भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अध्याय ५ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
<span class="upnishad_mantra">
 +
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
 +
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥५- १६॥
 +
</span>
 
हिय मांही जिनके ज्ञान घनो,
 
हिय मांही जिनके ज्ञान घनो,
 
अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो .
 
अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो .
 
ज्ञान सों चमकत सूरज सों,
 
ज्ञान सों चमकत सूरज सों,
 
सत, चित आनंद को भान भयो
 
सत, चित आनंद को भान भयो
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
 +
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥५- १७॥
 +
</span>
 
तद्रूप भये मन बुद्धि हिया.
 
तद्रूप भये मन बुद्धि हिया.
 
परब्रह्म सों भाव मिले जिनके,
 
परब्रह्म सों भाव मिले जिनके,
 
तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये,
 
तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये,
 
पुनि आवागमन भी मिटे तिनके
 
पुनि आवागमन भी मिटे तिनके
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
 +
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥५- १८॥
 +
</span>
 
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में ,
 
ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में ,
 
सम भाव धरत सब प्रानिन में.
 
सम भाव धरत सब प्रानिन में.
 
सम दृष्टि सों देखत सबहिं ,
 
सम दृष्टि सों देखत सबहिं ,
 
गौ, श्वानन  में चंडालन में
 
गौ, श्वानन  में चंडालन में
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
 +
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५- १९॥
 +
</span>
 
जिन भाव समत्व विशेष हिये,
 
जिन भाव समत्व विशेष हिये,
 
जग जीत लियौ, जग माहीं जिए.
 
जग जीत लियौ, जग माहीं जिए.
 
सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही,
 
सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही,
 
रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये
 
रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
 +
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥५- २०॥
 +
</span>
 
जिन हर्ष न शोक न संशय है,
 
जिन हर्ष न शोक न संशय है,
 
उद्वेग विहीन भये जन जो.
 
उद्वेग विहीन भये जन जो.
 
तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे,
 
तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे,
 
अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो
 
अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्।
 +
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५- २१॥
 +
</span>
 
नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं,
 
नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं,
 
तिन धन्य, दयालु मिले ताही.
 
तिन धन्य, दयालु मिले ताही.
 
पुनि धन्य परम अविनाशी सुख,
 
पुनि धन्य परम अविनाशी सुख,
 
अनवरत समावै हिय माहीं
 
अनवरत समावै हिय माहीं
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
 +
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५- २२॥
 +
</span>
 
जग माहीं सकल सुख भासति जो,
 
जग माहीं सकल सुख भासति जो,
 
सोऊ अंत में दुखन मूल बने,
 
सोऊ अंत में दुखन मूल बने,
 
अनित्य विकारन  मूल महा,
 
अनित्य विकारन  मूल महा,
 
सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे
 
सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
 +
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥५- २३॥
 +
</span>
 
जिन देह विनाशन सों पहिले,
 
जिन देह विनाशन सों पहिले,
 
सब काम व् क्रोधन जीत लियो .
 
सब काम व् क्रोधन जीत लियो .
 
एही लोक तेहि जन योगी सों,
 
एही लोक तेहि जन योगी सों,
 
सुख पाय के जन्म पुनीत कियो
 
सुख पाय के जन्म पुनीत कियो
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
 +
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥५- २४॥
 +
</span>
 
जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति,
 
जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति,
 
और आत्मा में विश्राम करै.
 
और आत्मा में विश्राम करै.
 
तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया
 
तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया
 
और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै
 
और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
 +
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥५- २५॥
 +
</span>
 
जिन संशय पाप भी शेष भयौ,
 
जिन संशय पाप भी शेष भयौ,
 
सब प्रानिन के हित प्रीति घनी,
 
सब प्रानिन के हित प्रीति घनी,
 
तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले,
 
तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले,
 
जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी
 
जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
 +
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥५- २६॥
 +
</span>
 
जिन काम व् क्रोधन जीत लियो
 
जिन काम व् क्रोधन जीत लियो
 
जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ.
 
जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ.
 
तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो,
 
तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो,
 
चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ
 
चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
 +
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥५- २७॥
 +
</span>
 
भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि,
 
भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि,
 
कर स्थित, नाक सों वायु कौ,
 
कर स्थित, नाक सों वायु कौ,
 
प्राण और अपान कौ सम करिकै,
 
प्राण और अपान कौ सम करिकै,
 
रोके विषयन सों स्नायु कौ
 
रोके विषयन सों स्नायु कौ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
 +
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥
 +
</span>
 
भय इच्छा क्रोध विहीन रहे,
 
भय इच्छा क्रोध विहीन रहे,
 
जिनके वश में मन बुद्धि अहे,
 
जिनके वश में मन बुद्धि अहे,
 
वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि,
 
वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि,
 
जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे
 
जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
 +
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥५- २९॥
 +
</span>
 
हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे,
 
हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे,
 
लोकन कौ महेश्वर जानत  है,
 
लोकन कौ महेश्वर जानत  है,

18:25, 9 जनवरी 2010 का अवतरण


ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥५- १६॥

हिय मांही जिनके ज्ञान घनो,
अंतर्मन को अज्ञान मिट्यो .
ज्ञान सों चमकत सूरज सों,
सत, चित आनंद को भान भयो

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः॥५- १७॥

तद्रूप भये मन बुद्धि हिया.
परब्रह्म सों भाव मिले जिनके,
तिन ज्ञान सों पाप विहीन भये,
पुनि आवागमन भी मिटे तिनके

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः॥५- १८॥

ज्ञानी जन तौ नर कुंजर में ,
सम भाव धरत सब प्रानिन में.
सम दृष्टि सों देखत सबहिं ,
गौ, श्वानन में चंडालन में

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः॥५- १९॥

जिन भाव समत्व विशेष हिये,
जग जीत लियौ, जग माहीं जिए.
सम भाव प्रधान है, ब्रह्म मही,
रहे ब्रह्म में भाव समत्व किये

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः॥५- २०॥

जिन हर्ष न शोक न संशय है,
उद्वेग विहीन भये जन जो.
तिन ब्रह्म में एकीभाव बसे,
अस अस्थिर बुद्धि भये जन जो

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत् सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥५- २१॥

नाहीं नैकु मोह भोगन माहीं,
तिन धन्य, दयालु मिले ताही.
पुनि धन्य परम अविनाशी सुख,
अनवरत समावै हिय माहीं

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥५- २२॥

जग माहीं सकल सुख भासति जो,
सोऊ अंत में दुखन मूल बने,
अनित्य विकारन मूल महा,
सों कोऊ विवेकी नाहीं रमे

शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥५- २३॥

जिन देह विनाशन सों पहिले,
सब काम व् क्रोधन जीत लियो .
एही लोक तेहि जन योगी सों,
सुख पाय के जन्म पुनीत कियो

योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥५- २४॥

जिन अंतर्सुख अंतर्ज्योति,
और आत्मा में विश्राम करै.
तिन ब्रह्म सों एकीभाव हिया
और ब्रह्महिं पूर्ण विराम करै

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः॥५- २५॥

जिन संशय पाप भी शेष भयौ,
सब प्रानिन के हित प्रीति घनी,
तिन ब्रह्म मिले, निर्वाण मिले,
जिन ब्रह्म सों साँची प्रीति बनी

कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥५- २६॥

जिन काम व् क्रोधन जीत लियो
जेहि ब्रह्म अनंत को मीत कियौ.
तिन ज्ञानी कौ परब्रह्म प्रभो,
चहुँ ओर मिले , ये प्रतीति कियौ

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ॥५- २७॥

भृकुटी के मध्य नयन दृष्टि,
कर स्थित, नाक सों वायु कौ,
प्राण और अपान कौ सम करिकै,
रोके विषयन सों स्नायु कौ

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥५- २८॥

भय इच्छा क्रोध विहीन रहे,
जिनके वश में मन बुद्धि अहे,
वे मोक्ष परायण मुक्त मुनि,
जिन इन्द्रिन जीत के सिद्ध महे

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥५- २९॥

हे अर्जुन! मेरौ भक्त मोहे,
लोकन कौ महेश्वर जानत है,
बिनु स्वारथ नेह करत सबको,
अस अंतर्सुख को पावत है