"अध्याय १२ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
<poem> | <poem> | ||
अथ द्वादशोअध्याय | अथ द्वादशोअध्याय | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते। | ||
+ | ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥१२- १॥ | ||
+ | </span> | ||
अर्जुन उवाच. | अर्जुन उवाच. | ||
जो भक्त सतत तोरे चिंतन में, | जो भक्त सतत तोरे चिंतन में, | ||
पंक्ति 12: | पंक्ति 15: | ||
और निर्गुण ब्रह्म उपासै कोऊ. | और निर्गुण ब्रह्म उपासै कोऊ. | ||
कौ दोउन में तोहे पावै | कौ दोउन में तोहे पावै | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते। | ||
+ | श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२- २॥ | ||
+ | </span> | ||
श्री भगवानुवाच | श्री भगवानुवाच | ||
एकाग्र कियौ मन, ध्यान कियौ. | एकाग्र कियौ मन, ध्यान कियौ. | ||
पंक्ति 18: | पंक्ति 24: | ||
अभ्यास निरंतर , नित्य रुचे. | अभ्यास निरंतर , नित्य रुचे. | ||
अस योगी रुचिर, मोरे चित्त सजे | अस योगी रुचिर, मोरे चित्त सजे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते। | ||
+ | सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२- ३॥ | ||
+ | </span> | ||
सब इन्द्रियन कौ जिन साध लियौ, | सब इन्द्रियन कौ जिन साध लियौ, | ||
सब प्रानिन हित रत भाव लियौ. | सब प्रानिन हित रत भाव लियौ. | ||
सम भाव समान जो धारे हिये , | सम भाव समान जो धारे हिये , | ||
तिन भक्तन कौ अपनाय लियौ | तिन भक्तन कौ अपनाय लियौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः। | ||
+ | ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२- ४॥ | ||
+ | </span> | ||
मन बुद्धि सों परब्रह्म होत परे, | मन बुद्धि सों परब्रह्म होत परे, | ||
अथ ब्रह्म अकथ कोऊ कैसे कहे.? | अथ ब्रह्म अकथ कोऊ कैसे कहे.? | ||
अविनाशी,अटल आकार बिना. | अविनाशी,अटल आकार बिना. | ||
अस ब्रह्म कौ हिरदय माहीं गहे | अस ब्रह्म कौ हिरदय माहीं गहे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्। | ||
+ | अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥१२- ५॥ | ||
+ | </span> | ||
निर्गुण, परब्रह्म विभूति सों, | निर्गुण, परब्रह्म विभूति सों, | ||
आसक्त मना, जिन होत जना, | आसक्त मना, जिन होत जना, | ||
तिन साधन में श्रम होत घनयो, | तिन साधन में श्रम होत घनयो, | ||
यदि देहन भाव घनत्व घना | यदि देहन भाव घनत्व घना | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः। | ||
+ | अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२- ६॥ | ||
+ | </span> | ||
सब करम मोहे अर्पित करिकै, | सब करम मोहे अर्पित करिकै, | ||
भये मोरे परायण सों सोहैं. | भये मोरे परायण सों सोहैं. | ||
साकार ध्यान योगन सों जिन , | साकार ध्यान योगन सों जिन , | ||
करि ध्यान अनन्य मोहे मोहैं | करि ध्यान अनन्य मोहे मोहैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्। | ||
+ | भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२- ७॥ | ||
+ | </span> | ||
जेहि कौ मन चित्त लग्यो मोसों, | जेहि कौ मन चित्त लग्यो मोसों, | ||
हे पार्थ! विषम भाव सागर सों, | हे पार्थ! विषम भाव सागर सों, | ||
तरि जात प्रतीति करौ मोरी, | तरि जात प्रतीति करौ मोरी, | ||
उतरौ अब तौ भाव सागर सों | उतरौ अब तौ भाव सागर सों | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय। | ||
+ | निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥१२- ८॥ | ||
+ | </span> | ||
मुझ माहीं रमाय के बुद्धि मना, | मुझ माहीं रमाय के बुद्धि मना, | ||
मुझ माहीं समाय के वास करै. | मुझ माहीं समाय के वास करै. | ||
तिनकौ हित चिंतन, धर्म मेरौ. | तिनकौ हित चिंतन, धर्म मेरौ. | ||
बिनु संशय के विश्वास करै | बिनु संशय के विश्वास करै | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्। | ||
+ | अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥१२- ९॥ | ||
+ | </span> | ||
यदि चित्त तेरौ , मोरे मन में | यदि चित्त तेरौ , मोरे मन में | ||
बिनु चंचलता के नाहीं टिके. | बिनु चंचलता के नाहीं टिके. | ||
तब नित्य धनञ्जय योगन सों, | तब नित्य धनञ्जय योगन सों, | ||
अभ्यास करौ यहि भांति रुके | अभ्यास करौ यहि भांति रुके | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव। | ||
+ | मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥१२- १०॥ | ||
+ | </span> | ||
अस अभ्यासन कौ साधन में, | अस अभ्यासन कौ साधन में, | ||
यदि समरथ कोऊ न होय सकै, | यदि समरथ कोऊ न होय सकै, |
01:17, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
अथ द्वादशोअध्याय
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥१२- १॥
अर्जुन उवाच.
जो भक्त सतत तोरे चिंतन में,
साकार सगुण तोहे ध्यावै.
और निर्गुण ब्रह्म उपासै कोऊ.
कौ दोउन में तोहे पावै
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२- २॥
श्री भगवानुवाच
एकाग्र कियौ मन, ध्यान कियौ.
मन, चित्त लगाय जो मोहे भजें
अभ्यास निरंतर , नित्य रुचे.
अस योगी रुचिर, मोरे चित्त सजे
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२- ३॥
सब इन्द्रियन कौ जिन साध लियौ,
सब प्रानिन हित रत भाव लियौ.
सम भाव समान जो धारे हिये ,
तिन भक्तन कौ अपनाय लियौ
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२- ४॥
मन बुद्धि सों परब्रह्म होत परे,
अथ ब्रह्म अकथ कोऊ कैसे कहे.?
अविनाशी,अटल आकार बिना.
अस ब्रह्म कौ हिरदय माहीं गहे
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते॥१२- ५॥
निर्गुण, परब्रह्म विभूति सों,
आसक्त मना, जिन होत जना,
तिन साधन में श्रम होत घनयो,
यदि देहन भाव घनत्व घना
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२- ६॥
सब करम मोहे अर्पित करिकै,
भये मोरे परायण सों सोहैं.
साकार ध्यान योगन सों जिन ,
करि ध्यान अनन्य मोहे मोहैं
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२- ७॥
जेहि कौ मन चित्त लग्यो मोसों,
हे पार्थ! विषम भाव सागर सों,
तरि जात प्रतीति करौ मोरी,
उतरौ अब तौ भाव सागर सों
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः॥१२- ८॥
मुझ माहीं रमाय के बुद्धि मना,
मुझ माहीं समाय के वास करै.
तिनकौ हित चिंतन, धर्म मेरौ.
बिनु संशय के विश्वास करै
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनंजय॥१२- ९॥
यदि चित्त तेरौ , मोरे मन में
बिनु चंचलता के नाहीं टिके.
तब नित्य धनञ्जय योगन सों,
अभ्यास करौ यहि भांति रुके
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि॥१२- १०॥
अस अभ्यासन कौ साधन में,
यदि समरथ कोऊ न होय सकै,
तब मोरे परायण करम करौ,
यहि मारग मोसों मिलाय सकै