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"अध्याय ८ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
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नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८- १५॥
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जिन सिद्धि  परम पद पाय लियौ,
 
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तिन जन मुझ मांहीं समाय गयौ.
 
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तिन क्षण भंगुर दुःख रूप जगत,
 
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पुनि जन्म सों मुक्ति पाय गयौ
 
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आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
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मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८- १६॥
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अपि ब्रह्म लोक और लोक सबहिं,
 
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पुनरावृति धर्मा अर्जुन हैं.
 
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मुझ मांहीं लीन कौन्तेय ! जना,
 
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पुनरावृति धर्म विहीनन हैं
 
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सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
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रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥८- १७॥
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जग बीते सहस्त्रं चौकड़ी कौ,
 
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ब्रह्म कौ तब दिन एक भयो.
 
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सम काल की रात है ब्रह्मा की ,
 
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योगिन कौ तत्त्व विवेक भयो
 
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अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
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रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥८- १८॥
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प्राणी सगरे, यहि दृश्य जगत,
 
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ब्रह्मा सों ही उत्पन्न भयौ .
 
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पुनि लीन भयौ, पुनि जन्म भयौ.
 
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अथ क्रम सृष्टि निष्पन्न भयौ
 
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भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
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रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥८- १९॥
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अस वृन्द ही प्रानिन  कौ सगरौ,
 
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आधीन प्रकृति के होय रह्यौ,
 
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निशि में लय, पुनि दिन होत उदय,
 
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पुनि यह क्रम, अर्जुन होय रह्यो
 
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परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
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यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥८- २०॥
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यहि पूरन ब्रह्म विलक्षण जो,
 
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अव्यक्त सनातन सत्य घन्यो.
 
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जग सगरौ नसावन हारो है,
 
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परब्रह्म ही केवल नित्य बन्यो
 
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अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
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यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८- २१॥
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अव्यक्त जो अक्षर हे अर्जुन!
 
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गति मोरी परम कहावत है,
 
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जेहि पाय नाहीं आवति जग में,
 
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सब पूर्ण काम हुए जावत हैं
 
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पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
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यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥८- २२॥
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सब प्राणी ब्रह्म के अर्न्तगत,
 
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जेहि सों परिपूरन जग सगरौ,
 
जेहि सों परिपूरन जग सगरौ,
 
सुनि पार्थ! वही परिपूरन ब्रह्म तौ,
 
सुनि पार्थ! वही परिपूरन ब्रह्म तौ,
 
भक्ति अनन्य सों है तुम्हारौ
 
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यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
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प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥८- २३॥
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जस काल में मानव देह तजे,
 
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तस आवागमन गति पावत है.
 
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अस  काल कौ मर्म सुनौ अर्जुन !
 
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अथ मारग कृष्ण बतावत है
 
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अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
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तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥८- २४॥
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उत्तरायण मारग अग्नि कौ,
 
उत्तरायण मारग अग्नि कौ,
 
दिन, शुक्ल को  देव हो अभिमानी.
 
दिन, शुक्ल को  देव हो अभिमानी.
 
ब्रह्मयज्ञ को होत प्रयाण यदि,
 
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दिवि लोकहीं जावत है ज्ञानी
 
दिवि लोकहीं जावत है ज्ञानी
 
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धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
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तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥८- २५॥
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दक्षिरायण मारग धूम निशा,
 
दक्षिरायण मारग धूम निशा,
 
कृष्ण पक्ष  देव हों अभिमानी.
 
कृष्ण पक्ष  देव हों अभिमानी.
 
मिलि चन्द्र की ज्योति प्रयाण करै,
 
मिलि चन्द्र की ज्योति प्रयाण करै,
 
पुनि जन्म जो नाहीं निष्कामी
 
पुनि जन्म जो नाहीं निष्कामी
 
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शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
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एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥८- २६॥
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जग में दुइ मार्ग सनातन है,
 
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पथ कृष्ण व् शुक्ल कहावत है,
 
पथ कृष्ण व् शुक्ल कहावत है,
 
पितु लोक सों तो पुनि जनमत हैं,
 
पितु लोक सों तो पुनि जनमत हैं,
 
नाहीं देव के लोक सों आवति है
 
नाहीं देव के लोक सों आवति है
 
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नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
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तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥८- २७॥
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इहि दोनों मारग पार्थ सुनौ,
 
इहि दोनों मारग पार्थ सुनौ,
 
जेहि ज्ञानी तत्त्व सों जानाति है,
 
जेहि ज्ञानी तत्त्व सों जानाति है,
 
नाहीं मोहित होवत हे अर्जुन!
 
नाहीं मोहित होवत हे अर्जुन!
 
सम भाव धरौ समुझावति हैं
 
सम भाव धरौ समुझावति हैं
 
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वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
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अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥८- २८॥
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तप, दान, यज्ञ, और वेद पठन,
 
तप, दान, यज्ञ, और वेद पठन,
 
कौ फलित पुण्य  बतलावत हैं,
 
कौ फलित पुण्य  बतलावत हैं,

00:45, 11 जनवरी 2010 का अवतरण


मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८- १५॥

जिन सिद्धि परम पद पाय लियौ,
तिन जन मुझ मांहीं समाय गयौ.
तिन क्षण भंगुर दुःख रूप जगत,
पुनि जन्म सों मुक्ति पाय गयौ

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥८- १६॥

अपि ब्रह्म लोक और लोक सबहिं,
पुनरावृति धर्मा अर्जुन हैं.
मुझ मांहीं लीन कौन्तेय ! जना,
पुनरावृति धर्म विहीनन हैं

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥८- १७॥

जग बीते सहस्त्रं चौकड़ी कौ,
ब्रह्म कौ तब दिन एक भयो.
सम काल की रात है ब्रह्मा की ,
योगिन कौ तत्त्व विवेक भयो

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥८- १८॥

प्राणी सगरे, यहि दृश्य जगत,
ब्रह्मा सों ही उत्पन्न भयौ .
पुनि लीन भयौ, पुनि जन्म भयौ.
अथ क्रम सृष्टि निष्पन्न भयौ

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥८- १९॥

अस वृन्द ही प्रानिन कौ सगरौ,
आधीन प्रकृति के होय रह्यौ,
निशि में लय, पुनि दिन होत उदय,
पुनि यह क्रम, अर्जुन होय रह्यो

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥८- २०॥

यहि पूरन ब्रह्म विलक्षण जो,
अव्यक्त सनातन सत्य घन्यो.
जग सगरौ नसावन हारो है,
परब्रह्म ही केवल नित्य बन्यो

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥८- २१॥

अव्यक्त जो अक्षर हे अर्जुन!
गति मोरी परम कहावत है,
जेहि पाय नाहीं आवति जग में,
सब पूर्ण काम हुए जावत हैं

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्॥८- २२॥

सब प्राणी ब्रह्म के अर्न्तगत,
जेहि सों परिपूरन जग सगरौ,
सुनि पार्थ! वही परिपूरन ब्रह्म तौ,
भक्ति अनन्य सों है तुम्हारौ

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ॥८- २३॥

जस काल में मानव देह तजे,
तस आवागमन गति पावत है.
अस काल कौ मर्म सुनौ अर्जुन !
अथ मारग कृष्ण बतावत है

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः॥८- २४॥

उत्तरायण मारग अग्नि कौ,
दिन, शुक्ल को देव हो अभिमानी.
ब्रह्मयज्ञ को होत प्रयाण यदि,
दिवि लोकहीं जावत है ज्ञानी

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥८- २५॥

दक्षिरायण मारग धूम निशा,
कृष्ण पक्ष देव हों अभिमानी.
मिलि चन्द्र की ज्योति प्रयाण करै,
पुनि जन्म जो नाहीं निष्कामी

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः॥८- २६॥

जग में दुइ मार्ग सनातन है,
पथ कृष्ण व् शुक्ल कहावत है,
पितु लोक सों तो पुनि जनमत हैं,
नाहीं देव के लोक सों आवति है

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन॥८- २७॥

इहि दोनों मारग पार्थ सुनौ,
जेहि ज्ञानी तत्त्व सों जानाति है,
नाहीं मोहित होवत हे अर्जुन!
सम भाव धरौ समुझावति हैं

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत् पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥८- २८॥

तप, दान, यज्ञ, और वेद पठन,
कौ फलित पुण्य बतलावत हैं,
सत योगी इनसों होत परे,
जो जाय, कबहूँ नहीं आवत हैं