"अध्याय ५ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | <span class="upnishad_mantra"> | ||
+ | ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। | ||
+ | तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥५- १६॥ | ||
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हिय मांही जिनके ज्ञान घनो, | हिय मांही जिनके ज्ञान घनो, | ||
अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो . | अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो . | ||
ज्ञान सों चमकत सूरज सों, | ज्ञान सों चमकत सूरज सों, | ||
सत, चित आनंद को भान भयो | सत, चित आनंद को भान भयो | ||
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+ | तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः। | ||
+ | गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥५- १७॥ | ||
+ | </span> | ||
तद्रूप भये मन बुद्धि हिया. | तद्रूप भये मन बुद्धि हिया. | ||
परब्रह्म सों भाव मिले जिनके, | परब्रह्म सों भाव मिले जिनके, | ||
तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये, | तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये, | ||
पुनि आवागमन भी मिटे तिनके | पुनि आवागमन भी मिटे तिनके | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। | ||
+ | शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥५- १८॥ | ||
+ | </span> | ||
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में , | ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में , | ||
सम भाव धरत सब प्रानिन में. | सम भाव धरत सब प्रानिन में. | ||
सम दृष्टि सों देखत सबहिं , | सम दृष्टि सों देखत सबहिं , | ||
गौ, श्वानन में चंडालन में | गौ, श्वानन में चंडालन में | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। | ||
+ | निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५- १९॥ | ||
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जिन भाव समत्व विशेष हिये, | जिन भाव समत्व विशेष हिये, | ||
जग जीत लियौ, जग माहीं जिए. | जग जीत लियौ, जग माहीं जिए. | ||
सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही, | सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही, | ||
रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये | रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्। | ||
+ | स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥५- २०॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन हर्ष न शोक न संशय है, | जिन हर्ष न शोक न संशय है, | ||
उद्वेग विहीन भये जन जो. | उद्वेग विहीन भये जन जो. | ||
तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे, | तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे, | ||
अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो | अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्। | ||
+ | स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५- २१॥ | ||
+ | </span> | ||
नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं, | नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं, | ||
तिन धन्य, दयालु मिले ताही. | तिन धन्य, दयालु मिले ताही. | ||
पुनि धन्य परम अविनाशी सुख, | पुनि धन्य परम अविनाशी सुख, | ||
अनवरत समावै हिय माहीं | अनवरत समावै हिय माहीं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। | ||
+ | आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५- २२॥ | ||
+ | </span> | ||
जग माहीं सकल सुख भासति जो, | जग माहीं सकल सुख भासति जो, | ||
सोऊ अंत में दुखन मूल बने, | सोऊ अंत में दुखन मूल बने, | ||
अनित्य विकारन मूल महा, | अनित्य विकारन मूल महा, | ||
सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे | सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। | ||
+ | कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥५- २३॥ | ||
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जिन देह विनाशन सों पहिले, | जिन देह विनाशन सों पहिले, | ||
सब काम व् क्रोधन जीत लियो . | सब काम व् क्रोधन जीत लियो . | ||
एही लोक तेहि जन योगी सों, | एही लोक तेहि जन योगी सों, | ||
सुख पाय के जन्म पुनीत कियो | सुख पाय के जन्म पुनीत कियो | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः। | ||
+ | स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥५- २४॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति, | जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति, | ||
और आत्मा में विश्राम करै. | और आत्मा में विश्राम करै. | ||
तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया | तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया | ||
और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै | और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः। | ||
+ | छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥५- २५॥ | ||
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जिन संशय पाप भी शेष भयौ, | जिन संशय पाप भी शेष भयौ, | ||
सब प्रानिन के हित प्रीति घनी, | सब प्रानिन के हित प्रीति घनी, | ||
तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले, | तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले, | ||
जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी | जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्। | ||
+ | अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥५- २६॥ | ||
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जिन काम व् क्रोधन जीत लियो | जिन काम व् क्रोधन जीत लियो | ||
जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ. | जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ. | ||
तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो, | तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो, | ||
चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ | चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ | ||
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+ | स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः। | ||
+ | प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥५- २७॥ | ||
+ | </span> | ||
भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि, | भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि, | ||
कर स्थित, नाक सों वायु कौ, | कर स्थित, नाक सों वायु कौ, | ||
प्राण और अपान कौ सम करिकै, | प्राण और अपान कौ सम करिकै, | ||
रोके विषयन सों स्नायु कौ | रोके विषयन सों स्नायु कौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः। | ||
+ | विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥ | ||
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भय इच्छा क्रोध विहीन रहे, | भय इच्छा क्रोध विहीन रहे, | ||
जिनके वश में मन बुद्धि अहे, | जिनके वश में मन बुद्धि अहे, | ||
वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि, | वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि, | ||
जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे | जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। | ||
+ | सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥५- २९॥ | ||
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हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे, | हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे, | ||
लोकन कौ महेश्वर जानत है, | लोकन कौ महेश्वर जानत है, |
18:25, 9 जनवरी 2010 का अवतरण
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥५- १६॥
हिय मांही जिनके ज्ञान घनो,
अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो .
ज्ञान सों चमकत सूरज सों,
सत, चित आनंद को भान भयो
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥५- १७॥
तद्रूप भये मन बुद्धि हिया.
परब्रह्म सों भाव मिले जिनके,
तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये,
पुनि आवागमन भी मिटे तिनके
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥५- १८॥
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में ,
सम भाव धरत सब प्रानिन में.
सम दृष्टि सों देखत सबहिं ,
गौ, श्वानन में चंडालन में
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५- १९॥
जिन भाव समत्व विशेष हिये,
जग जीत लियौ, जग माहीं जिए.
सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही,
रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥५- २०॥
जिन हर्ष न शोक न संशय है,
उद्वेग विहीन भये जन जो.
तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे,
अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५- २१॥
नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं,
तिन धन्य, दयालु मिले ताही.
पुनि धन्य परम अविनाशी सुख,
अनवरत समावै हिय माहीं
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५- २२॥
जग माहीं सकल सुख भासति जो,
सोऊ अंत में दुखन मूल बने,
अनित्य विकारन मूल महा,
सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥५- २३॥
जिन देह विनाशन सों पहिले,
सब काम व् क्रोधन जीत लियो .
एही लोक तेहि जन योगी सों,
सुख पाय के जन्म पुनीत कियो
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥५- २४॥
जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति,
और आत्मा में विश्राम करै.
तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया
और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥५- २५॥
जिन संशय पाप भी शेष भयौ,
सब प्रानिन के हित प्रीति घनी,
तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले,
जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥५- २६॥
जिन काम व् क्रोधन जीत लियो
जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ.
तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो,
चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥५- २७॥
भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि,
कर स्थित, नाक सों वायु कौ,
प्राण और अपान कौ सम करिकै,
रोके विषयन सों स्नायु कौ
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥
भय इच्छा क्रोध विहीन रहे,
जिनके वश में मन बुद्धि अहे,
वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि,
जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥५- २९॥
हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे,
लोकन कौ महेश्वर जानत है,
बिनु स्वारथ नेह करत सबको,
अस अंतर्सुख को पावत है