भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
छो |
||
पंक्ति 16: | पंक्ति 16: | ||
रात पी ज़म-ज़म पे मय और सुबह-दम <br> | रात पी ज़म-ज़म पे मय और सुबह-दम <br> | ||
− | धोए धब्बे | + | धोए धब्बे जाम-ए-एहराम के <br><br> |
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर <br> | दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर <br> | ||
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के <br><br> | ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के <br><br> | ||
− | शाह | + | शाह की है ग़ुस्ल-ए-सेहत की ख़बर <br> |
देखिये दिन कब फिरें हम्माम के <br><br> | देखिये दिन कब फिरें हम्माम के <br><br> | ||
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया <br> | इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया <br> | ||
वरना हम भी आदमी थे काम के<br><br> | वरना हम भी आदमी थे काम के<br><br> |
06:03, 26 दिसम्बर 2006 का अवतरण
लेखक: ग़ालिब
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्नालब पैग़ाम के
ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा के ये
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फ़ाम के
ख़त लिखेंगे गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
रात पी ज़म-ज़म पे मय और सुबह-दम
धोए धब्बे जाम-ए-एहराम के
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के
शाह की है ग़ुस्ल-ए-सेहत की ख़बर
देखिये दिन कब फिरें हम्माम के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के