भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अध्याय ५ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
अथ पंचमो अध्याय
 
अथ पंचमो अध्याय
 
अर्जुन उवाच
 
अर्जुन उवाच
 +
<span class="upnishad_mantra">
 +
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
 +
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥५- १॥
 +
</span>
 
तुम कृष्ण ! कबहूँ निष्काम योग,
 
तुम कृष्ण ! कबहूँ निष्काम योग,
 
और करमन कौ निष्काम कबहूँ .
 
और करमन कौ निष्काम कबहूँ .
 
अति श्रेय कहौ, दोउन  मांहीं,
 
अति श्रेय कहौ, दोउन  मांहीं,
 
मन बुद्धि भ्रमित मोरी अबहूँ
 
मन बुद्धि भ्रमित मोरी अबहूँ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
 +
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥५- २॥
 +
</span>
 
सुन करमन कौ संन्यास,करम
 
सुन करमन कौ संन्यास,करम
 
निष्काम योग दोनहूँ मोसों.
 
निष्काम योग दोनहूँ मोसों.
 
अति श्रेय परम कल्याणक, पर
 
अति श्रेय परम कल्याणक, पर
 
निष्काम सधै सहजहिं तोसों
 
निष्काम सधै सहजहिं तोसों
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
 +
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५- ३॥
 +
</span>
 
जो राग न  द्वेष न चाह करै ,
 
जो राग न  द्वेष न चाह करै ,
 
निर्द्वंद वही विचरे जग में.
 
निर्द्वंद वही विचरे जग में.
 
जग बंध  सों मुक्त भयो सोंई
 
जग बंध  सों मुक्त भयो सोंई
 
निष्कामी के ब्रह्म रमे , रग में
 
निष्कामी के ब्रह्म रमे , रग में
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
 +
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥५- ४॥
 +
</span>
 
निष्काम करम, संन्यास मांही ,
 
निष्काम करम, संन्यास मांही ,
 
जिन भेद कियौ सोंई मूढ़ मना ,
 
जिन भेद कियौ सोंई मूढ़ मना ,
 
तेहि ब्रह्म मिले बिनु संशय ही.
 
तेहि ब्रह्म मिले बिनु संशय ही.
 
यदि एकहू साधत सिद्ध जना
 
यदि एकहू साधत सिद्ध जना
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
 +
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति॥५- ५॥
 +
</span>
 
पद ज्ञान कौ योगी पावत जो,
 
पद ज्ञान कौ योगी पावत जो,
 
निष्काम करम कौ योगी वही,
 
निष्काम करम कौ योगी वही,
 
फलरूप में जो सम देखि सके,
 
फलरूप में जो सम देखि सके,
 
सत रूप यथारथ देखे वही
 
सत रूप यथारथ देखे वही
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
 +
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥५- ६॥
 +
</span>
 
निष्काम करम बिनु हे अर्जुन!
 
निष्काम करम बिनु हे अर्जुन!
 
कर्तापन भाव मिटे  नाहीं.
 
कर्तापन भाव मिटे  नाहीं.
 
निष्कामी जना, मन  ब्रह्म बसें
 
निष्कामी जना, मन  ब्रह्म बसें
 
तिन रहवत, ब्रह्म  हिये  मांहीं
 
तिन रहवत, ब्रह्म  हिये  मांहीं
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
 +
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥५- ७॥
 +
</span>
 
जिन इन्द्रिन तन मन जीत लियौ,
 
जिन इन्द्रिन तन मन जीत लियौ,
 
अंतर्मन शुद्ध पुनीत कियौ .
 
अंतर्मन शुद्ध पुनीत कियौ .
 
प्रति प्रानीं माहीं ब्रह्म लख्यौ
 
प्रति प्रानीं माहीं ब्रह्म लख्यौ
 
तिन कर्म करयौ, नाहीं लिप्त भयौ
 
तिन कर्म करयौ, नाहीं लिप्त भयौ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
 +
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥५- ८॥
 +
</span>
 
प्रश्वास -निःश्वासन    त्याग गमन ,
 
प्रश्वास -निःश्वासन    त्याग गमन ,
 
उन्मेष निमेषन  सोवन में.
 
उन्मेष निमेषन  सोवन में.
 
तत्वज्ञ तौ ब्रह्म कौ अस जाने,
 
तत्वज्ञ तौ ब्रह्म कौ अस जाने,
 
बस इन्द्रिय बरतत इन्द्रिन में
 
बस इन्द्रिय बरतत इन्द्रिन में
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
 +
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥५- ९॥
 +
</span>
 
तत्वज्ञ सुनत, सोवत बोलत ,
 
तत्वज्ञ सुनत, सोवत बोलत ,
 
खावत , जावत, अखियाँ मींचे,
 
खावत , जावत, अखियाँ मींचे,
 
सब कर्म करै पर नाहीं करै ,
 
सब कर्म करै पर नाहीं करै ,
 
अस भाव सों अंतस को सीचे
 
अस भाव सों अंतस को सीचे
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
 +
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५- १०॥
 +
</span>
 
यदि मानुष करमन कौ सगरे
 
यदि मानुष करमन कौ सगरे
 
प्रभु अर्पित कर  आसक्ति तजै ,
 
प्रभु अर्पित कर  आसक्ति तजै ,
 
जल माहीं जलज के पातन सम
 
जल माहीं जलज के पातन सम
 
तिन, पाप विनास हो पुण्य सजे
 
तिन, पाप विनास हो पुण्य सजे
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
 +
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥५- ११॥
 +
</span>
 
मन इन्द्रिन, बुद्धि शरीरन सौं ,
 
मन इन्द्रिन, बुद्धि शरीरन सौं ,
 
निष्कामी जन आसक्ति तजै .
 
निष्कामी जन आसक्ति तजै .
 
आतम शुद्धिंन हित कर्म करै ,
 
आतम शुद्धिंन हित कर्म करै ,
 
नाहीं भाव सकाम तनिक उपजे
 
नाहीं भाव सकाम तनिक उपजे
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
 +
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥५- १२॥
 +
</span>
 
निष्कामी जन फल करमन कौ,
 
निष्कामी जन फल करमन कौ,
 
अर्पित प्रभु कौ, सुख पावै महा,
 
अर्पित प्रभु कौ, सुख पावै महा,
 
फल सों आसक्त सकामी जना,
 
फल सों आसक्त सकामी जना,
 
वश काम के तौ सुख पावै कहाँ?
 
वश काम के तौ सुख पावै कहाँ?
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
 +
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥५- १३॥
 +
</span>
 
नव द्वारन देह के रूप, कौ गेह,
 
नव द्वारन देह के रूप, कौ गेह,
 
में त्याग सबहिं, प्रभु शरणम् हैं.
 
में त्याग सबहिं, प्रभु शरणम् हैं.
 
करवावहिं ना ही कर्म करै,
 
करवावहिं ना ही कर्म करै,
 
जेहि जन के वश अंतर्मन है
 
जेहि जन के वश अंतर्मन है
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
 +
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥५- १४॥
 +
</span>
 
प्रभु प्रानिन  के कर्तापन कौ,
 
प्रभु प्रानिन  के कर्तापन कौ,
 
और ना ही रचे फल करमन कौ.
 
और ना ही रचे फल करमन कौ.
 
गुण माहीं तौ गुण बरतत है.,
 
गुण माहीं तौ गुण बरतत है.,
 
प्रकृति प्रभु के संयोगन सों
 
प्रकृति प्रभु के संयोगन सों
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
 +
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥५- १५॥
 +
</span>
 
न काहू के पाप न पुण्य करम,
 
न काहू के पाप न पुण्य करम,
 
कौ ब्रह्म कबहूँ अपनावत हैं.
 
कौ ब्रह्म कबहूँ अपनावत हैं.

18:22, 9 जनवरी 2010 का अवतरण

अथ पंचमो अध्याय
अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥५- १॥

तुम कृष्ण ! कबहूँ निष्काम योग,
और करमन कौ निष्काम कबहूँ .
अति श्रेय कहौ, दोउन मांहीं,
मन बुद्धि भ्रमित मोरी अबहूँ

संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥५- २॥

सुन करमन कौ संन्यास,करम
निष्काम योग दोनहूँ मोसों.
अति श्रेय परम कल्याणक, पर
निष्काम सधै सहजहिं तोसों

ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥५- ३॥

जो राग न द्वेष न चाह करै ,
निर्द्वंद वही विचरे जग में.
जग बंध सों मुक्त भयो सोंई
निष्कामी के ब्रह्म रमे , रग में

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥५- ४॥

निष्काम करम, संन्यास मांही ,
जिन भेद कियौ सोंई मूढ़ मना ,
तेहि ब्रह्म मिले बिनु संशय ही.
यदि एकहू साधत सिद्ध जना

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स: पश्यति॥५- ५॥

पद ज्ञान कौ योगी पावत जो,
निष्काम करम कौ योगी वही,
फलरूप में जो सम देखि सके,
सत रूप यथारथ देखे वही

संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति॥५- ६॥

निष्काम करम बिनु हे अर्जुन!
कर्तापन भाव मिटे नाहीं.
निष्कामी जना, मन ब्रह्म बसें
तिन रहवत, ब्रह्म हिये मांहीं

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥५- ७॥

जिन इन्द्रिन तन मन जीत लियौ,
अंतर्मन शुद्ध पुनीत कियौ .
प्रति प्रानीं माहीं ब्रह्म लख्यौ
तिन कर्म करयौ, नाहीं लिप्त भयौ

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥५- ८॥

प्रश्वास -निःश्वासन त्याग गमन ,
उन्मेष निमेषन सोवन में.
तत्वज्ञ तौ ब्रह्म कौ अस जाने,
बस इन्द्रिय बरतत इन्द्रिन में

प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥५- ९॥

तत्वज्ञ सुनत, सोवत बोलत ,
खावत , जावत, अखियाँ मींचे,
सब कर्म करै पर नाहीं करै ,
अस भाव सों अंतस को सीचे

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥५- १०॥

यदि मानुष करमन कौ सगरे
प्रभु अर्पित कर आसक्ति तजै ,
जल माहीं जलज के पातन सम
तिन, पाप विनास हो पुण्य सजे

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥५- ११॥

मन इन्द्रिन, बुद्धि शरीरन सौं ,
निष्कामी जन आसक्ति तजै .
आतम शुद्धिंन हित कर्म करै ,
नाहीं भाव सकाम तनिक उपजे

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥५- १२॥

निष्कामी जन फल करमन कौ,
अर्पित प्रभु कौ, सुख पावै महा,
फल सों आसक्त सकामी जना,
वश काम के तौ सुख पावै कहाँ?

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्॥५- १३॥

नव द्वारन देह के रूप, कौ गेह,
में त्याग सबहिं, प्रभु शरणम् हैं.
करवावहिं ना ही कर्म करै,
जेहि जन के वश अंतर्मन है

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥५- १४॥

प्रभु प्रानिन के कर्तापन कौ,
और ना ही रचे फल करमन कौ.
गुण माहीं तौ गुण बरतत है.,
प्रकृति प्रभु के संयोगन सों

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः॥५- १५॥

न काहू के पाप न पुण्य करम,
कौ ब्रह्म कबहूँ अपनावत हैं.
यहि ज्ञान छिपो है माया सों,
सों जीव सकल भरमावत है