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"अध्याय १० / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
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यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥१०- १॥
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श्री भगवानुवाच
 
श्री भगवानुवाच
 
तू  मोसों  घनेरौ, नेह करै
 
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मेरौ मर्म सुनौ हे महाबाहो!
 
मेरौ मर्म सुनौ हे महाबाहो!
 
तू भक्त मेरौ,  मैं पार्थ! तेरौ
 
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न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
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अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥१०- २॥
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ना देवन ना ही महर्षि गण,
 
ना देवन ना ही महर्षि गण,
 
उत्पत्ति कौ मोरी जानत  हैं,
 
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अति आदि हूँ कारण यहि सबकौ
 
अति आदि हूँ कारण यहि सबकौ
 
कोऊ बिरलौ मोहे पिछानत हैं
 
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यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
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असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०- ३॥
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लोकेश,  अनादि अजन्मा, मैं
 
लोकेश,  अनादि अजन्मा, मैं
 
यहि रूपहीं  जो मोहें ज्ञात करें,
 
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तिन तत्त्व सों जानति ज्ञानी जन,
 
तिन तत्त्व सों जानति ज्ञानी जन,
 
और पाप सबहिं, हुइ जात परे
 
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बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
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सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥१०- ४॥
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भय, सत्य, क्षमा, और यश अपयश,
 
भय, सत्य, क्षमा, और यश अपयश,
 
शम, दम, तप, तत्त्व कौ ज्ञान हूँ मैं.
 
शम, दम, तप, तत्त्व कौ ज्ञान हूँ मैं.
 
उत्पत्ति-प्रलय सुख-दुखन कौ,
 
उत्पत्ति-प्रलय सुख-दुखन कौ,
 
नियमित कर्ता हूँ, विधान हूँ मैं
 
नियमित कर्ता हूँ, विधान हूँ मैं
 
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अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
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भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥१०- ५॥
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तप दान कीरति अपकीरति ,
 
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संतोष अहिंसा और सत हैं.
 
संतोष अहिंसा और सत हैं.
 
सब प्रानिन  के बहु भाव विविध.,
 
सब प्रानिन  के बहु भाव विविध.,
 
सब मोसों ही तो उपजत हैं
 
सब मोसों ही तो उपजत हैं
 
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महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
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मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥१०- ६॥
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ऋषि सप्त मनु चौदह उनसों,
 
ऋषि सप्त मनु चौदह उनसों,
 
सनकादि भये पहिले जो भी.
 
सनकादि भये पहिले जो भी.
 
निष्पन्न मोरे संकल्पन सों,
 
निष्पन्न मोरे संकल्पन सों,
 
भये प्रजा आदि जग में जो भी
 
भये प्रजा आदि जग में जो भी
 
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एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
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सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥१०- ७॥
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जिन योगन शक्ति विभूतिन  कौ,
 
जिन योगन शक्ति विभूतिन  कौ,
 
मोरे तत्वन  कौ पहिचानत हैं.
 
मोरे तत्वन  कौ पहिचानत हैं.
 
तिन ध्यान योग सों संशय बिनु,
 
तिन ध्यान योग सों संशय बिनु,
 
सगरे मुझ माहीं समावत हैं
 
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अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
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इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥१०- ८॥
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यहि जगत सृष्टि कौ कारण मैं,
 
यहि जगत सृष्टि कौ कारण मैं,
 
करमन क्षमता मोसों उपजै
 
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यहि जान तत्व सों ज्ञानी जना
 
यहि जान तत्व सों ज्ञानी जना
 
बस मोहे भजै,  बस मोहे भजै,
 
बस मोहे भजै,  बस मोहे भजै,
 
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मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
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कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥१०- ९॥
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मुझ माहीं सतत जिन चित्त लग्यो,
 
मुझ माहीं सतत जिन चित्त लग्यो,
 
मुझ माहीं जिनके प्राण परयो.
 
मुझ माहीं जिनके प्राण परयो.
 
वासुदेवहिं चित्त रमाय हिया ,
 
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मन चित्त कथन गुण गान करयो
 
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तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
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ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥१०- १०॥
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अस मेरौ सतत जिन ध्यान कियौ,
 
अस मेरौ सतत जिन ध्यान कियौ,
 
तिन योग सों योग,  मैं योग कियौ.
 
तिन योग सों योग,  मैं योग कियौ.
 
जिन मेरौ भजन मन प्रीत कियौ,
 
जिन मेरौ भजन मन प्रीत कियौ,
 
बिनु संशय मोसों ही योग कियौ
 
बिनु संशय मोसों ही योग कियौ
 
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तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
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नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०- ११॥
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अंतर्मन अंतस माहीं बसौं,
 
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मैं उनकौ अनुग्रह करवन कौ,
 
मैं उनकौ अनुग्रह करवन कौ,
 
मैं ज्ञान के दीप सों शेष करूँ,
 
मैं ज्ञान के दीप सों शेष करूँ,
 
अज्ञान तिमिर तिन हिय मन कौ
 
अज्ञान तिमिर तिन हिय मन कौ
 
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परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
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पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥१०- १२॥
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अर्जुन उवाच
 
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शुचि धाम परम प्रभु पावन है,
 
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अस दिव्य ऋषि जन नित्य कहें ,
 
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बिनु जन्म चहुँ दिसि व्याप रहे
 
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आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
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असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥१०- १३॥
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ऋषि देवल व्यास महर्षि और,
 
ऋषि देवल व्यास महर्षि और,
 
नारद देवर्षि कहवत हैं,
 
नारद देवर्षि कहवत हैं,
 
ऋषि असित,  स्वयं प्रभु आप भी तौ,
 
ऋषि असित,  स्वयं प्रभु आप भी तौ,
 
अस मोरे विषय यहि कहवत हैं
 
अस मोरे विषय यहि कहवत हैं
 
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सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
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न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥१०- १४॥
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हे केशव ! मोसों कहवत जो
 
हे केशव ! मोसों कहवत जो
 
  वही सत्य -सनातन मानत हूँ.
 
  वही सत्य -सनातन मानत हूँ.
 
न ही देव न दानव जानत हूँ ,
 
न ही देव न दानव जानत हूँ ,
 
तोरी लीला अद्भुत मानत हूँ
 
तोरी लीला अद्भुत मानत हूँ
 
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स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
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भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥१०- १५॥
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सब प्रानिन  के सरजन हारे,
 
सब प्रानिन  के सरजन हारे,
 
हे देवों के देव !  कहाँ कत हो?
 
हे देवों के देव !  कहाँ कत हो?
 
हे पुरुषोत्तम ! स्वामी जग के,
 
हे पुरुषोत्तम ! स्वामी जग के,
 
तुम आपु ही आपु को जानति हो
 
तुम आपु ही आपु को जानति हो
 
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वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
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याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥१०- १६॥
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तुम समरथ आपु बतावन कौ,
 
तुम समरथ आपु बतावन कौ,
 
प्रभु आपुनि दिव्य विभूतिन कौ,
 
प्रभु आपुनि दिव्य विभूतिन कौ,
 
ब्रह्माण्ड में आपु ही वास करै,
 
ब्रह्माण्ड में आपु ही वास करै,
 
सरजन हारो तू कण-कण कौ
 
सरजन हारो तू कण-कण कौ
 
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कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
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केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥१०- १७॥
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केहि भांति तोरौ , योगेश्वर मैं,
 
केहि भांति तोरौ , योगेश्वर मैं,
 
करि पाऊं सतत चिंतन कैसे?
 
करि पाऊं सतत चिंतन कैसे?
 
केहि-केहि भावन सुमिरन करिकै ,
 
केहि-केहि भावन सुमिरन करिकै ,
 
कथ पावों तोहे भगवन कैसे?
 
कथ पावों तोहे भगवन कैसे?
 
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विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
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भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥१०- १८॥
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विस्तार सों केशव मर्म कहौ,
 
विस्तार सों केशव मर्म कहौ,
 
तोरी दिव्य विभूति को अंत कहाँ?
 
तोरी दिव्य विभूति को अंत कहाँ?
 
अमृतमय वचन तोरे सुनि के ,
 
अमृतमय वचन तोरे सुनि के ,
 
मन होत जनार्दन ! तृप्त कहाँ?
 
मन होत जनार्दन ! तृप्त कहाँ?
 
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हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
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प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥१०- १९॥
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श्री कृष्ण उवाच
 
श्री कृष्ण उवाच
 
मैं आपुनि दिव्य विभूतिन कौ ,
 
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विस्तारन कौ कछु अंत नाहीं,
 
विस्तारन कौ कछु अंत नाहीं,
 
अनु कन-कन व्याप रह्यो मोसों
 
अनु कन-कन व्याप रह्यो मोसों
 
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अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
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अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥१०- २०॥
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सब प्रानिन  की मैं आत्मा हूँ,
 
सब प्रानिन  की मैं आत्मा हूँ,
 
मैं वास करूँ हृदयन माहीं.
 
मैं वास करूँ हृदयन माहीं.
 
अति आदि मध्य हूँ, अंत मैं ही ,
 
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मैं अर्जुन! होत कहाँ नाहीं?
 
मैं अर्जुन! होत कहाँ नाहीं?
 
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आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
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मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥१०- २१॥
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बस रह्यो पृथा सुत विष्णु में,
 
बस रह्यो पृथा सुत विष्णु में,
 
अदिति के बारह पुत्रन में.
 
अदिति के बारह पुत्रन में.

00:59, 11 जनवरी 2010 का अवतरण


भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया॥१०- १॥

श्री भगवानुवाच
तू मोसों घनेरौ, नेह करै
कल्यान मैं चाहूँ , यथार्थ तेरौ ,
मेरौ मर्म सुनौ हे महाबाहो!
तू भक्त मेरौ, मैं पार्थ! तेरौ

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥१०- २॥

ना देवन ना ही महर्षि गण,
उत्पत्ति कौ मोरी जानत हैं,
अति आदि हूँ कारण यहि सबकौ
कोऊ बिरलौ मोहे पिछानत हैं

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम्।
असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते॥१०- ३॥

लोकेश, अनादि अजन्मा, मैं
यहि रूपहीं जो मोहें ज्ञात करें,
तिन तत्त्व सों जानति ज्ञानी जन,
और पाप सबहिं, हुइ जात परे

बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥१०- ४॥

भय, सत्य, क्षमा, और यश अपयश,
शम, दम, तप, तत्त्व कौ ज्ञान हूँ मैं.
उत्पत्ति-प्रलय सुख-दुखन कौ,
नियमित कर्ता हूँ, विधान हूँ मैं

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।
 भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥१०- ५॥

तप दान कीरति अपकीरति ,
संतोष अहिंसा और सत हैं.
सब प्रानिन के बहु भाव विविध.,
सब मोसों ही तो उपजत हैं

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥१०- ६॥

ऋषि सप्त मनु चौदह उनसों,
सनकादि भये पहिले जो भी.
निष्पन्न मोरे संकल्पन सों,
भये प्रजा आदि जग में जो भी

एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥१०- ७॥

जिन योगन शक्ति विभूतिन कौ,
मोरे तत्वन कौ पहिचानत हैं.
तिन ध्यान योग सों संशय बिनु,
सगरे मुझ माहीं समावत हैं

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥१०- ८॥

यहि जगत सृष्टि कौ कारण मैं,
करमन क्षमता मोसों उपजै
यहि जान तत्व सों ज्ञानी जना
बस मोहे भजै, बस मोहे भजै,

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥१०- ९॥

मुझ माहीं सतत जिन चित्त लग्यो,
मुझ माहीं जिनके प्राण परयो.
वासुदेवहिं चित्त रमाय हिया ,
मन चित्त कथन गुण गान करयो

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥१०- १०॥

अस मेरौ सतत जिन ध्यान कियौ,
तिन योग सों योग, मैं योग कियौ.
जिन मेरौ भजन मन प्रीत कियौ,
बिनु संशय मोसों ही योग कियौ

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥१०- ११॥

अंतर्मन अंतस माहीं बसौं,
मैं उनकौ अनुग्रह करवन कौ,
मैं ज्ञान के दीप सों शेष करूँ,
अज्ञान तिमिर तिन हिय मन कौ

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥१०- १२॥

अर्जुन उवाच
शुचि धाम परम प्रभु पावन है,
परब्रह्म परम प्रभु आप महे,
अस दिव्य ऋषि जन नित्य कहें ,
बिनु जन्म चहुँ दिसि व्याप रहे

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षिर्नारदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे॥१०- १३॥

ऋषि देवल व्यास महर्षि और,
नारद देवर्षि कहवत हैं,
ऋषि असित, स्वयं प्रभु आप भी तौ,
अस मोरे विषय यहि कहवत हैं

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः॥१०- १४॥

हे केशव ! मोसों कहवत जो
 वही सत्य -सनातन मानत हूँ.
न ही देव न दानव जानत हूँ ,
तोरी लीला अद्भुत मानत हूँ

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥१०- १५॥

सब प्रानिन के सरजन हारे,
हे देवों के देव ! कहाँ कत हो?
हे पुरुषोत्तम ! स्वामी जग के,
तुम आपु ही आपु को जानति हो

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि॥१०- १६॥

तुम समरथ आपु बतावन कौ,
प्रभु आपुनि दिव्य विभूतिन कौ,
ब्रह्माण्ड में आपु ही वास करै,
सरजन हारो तू कण-कण कौ

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया॥१०- १७॥

केहि भांति तोरौ , योगेश्वर मैं,
करि पाऊं सतत चिंतन कैसे?
केहि-केहि भावन सुमिरन करिकै ,
कथ पावों तोहे भगवन कैसे?

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्॥१०- १८॥

विस्तार सों केशव मर्म कहौ,
तोरी दिव्य विभूति को अंत कहाँ?
अमृतमय वचन तोरे सुनि के ,
मन होत जनार्दन ! तृप्त कहाँ?

हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे॥१०- १९॥

श्री कृष्ण उवाच
मैं आपुनि दिव्य विभूतिन कौ ,
श्री कृष्ण बताय रह्यो तोसों.
विस्तारन कौ कछु अंत नाहीं,
अनु कन-कन व्याप रह्यो मोसों

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥१०- २०॥

सब प्रानिन की मैं आत्मा हूँ,
मैं वास करूँ हृदयन माहीं.
अति आदि मध्य हूँ, अंत मैं ही ,
मैं अर्जुन! होत कहाँ नाहीं?

आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी॥१०- २१॥

बस रह्यो पृथा सुत विष्णु में,
अदिति के बारह पुत्रन में.
मैं मरुत देव माहीं मरीचि ,
नक्षत्रन शशि, रवि ज्योतिन में