"अध्याय ६ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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अथ षष्ठो अध्याय | अथ षष्ठो अध्याय | ||
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+ | अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः। | ||
+ | स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६- १॥ | ||
+ | </span> | ||
फल करमन कौ तजि कर्म करै, | फल करमन कौ तजि कर्म करै, | ||
सत योगी वही, सन्यासी वही. | सत योगी वही, सन्यासी वही. | ||
बस कर्म तजै, तिन योगी नहीं, | बस कर्म तजै, तिन योगी नहीं, | ||
अग्नि तजि के, संन्यासी नहीं | अग्नि तजि के, संन्यासी नहीं | ||
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+ | यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव। | ||
+ | न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥६- २॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन नाहीं तजै संकल्पन कौ, | जिन नाहीं तजै संकल्पन कौ, | ||
तिन योगी वे होत कदापि नहीं, | तिन योगी वे होत कदापि नहीं, | ||
अथ लोंग कहत संन्यास जिसे | अथ लोंग कहत संन्यास जिसे | ||
अर्जन! तेहि योग ही जानि सही | अर्जन! तेहि योग ही जानि सही | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते। | ||
+ | योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥६- ३॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन योग में चाह घनी तिनकौ, | जिन योग में चाह घनी तिनकौ, | ||
निष्काम करम ही हेतु कह्यो, | निष्काम करम ही हेतु कह्यो, | ||
यहि चाह विहीन को मारग ही, | यहि चाह विहीन को मारग ही, | ||
कल्यान कौ एकही हेतु रह्यो | कल्यान कौ एकही हेतु रह्यो | ||
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+ | यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। | ||
+ | सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥ | ||
+ | </span> | ||
जेहि काल न तो विषयन मांहीं, | जेहि काल न तो विषयन मांहीं, | ||
न ही करमन में आसक्त रहें , | न ही करमन में आसक्त रहें , | ||
तेहि कालहिं ज्ञानी पुरुषंन कौ | तेहि कालहिं ज्ञानी पुरुषंन कौ | ||
ज्ञानी जन योगारूढ़ कहैं | ज्ञानी जन योगारूढ़ कहैं | ||
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+ | उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। | ||
+ | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६- ५॥ | ||
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जीवात्मा आपु ही आपुनि कौ, | जीवात्मा आपु ही आपुनि कौ, | ||
उद्धार करै, संहार करै. | उद्धार करै, संहार करै. | ||
यहि आपुनि बन्धु, रिपु अपनों , | यहि आपुनि बन्धु, रिपु अपनों , | ||
जो कर्म करौ सों विचार करै | जो कर्म करौ सों विचार करै | ||
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+ | बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। | ||
+ | अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६- ६॥ | ||
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मन इन्द्रिन कौ जिन जीत लीऔ, | मन इन्द्रिन कौ जिन जीत लीऔ, | ||
तिन आपुनि आप कौ मित्र भयो . | तिन आपुनि आप कौ मित्र भयो . | ||
यदि हारि गयौ मन इन्द्रिन सों, | यदि हारि गयौ मन इन्द्रिन सों, | ||
तिन आपुहि आपु को शत्रु भयो | तिन आपुहि आपु को शत्रु भयो | ||
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+ | जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः। | ||
+ | शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६- ७॥ | ||
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जिन शीत ताप सुख दुखन में | जिन शीत ताप सुख दुखन में | ||
अपमान व् मान समान लगे. | अपमान व् मान समान लगे. | ||
तिन जीत लियो परमेश प्रभो, | तिन जीत लियो परमेश प्रभो, | ||
तिनकौ ही ब्रह्म में ध्यान लगे | तिनकौ ही ब्रह्म में ध्यान लगे | ||
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+ | ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः। | ||
+ | युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६- ८॥ | ||
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जिन ज्ञान सों तृप्त हैं अंतर्मन | जिन ज्ञान सों तृप्त हैं अंतर्मन | ||
लियौ जीत विकारन इन्द्रिन कौ. | लियौ जीत विकारन इन्द्रिन कौ. | ||
जिन पाथर सुवरन भेद नाहीं, | जिन पाथर सुवरन भेद नाहीं, | ||
अस योगी वही सांचे मन कौ | अस योगी वही सांचे मन कौ | ||
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+ | सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु। | ||
+ | साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥६- ९॥ | ||
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जिन मित्र सुह्रद बैरी बांधव, | जिन मित्र सुह्रद बैरी बांधव, | ||
साधुन पापिन में भेद नाहीं, | साधुन पापिन में भेद नाहीं, | ||
तिन सम्यक बुद्ध प्रबुद्धन कौ , | तिन सम्यक बुद्ध प्रबुद्धन कौ , | ||
प्रभु होत सुलभ संदेह नाहीं | प्रभु होत सुलभ संदेह नाहीं | ||
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+ | योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। | ||
+ | एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६- १०॥ | ||
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जिन तन-मन इन्द्रिन जीत लियौ | जिन तन-मन इन्द्रिन जीत लियौ | ||
जिन कामना संग्रह रीत लियौ , | जिन कामना संग्रह रीत लियौ , | ||
तिन योगी निरंतर ध्यान कियौ | तिन योगी निरंतर ध्यान कियौ | ||
एकाकी निवास प्रधान कियौ | एकाकी निवास प्रधान कियौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। | ||
+ | नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥६- ११॥ | ||
+ | </span> | ||
अति पावन भूमि कुशा आसन | अति पावन भूमि कुशा आसन | ||
मृग छाला बिछी तेहि ऊपर हो. | मृग छाला बिछी तेहि ऊपर हो. | ||
अति ऊँचो ना ही अति नीचो हो. | अति ऊँचो ना ही अति नीचो हो. | ||
अस आसन योगी स्थिर हो | अस आसन योगी स्थिर हो | ||
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+ | तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। | ||
+ | उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥६- १२॥ | ||
+ | </span> | ||
तस आसन बैठ के साधे मना. | तस आसन बैठ के साधे मना. | ||
अस चिंतन, इन्द्रिन कौ साधे, | अस चिंतन, इन्द्रिन कौ साधे, | ||
अथ अंतस मन पावन करिकै | अथ अंतस मन पावन करिकै | ||
मन यौगिक अभ्यासन साधे | मन यौगिक अभ्यासन साधे | ||
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+ | समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। | ||
+ | सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६- १३॥ | ||
+ | </span> | ||
फिर देह शीश और ग्रीवा कौ, | फिर देह शीश और ग्रीवा कौ, | ||
दृढ़ स्थिर अचल समान करै, | दृढ़ स्थिर अचल समान करै, | ||
न अन्य दिशा को नैकु लखे, | न अन्य दिशा को नैकु लखे, | ||
स्व नाक के अग्र कौ ध्यान करै | स्व नाक के अग्र कौ ध्यान करै | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। | ||
+ | मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥ | ||
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अंतर्मन शांत भयौ जिनकौ, | अंतर्मन शांत भयौ जिनकौ, | ||
ब्रह्मचर्य व्रती, भयहीन मना. | ब्रह्मचर्य व्रती, भयहीन मना. | ||
मन चित्त मोहे अर्पित करिकै | मन चित्त मोहे अर्पित करिकै | ||
अथ मोरे परायण होत जना | अथ मोरे परायण होत जना | ||
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+ | युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः। | ||
+ | शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६- १५॥ | ||
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नित ब्रह्म सरूपहीं आत्मा कौ, | नित ब्रह्म सरूपहीं आत्मा कौ, | ||
नित नित्य जो योगी लगाय रहै . | नित नित्य जो योगी लगाय रहै . | ||
मुझ माहीं बसत है अस योगी, | मुझ माहीं बसत है अस योगी, | ||
निर्वाण परम पद पाय रहै | निर्वाण परम पद पाय रहै | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः। | ||
+ | न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥६- १६॥ | ||
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यहि योग तो ना अति खाबन सों, | यहि योग तो ना अति खाबन सों, | ||
अति सोबन सों, अति जागन सों. | अति सोबन सों, अति जागन सों. | ||
ना होत सिद्ध कबहूँ अर्जुन! | ना होत सिद्ध कबहूँ अर्जुन! | ||
अति होत है जिनमें उन जन सों | अति होत है जिनमें उन जन सों | ||
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+ | युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। | ||
+ | युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥६- १७॥ | ||
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सम्यक आहार विहार शयन, | सम्यक आहार विहार शयन, | ||
सम्यक जागृति शुभ करमन सों. | सम्यक जागृति शुभ करमन सों. | ||
दुःख नाशक योग की सिद्धि ताहि | दुःख नाशक योग की सिद्धि ताहि | ||
हुई जात है सम्यक भावन सों | हुई जात है सम्यक भावन सों | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते। | ||
+ | निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥ | ||
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जेहि काल सधे भये चिंतन सों. | जेहि काल सधे भये चिंतन सों. | ||
परमेश्वर लीन भयो योगी | परमेश्वर लीन भयो योगी | ||
तेहि काल मिटें सब स्पर्हा | तेहि काल मिटें सब स्पर्हा | ||
अस योग सों युक्त भयो योगी | अस योग सों युक्त भयो योगी | ||
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+ | यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। | ||
+ | योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥ | ||
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जस वायु विहीन जगह मांहीं, | जस वायु विहीन जगह मांहीं, | ||
ना कोऊ दीप जलाय सके, | ना कोऊ दीप जलाय सके, | ||
तस ब्रह्म विलीन जो योगी भये, | तस ब्रह्म विलीन जो योगी भये, | ||
तिन चित्त ना कोऊ डिगाय सके | तिन चित्त ना कोऊ डिगाय सके | ||
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+ | यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया। | ||
+ | यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६- २०॥ | ||
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अभ्यसन योग सों जेहि काले, | अभ्यसन योग सों जेहि काले, | ||
मन चित्त सधै, उपराम भयौ , | मन चित्त सधै, उपराम भयौ , | ||
उर ब्रह्म बसौ , जिन ब्रह्म लख्यो , | उर ब्रह्म बसौ , जिन ब्रह्म लख्यो , | ||
तस योगी ही पूरण काम भयौ | तस योगी ही पूरण काम भयौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्। | ||
+ | वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६- २१॥ | ||
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जिन पावन सूक्षम बुद्धिं सों, | जिन पावन सूक्षम बुद्धिं सों, | ||
इन्द्रिन सों परे आनंदन कौ, | इन्द्रिन सों परे आनंदन कौ, |
10:26, 10 जनवरी 2010 का अवतरण
अथ षष्ठो अध्याय
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥६- १॥
फल करमन कौ तजि कर्म करै,
सत योगी वही, सन्यासी वही.
बस कर्म तजै, तिन योगी नहीं,
अग्नि तजि के, संन्यासी नहीं
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो योगी भवति कश्चन॥६- २॥
जिन नाहीं तजै संकल्पन कौ,
तिन योगी वे होत कदापि नहीं,
अथ लोंग कहत संन्यास जिसे
अर्जन! तेहि योग ही जानि सही
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते॥६- ३॥
जिन योग में चाह घनी तिनकौ,
निष्काम करम ही हेतु कह्यो,
यहि चाह विहीन को मारग ही,
कल्यान कौ एकही हेतु रह्यो
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते॥६- ४॥
जेहि काल न तो विषयन मांहीं,
न ही करमन में आसक्त रहें ,
तेहि कालहिं ज्ञानी पुरुषंन कौ
ज्ञानी जन योगारूढ़ कहैं
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६- ५॥
जीवात्मा आपु ही आपुनि कौ,
उद्धार करै, संहार करै.
यहि आपुनि बन्धु, रिपु अपनों ,
जो कर्म करौ सों विचार करै
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥६- ६॥
मन इन्द्रिन कौ जिन जीत लीऔ,
तिन आपुनि आप कौ मित्र भयो .
यदि हारि गयौ मन इन्द्रिन सों,
तिन आपुहि आपु को शत्रु भयो
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः॥६- ७॥
जिन शीत ताप सुख दुखन में
अपमान व् मान समान लगे.
तिन जीत लियो परमेश प्रभो,
तिनकौ ही ब्रह्म में ध्यान लगे
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः॥६- ८॥
जिन ज्ञान सों तृप्त हैं अंतर्मन
लियौ जीत विकारन इन्द्रिन कौ.
जिन पाथर सुवरन भेद नाहीं,
अस योगी वही सांचे मन कौ
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥६- ९॥
जिन मित्र सुह्रद बैरी बांधव,
साधुन पापिन में भेद नाहीं,
तिन सम्यक बुद्ध प्रबुद्धन कौ ,
प्रभु होत सुलभ संदेह नाहीं
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥६- १०॥
जिन तन-मन इन्द्रिन जीत लियौ
जिन कामना संग्रह रीत लियौ ,
तिन योगी निरंतर ध्यान कियौ
एकाकी निवास प्रधान कियौ
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्॥६- ११॥
अति पावन भूमि कुशा आसन
मृग छाला बिछी तेहि ऊपर हो.
अति ऊँचो ना ही अति नीचो हो.
अस आसन योगी स्थिर हो
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये॥६- १२॥
तस आसन बैठ के साधे मना.
अस चिंतन, इन्द्रिन कौ साधे,
अथ अंतस मन पावन करिकै
मन यौगिक अभ्यासन साधे
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६- १३॥
फिर देह शीश और ग्रीवा कौ,
दृढ़ स्थिर अचल समान करै,
न अन्य दिशा को नैकु लखे,
स्व नाक के अग्र कौ ध्यान करै
प्रशान्तात्मा विगतभीर्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६- १४॥
अंतर्मन शांत भयौ जिनकौ,
ब्रह्मचर्य व्रती, भयहीन मना.
मन चित्त मोहे अर्पित करिकै
अथ मोरे परायण होत जना
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६- १५॥
नित ब्रह्म सरूपहीं आत्मा कौ,
नित नित्य जो योगी लगाय रहै .
मुझ माहीं बसत है अस योगी,
निर्वाण परम पद पाय रहै
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन॥६- १६॥
यहि योग तो ना अति खाबन सों,
अति सोबन सों, अति जागन सों.
ना होत सिद्ध कबहूँ अर्जुन!
अति होत है जिनमें उन जन सों
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥६- १७॥
सम्यक आहार विहार शयन,
सम्यक जागृति शुभ करमन सों.
दुःख नाशक योग की सिद्धि ताहि
हुई जात है सम्यक भावन सों
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६- १८॥
जेहि काल सधे भये चिंतन सों.
परमेश्वर लीन भयो योगी
तेहि काल मिटें सब स्पर्हा
अस योग सों युक्त भयो योगी
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६- १९॥
जस वायु विहीन जगह मांहीं,
ना कोऊ दीप जलाय सके,
तस ब्रह्म विलीन जो योगी भये,
तिन चित्त ना कोऊ डिगाय सके
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति॥६- २०॥
अभ्यसन योग सों जेहि काले,
मन चित्त सधै, उपराम भयौ ,
उर ब्रह्म बसौ , जिन ब्रह्म लख्यो ,
तस योगी ही पूरण काम भयौ
सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः॥६- २१॥
जिन पावन सूक्षम बुद्धिं सों,
इन्द्रिन सों परे आनंदन कौ,
उर मांहीं बसाय के ब्रह्म लख्यो,
फिर नांहीं तजै ब्रजनंदन कौ