"अध्याय ८ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। | ||
+ | अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥८- १॥ | ||
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अथ अष्टमोअध्याय | अथ अष्टमोअध्याय | ||
अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
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अधिभूत के नाम सों होत है क्या? | अधिभूत के नाम सों होत है क्या? | ||
अधिदैव के नाम को मर्म है क्या? | अधिदैव के नाम को मर्म है क्या? | ||
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+ | अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन। | ||
+ | प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥८- २॥ | ||
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हे मधुसूदन ! अधियज्ञ है क्या? | हे मधुसूदन ! अधियज्ञ है क्या? | ||
यहि देह में कैसे कहाँ कत है? | यहि देह में कैसे कहाँ कत है? | ||
और अंतिम काले योगी जन, | और अंतिम काले योगी जन, | ||
कैसे केहि ज्ञान सों समुझत हैं? | कैसे केहि ज्ञान सों समुझत हैं? | ||
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+ | अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। | ||
+ | भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८- ३॥ | ||
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श्री भगवानुवाच | श्री भगवानुवाच | ||
अविनाशी अक्षर ब्रह्म परम, | अविनाशी अक्षर ब्रह्म परम, | ||
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तप त्याग दान और यज्ञ आदि, | तप त्याग दान और यज्ञ आदि, | ||
सब कर्म नाम सों जात कहे | सब कर्म नाम सों जात कहे | ||
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+ | अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्। | ||
+ | अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८- ४॥ | ||
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अधिभूत जो द्रव्य कहावत है, | अधिभूत जो द्रव्य कहावत है, | ||
उत्पत्ति विनाशन धर्मा हैं, | उत्पत्ति विनाशन धर्मा हैं, | ||
मैं ही अधि यज्ञ हूँ यहि देहे, | मैं ही अधि यज्ञ हूँ यहि देहे, | ||
अधिदैव में होवत ब्रह्मा हैं | अधिदैव में होवत ब्रह्मा हैं | ||
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+ | अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्। | ||
+ | यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८- ५॥ | ||
+ | </span> | ||
मन माहीं अटल विश्वास, हिया , | मन माहीं अटल विश्वास, हिया , | ||
सों अंतिम काल जो ध्यान करै, | सों अंतिम काल जो ध्यान करै, | ||
मोरो प्रिय मोसों ही मिलिहै, | मोरो प्रिय मोसों ही मिलिहै, | ||
संशय यहि माहीं न नैकु करै | संशय यहि माहीं न नैकु करै | ||
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+ | यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्। | ||
+ | तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८- ६॥ | ||
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तस-तस ही ताकौ ताय मिलै, | तस-तस ही ताकौ ताय मिलै, | ||
जस भाव धरयो जीवन काले, | जस भाव धरयो जीवन काले, | ||
जस चिंतन, तस ही चित्त बसे, | जस चिंतन, तस ही चित्त बसे, | ||
कौन्तेय ! सुनौ अंतिम काले | कौन्तेय ! सुनौ अंतिम काले | ||
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+ | तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च। | ||
+ | मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८- ७॥ | ||
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सों, हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ, | सों, हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ, | ||
हर काल मेरौ सुमिरन करिकै, | हर काल मेरौ सुमिरन करिकै, | ||
बिनु संशय तू मोसों मिलिहै, | बिनु संशय तू मोसों मिलिहै, | ||
मन बुद्धि मोहे अर्पित करिकै | मन बुद्धि मोहे अर्पित करिकै | ||
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+ | अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना। | ||
+ | परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८- ८॥ | ||
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जिन रोक लियौ मन चहुँ दिस सों, | जिन रोक लियौ मन चहुँ दिस सों, | ||
और ध्यान गहन अभ्यासन सों, | और ध्यान गहन अभ्यासन सों, | ||
तिन नित्य निरंतर चिंतन सों, | तिन नित्य निरंतर चिंतन सों, | ||
ही जाय मिलै , ब्रज नंदन सों | ही जाय मिलै , ब्रज नंदन सों | ||
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+ | कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः। | ||
+ | सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८- ९॥ | ||
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अणु सों अणु , धारक पोषक कौ. | अणु सों अणु , धारक पोषक कौ. | ||
आद्यंत, अचिन्त्य,अनंता कौ, | आद्यंत, अचिन्त्य,अनंता कौ, | ||
ज्योतिर्मय रवि सम, प्रभु को जो जन, | ज्योतिर्मय रवि सम, प्रभु को जो जन, | ||
ध्यावत नित-नित्य नियंता कौ | ध्यावत नित-नित्य नियंता कौ | ||
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+ | प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव। | ||
+ | भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८- १०॥ | ||
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तिन भक्त योग-बल के बल सों, | तिन भक्त योग-बल के बल सों, | ||
भृकुटी के मध्य में प्राण धरै. | भृकुटी के मध्य में प्राण धरै. | ||
हिय सुमिरन ब्रह्म कौ ध्यान अटल, | हिय सुमिरन ब्रह्म कौ ध्यान अटल, | ||
ही अंतिम काल प्रयाण करै | ही अंतिम काल प्रयाण करै | ||
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+ | यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः। | ||
+ | यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८- ११॥ | ||
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जेहि मांही विरागी प्रवेश करै, | जेहि मांही विरागी प्रवेश करै, | ||
वेदज्ञ को 'ॐ ' भयौ जैसो, | वेदज्ञ को 'ॐ ' भयौ जैसो, | ||
ब्रह्मचर्य धरयो जेहि कारण सों, | ब्रह्मचर्य धरयो जेहि कारण सों, | ||
परब्रह्म कौ सार कह्यो तोसों | परब्रह्म कौ सार कह्यो तोसों | ||
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+ | सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च। | ||
+ | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८- १२॥ | ||
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वश में इन्द्रिन कौ विषयन सों , | वश में इन्द्रिन कौ विषयन सों , | ||
हिय मांहीं करै स्थिर मन कौ. | हिय मांहीं करै स्थिर मन कौ. | ||
स्थापन प्राण कौ मस्तक में, | स्थापन प्राण कौ मस्तक में, | ||
अथ स्थित योग के धारण कौ | अथ स्थित योग के धारण कौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्। | ||
+ | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८- १३॥ | ||
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एक 'ॐ ' कौ अक्षर ब्रह्म महे, | एक 'ॐ ' कौ अक्षर ब्रह्म महे, | ||
उच्चारत भये जिन प्राण तजे | उच्चारत भये जिन प्राण तजे | ||
तिन पाया परम गति , बिनु संशय , | तिन पाया परम गति , बिनु संशय , | ||
जिन अंतिम काले मोहे भजे | जिन अंतिम काले मोहे भजे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः। | ||
+ | तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८- १४॥ | ||
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हे पार्थ ! मेरौ अविचल मन सों, | हे पार्थ ! मेरौ अविचल मन सों, | ||
नित सुमिरन मन चित मांहीं करै | नित सुमिरन मन चित मांहीं करै |
00:33, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते॥८- १॥
अथ अष्टमोअध्याय
अर्जुन उवाच
हे पुरुषोत्तम ! यहि ब्रह्म है क्या?
अध्यात्म है क्या और कर्म है क्या?
अधिभूत के नाम सों होत है क्या?
अधिदैव के नाम को मर्म है क्या?
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः॥८- २॥
हे मधुसूदन ! अधियज्ञ है क्या?
यहि देह में कैसे कहाँ कत है?
और अंतिम काले योगी जन,
कैसे केहि ज्ञान सों समुझत हैं?
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८- ३॥
श्री भगवानुवाच
अविनाशी अक्षर ब्रह्म परम,
सत-चित-आनंदम, अर्जुन हे!
तप त्याग दान और यज्ञ आदि,
सब कर्म नाम सों जात कहे
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८- ४॥
अधिभूत जो द्रव्य कहावत है,
उत्पत्ति विनाशन धर्मा हैं,
मैं ही अधि यज्ञ हूँ यहि देहे,
अधिदैव में होवत ब्रह्मा हैं
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८- ५॥
मन माहीं अटल विश्वास, हिया ,
सों अंतिम काल जो ध्यान करै,
मोरो प्रिय मोसों ही मिलिहै,
संशय यहि माहीं न नैकु करै
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८- ६॥
तस-तस ही ताकौ ताय मिलै,
जस भाव धरयो जीवन काले,
जस चिंतन, तस ही चित्त बसे,
कौन्तेय ! सुनौ अंतिम काले
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८- ७॥
सों, हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ,
हर काल मेरौ सुमिरन करिकै,
बिनु संशय तू मोसों मिलिहै,
मन बुद्धि मोहे अर्पित करिकै
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८- ८॥
जिन रोक लियौ मन चहुँ दिस सों,
और ध्यान गहन अभ्यासन सों,
तिन नित्य निरंतर चिंतन सों,
ही जाय मिलै , ब्रज नंदन सों
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्॥८- ९॥
अणु सों अणु , धारक पोषक कौ.
आद्यंत, अचिन्त्य,अनंता कौ,
ज्योतिर्मय रवि सम, प्रभु को जो जन,
ध्यावत नित-नित्य नियंता कौ
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८- १०॥
तिन भक्त योग-बल के बल सों,
भृकुटी के मध्य में प्राण धरै.
हिय सुमिरन ब्रह्म कौ ध्यान अटल,
ही अंतिम काल प्रयाण करै
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८- ११॥
जेहि मांही विरागी प्रवेश करै,
वेदज्ञ को 'ॐ ' भयौ जैसो,
ब्रह्मचर्य धरयो जेहि कारण सों,
परब्रह्म कौ सार कह्यो तोसों
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८- १२॥
वश में इन्द्रिन कौ विषयन सों ,
हिय मांहीं करै स्थिर मन कौ.
स्थापन प्राण कौ मस्तक में,
अथ स्थित योग के धारण कौ
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८- १३॥
एक 'ॐ ' कौ अक्षर ब्रह्म महे,
उच्चारत भये जिन प्राण तजे
तिन पाया परम गति , बिनु संशय ,
जिन अंतिम काले मोहे भजे
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८- १४॥
हे पार्थ ! मेरौ अविचल मन सों,
नित सुमिरन मन चित मांहीं करै
तिन योगिन कौ 'मैं' होत सुलभ,
वासुदेव कृपा बहु भांति करै