॥ | ||
+ | </span> | ||
सुन अर्जुन ! तीनहूँ लोक मांहीं, | सुन अर्जुन ! तीनहूँ लोक मांहीं, | ||
जद्यपि मम कछु कर्त्तव्य नांहीं. | जद्यपि मम कछु कर्त्तव्य नांहीं. | ||
कछु नैकैहूँ नाहीं मोहे दुर्लभ, | कछु नैकैहूँ नाहीं मोहे दुर्लभ, | ||
तद्यपि मैं करम करहूँ सबहीं | तद्यपि मैं करम करहूँ सबहीं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः। | ||
+ | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३- २३॥ | ||
+ | </span> | ||
यदि पार्थ! करम न मैं करिबौ, | यदि पार्थ! करम न मैं करिबौ, | ||
व्यवहार जगत को कस हुइहै, | व्यवहार जगत को कस हुइहै, | ||
जग मोरे ही अनुसार करम कर, | जग मोरे ही अनुसार करम कर, | ||
करमन की विधि, गति जनिहैं | करमन की विधि, गति जनिहैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्। | ||
+ | संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३- २४॥ | ||
+ | </span> | ||
यदि करम नाहीं मैं पार्थ करुँ, | यदि करम नाहीं मैं पार्थ करुँ, | ||
तौ भ्रष्ट जगत सगरौ हुइहै, | तौ भ्रष्ट जगत सगरौ हुइहै, | ||
अथ हेतु वर्ण संकरता कौ, | अथ हेतु वर्ण संकरता कौ, | ||
सगरी ही प्रजा हर्ता कहिहैं | सगरी ही प्रजा हर्ता कहिहैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। | ||
+ | कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३- २५॥ | ||
+ | </span> | ||
जस हे भारत! आसक्त मना , | जस हे भारत! आसक्त मना , | ||
अज्ञानी, सकामी करम करैं. | अज्ञानी, सकामी करम करैं. | ||
तस ही ज्ञानी आसक्ति बिना, | तस ही ज्ञानी आसक्ति बिना, | ||
बस, ज्ञान हेतु ही करम करैं | बस, ज्ञान हेतु ही करम करैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्। | ||
+ | जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३- २६॥ | ||
+ | </span> | ||
यही ज्ञानिन कौ कर्तव्य महा, | यही ज्ञानिन कौ कर्तव्य महा, | ||
जिन करमन में आसक्ति घनी. | जिन करमन में आसक्ति घनी. | ||
तिन करम सों नाहीं विरक्त करैं, | तिन करम सों नाहीं विरक्त करैं, | ||
सत करमन मांहीं बनावें धनी | सत करमन मांहीं बनावें धनी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। | ||
+ | अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥३- २७॥ | ||
+ | </span> | ||
सब करम गुणन सों प्रकृति के, | सब करम गुणन सों प्रकृति के, | ||
ही यही जगती पर होवत हैं. | ही यही जगती पर होवत हैं. | ||
पर मूढ़ मना मोहित मानत, | पर मूढ़ मना मोहित मानत, | ||
मैं कर्ता मोसों होवत हैं | मैं कर्ता मोसों होवत हैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः। | ||
+ | गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥३- २८॥ | ||
+ | </span> | ||
गुन करम विभाग के तत्वन कौ, | गुन करम विभाग के तत्वन कौ, | ||
तत्वज्ञ ही जानें महाबाहो! | तत्वज्ञ ही जानें महाबाहो! | ||
गुन सगरे गुणन माहीं बरतत. | गुन सगरे गुणन माहीं बरतत. | ||
अथ नैकहूँ नाहीं विमोहित हो | अथ नैकहूँ नाहीं विमोहित हो | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। | ||
+ | तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥३- २९॥ | ||
+ | </span> | ||
प्राकृतिक गुणन सों मोहित जन, | प्राकृतिक गुणन सों मोहित जन, | ||
गुन करमन सों आसक्त नरे. | गुन करमन सों आसक्त नरे. | ||
ज्ञानी जन मूढ़ विमूढ़न कौ, | ज्ञानी जन मूढ़ विमूढ़न कौ, | ||
नाहीं विचलित, न विरक्त करें | नाहीं विचलित, न विरक्त करें | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा। | ||
+ | निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३- ३०॥ | ||
+ | </span> | ||
अथ अर्जुन! ध्यानानिष्ट मना, | अथ अर्जुन! ध्यानानिष्ट मना, | ||
सों करम करो पर करमन कौ, | सों करम करो पर करमन कौ, | ||
आशा, ममता, संताप बिना. | आशा, ममता, संताप बिना. | ||
ही सौप दे ब्रह्म के चरनन कौ | ही सौप दे ब्रह्म के चरनन कौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। | ||
+ | श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३- ३१॥ | ||
+ | </span> | ||
मति,शुद्ध,विमल,चित श्रद्धा मय, | मति,शुद्ध,विमल,चित श्रद्धा मय, | ||
सों युक्त जनान, सदा मोरे . | सों युक्त जनान, सदा मोरे . | ||
यहि मत अनुसार आचार-विचार, | यहि मत अनुसार आचार-विचार, | ||
तो करमन के छूतट फेरे | तो करमन के छूतट फेरे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम्। | ||
+ | सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३- ३२॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन मूढ़न दृष्टि विकार धरै, | जिन मूढ़न दृष्टि विकार धरै, | ||
करै मोरे मत बर्ताव नाहीं, | करै मोरे मत बर्ताव नाहीं, | ||
वे ज्ञान विमोहित चित्त जना | वे ज्ञान विमोहित चित्त जना | ||
कल्यान भ्रष्ट जानो ताहीं | कल्यान भ्रष्ट जानो ताहीं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि। | ||
+ | प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३- ३३॥ | ||
+ | </span> | ||
सब प्राणी प्रकृति के वश ही | सब प्राणी प्रकृति के वश ही | ||
सब करम करैं सों कहा वश है? | सब करम करैं सों कहा वश है? | ||
ज्ञानिहूँ प्रकृतिवश करम करै, | ज्ञानिहूँ प्रकृतिवश करम करै, | ||
हठ धरम कौ नैकु नहीं वश है | हठ धरम कौ नैकु नहीं वश है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ। | ||
+ | तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३- ३४॥ | ||
+ | </span> | ||
इन्द्रिय, इन्द्रिय के भोगन में, | इन्द्रिय, इन्द्रिय के भोगन में, | ||
अथ राग द्वेष के योगन में. | अथ राग द्वेष के योगन में. | ||
नाहीं लिप्त, जो प्राणी सचेत रहै, | नाहीं लिप्त, जो प्राणी सचेत रहै, | ||
नाहीं आवत भोग प्रलोभन में | नाहीं आवत भोग प्रलोभन में | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। | ||
+ | स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३- ३५॥ | ||
+ | </span> | ||
गुणहीन ही आपुनि धरम भल्यो, | गुणहीन ही आपुनि धरम भल्यो, | ||
गुणयुक्त धरम सों औरन के | गुणयुक्त धरम सों औरन के | ||
आपुनि धरमन में मरण भल्यो, | आपुनि धरमन में मरण भल्यो, | ||
भय देत धरम हैं औरन के | भय देत धरम हैं औरन के | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः। | ||
+ | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३- ३६॥ | ||
+ | </span> | ||
अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
हे कृष्ण! कहौ केहि सों प्रेरित, | हे कृष्ण! कहौ केहि सों प्रेरित, | ||
पंक्ति 80: | पंक्ति 126: | ||
कैसे बिनु चाह के चाहे बिना, | कैसे बिनु चाह के चाहे बिना, | ||
अघ भाव हिया धारै प्राणी | अघ भाव हिया धारै प्राणी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। | ||
+ | महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३- ३७॥ | ||
+ | </span> | ||
काम समूल है पापन कौ , | काम समूल है पापन कौ , | ||
कबहूँ न अघात जो भोगन सों, | कबहूँ न अघात जो भोगन सों, | ||
निष्पन्न जो होत रजोगुण सों ; | निष्पन्न जो होत रजोगुण सों ; | ||
यही पाप को मूल है बैरन सों | यही पाप को मूल है बैरन सों | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च। | ||
+ | यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३- ३८॥ | ||
+ | </span> | ||
जस धूम्र सों पावक, जेर सों गर्भ, | जस धूम्र सों पावक, जेर सों गर्भ, | ||
धूलि सों दरपन धूमिल है. | धूलि सों दरपन धूमिल है. | ||
अज्ञान सों ज्ञान की वैसी गति; | अज्ञान सों ज्ञान की वैसी गति; | ||
तस काम सों ज्ञान भी धूमिल है | तस काम सों ज्ञान भी धूमिल है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा। | ||
+ | कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३- ३९॥ | ||
+ | </span> | ||
यही काम की आग ही हे अर्जुन! | यही काम की आग ही हे अर्जुन! | ||
है ज्ञानिन की अति बैरी बनी, | है ज्ञानिन की अति बैरी बनी, | ||
यही ज्ञान बिनासत ज्ञानिन कौ, | यही ज्ञान बिनासत ज्ञानिन कौ, | ||
नाहीं होत शमित बल जाकी घनी | नाहीं होत शमित बल जाकी घनी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। | ||
+ | एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥३- ४०॥ | ||
+ | </span> | ||
मन इन्द्रिय, बुद्धि ये सगरे, | मन इन्द्रिय, बुद्धि ये सगरे, | ||
ही काम निवास कहावत हैं, | ही काम निवास कहावत हैं, | ||
यही ज्ञान कौ आच्छादित करिकै, | यही ज्ञान कौ आच्छादित करिकै, | ||
देही कौ मोह करावत हैं. | देही कौ मोह करावत हैं. | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ। | ||
+ | पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३- ४१॥ | ||
+ | </span> | ||
सदबुद्धि विनाशक काम बली, | सदबुद्धि विनाशक काम बली, | ||
कौ विनाश करौ, जो महा पापी, | कौ विनाश करौ, जो महा पापी, | ||
इन्द्रिन वश मांहीं करौ अर्जुन, | इन्द्रिन वश मांहीं करौ अर्जुन, | ||
बहु पाप समूल है संतापी | बहु पाप समूल है संतापी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। | ||
+ | मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥३- ४२॥ | ||
+ | </span> | ||
इन्द्रिन तौ होत बली अतिशय, | इन्द्रिन तौ होत बली अतिशय, | ||
पर इन्द्रिन सों मन होत परे. | पर इन्द्रिन सों मन होत परे. | ||
तासों अति बुद्धि होत परे, | तासों अति बुद्धि होत परे, | ||
बुद्धिं सों आतमा होत परे | बुद्धिं सों आतमा होत परे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना। | ||
+ | जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥३- ४३॥ | ||
+ | </span> | ||
यही आतमा बुद्धि सों होत परे, | यही आतमा बुद्धि सों होत परे, | ||
जानी के मन वश माहीं करौ. | जानी के मन वश माहीं करौ. |
18:09, 9 जनवरी 2010 का अवतरण
न में पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥३- २२॥
सुन अर्जुन ! तीनहूँ लोक मांहीं,
जद्यपि मम कछु कर्त्तव्य नांहीं.
कछु नैकैहूँ नाहीं मोहे दुर्लभ,
तद्यपि मैं करम करहूँ सबहीं
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥३- २३॥
यदि पार्थ! करम न मैं करिबौ,
व्यवहार जगत को कस हुइहै,
जग मोरे ही अनुसार करम कर,
करमन की विधि, गति जनिहैं
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥३- २४॥
यदि करम नाहीं मैं पार्थ करुँ,
तौ भ्रष्ट जगत सगरौ हुइहै,
अथ हेतु वर्ण संकरता कौ,
सगरी ही प्रजा हर्ता कहिहैं
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥३- २५॥
जस हे भारत! आसक्त मना ,
अज्ञानी, सकामी करम करैं.
तस ही ज्ञानी आसक्ति बिना,
बस, ज्ञान हेतु ही करम करैं
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥३- २६॥
यही ज्ञानिन कौ कर्तव्य महा,
जिन करमन में आसक्ति घनी.
तिन करम सों नाहीं विरक्त करैं,
सत करमन मांहीं बनावें धनी
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥३- २७॥
सब करम गुणन सों प्रकृति के,
ही यही जगती पर होवत हैं.
पर मूढ़ मना मोहित मानत,
मैं कर्ता मोसों होवत हैं
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥३- २८॥
गुन करम विभाग के तत्वन कौ,
तत्वज्ञ ही जानें महाबाहो!
गुन सगरे गुणन माहीं बरतत.
अथ नैकहूँ नाहीं विमोहित हो
प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥३- २९॥
प्राकृतिक गुणन सों मोहित जन,
गुन करमन सों आसक्त नरे.
ज्ञानी जन मूढ़ विमूढ़न कौ,
नाहीं विचलित, न विरक्त करें
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥३- ३०॥
अथ अर्जुन! ध्यानानिष्ट मना,
सों करम करो पर करमन कौ,
आशा, ममता, संताप बिना.
ही सौप दे ब्रह्म के चरनन कौ
यह में मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥३- ३१॥
मति,शुद्ध,विमल,चित श्रद्धा मय,
सों युक्त जनान, सदा मोरे .
यहि मत अनुसार आचार-विचार,
तो करमन के छूतट फेरे
यह त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति में मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥३- ३२॥
जिन मूढ़न दृष्टि विकार धरै,
करै मोरे मत बर्ताव नाहीं,
वे ज्ञान विमोहित चित्त जना
कल्यान भ्रष्ट जानो ताहीं
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥३- ३३॥
सब प्राणी प्रकृति के वश ही
सब करम करैं सों कहा वश है?
ज्ञानिहूँ प्रकृतिवश करम करै,
हठ धरम कौ नैकु नहीं वश है
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥३- ३४॥
इन्द्रिय, इन्द्रिय के भोगन में,
अथ राग द्वेष के योगन में.
नाहीं लिप्त, जो प्राणी सचेत रहै,
नाहीं आवत भोग प्रलोभन में
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३- ३५॥
गुणहीन ही आपुनि धरम भल्यो,
गुणयुक्त धरम सों औरन के
आपुनि धरमन में मरण भल्यो,
भय देत धरम हैं औरन के
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥३- ३६॥
अर्जुन उवाच
हे कृष्ण! कहौ केहि सों प्रेरित,
बहु पापन करम करत प्रानी.
कैसे बिनु चाह के चाहे बिना,
अघ भाव हिया धारै प्राणी
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥३- ३७॥
काम समूल है पापन कौ ,
कबहूँ न अघात जो भोगन सों,
निष्पन्न जो होत रजोगुण सों ;
यही पाप को मूल है बैरन सों
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥३- ३८॥
जस धूम्र सों पावक, जेर सों गर्भ,
धूलि सों दरपन धूमिल है.
अज्ञान सों ज्ञान की वैसी गति;
तस काम सों ज्ञान भी धूमिल है
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥३- ३९॥
यही काम की आग ही हे अर्जुन!
है ज्ञानिन की अति बैरी बनी,
यही ज्ञान बिनासत ज्ञानिन कौ,
नाहीं होत शमित बल जाकी घनी
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥३- ४०॥
मन इन्द्रिय, बुद्धि ये सगरे,
ही काम निवास कहावत हैं,
यही ज्ञान कौ आच्छादित करिकै,
देही कौ मोह करावत हैं.
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥३- ४१॥
सदबुद्धि विनाशक काम बली,
कौ विनाश करौ, जो महा पापी,
इन्द्रिन वश मांहीं करौ अर्जुन,
बहु पाप समूल है संतापी
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥३- ४२॥
इन्द्रिन तौ होत बली अतिशय,
पर इन्द्रिन सों मन होत परे.
तासों अति बुद्धि होत परे,
बुद्धिं सों आतमा होत परे
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥३- ४३॥
यही आतमा बुद्धि सों होत परे,
जानी के मन वश माहीं करौ.
अस दुर्जय काम के रूप रिपु,
कौ मारि महाबाहो! उबरो