"अध्याय १५ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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पञ्चदशोअध्याय | पञ्चदशोअध्याय | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। | ||
+ | छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५- १॥ | ||
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अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल, | अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल, | ||
शाखा नीचे जड़ ऊपर है. | शाखा नीचे जड़ ऊपर है. | ||
हैं वेद पात , जो भेद गुनै, | हैं वेद पात , जो भेद गुनै, | ||
वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है | वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है | ||
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+ | अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः। | ||
+ | अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥ | ||
+ | </span> | ||
अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों, | अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों, | ||
बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं, | बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं, | ||
नर योनी, करम विधान यथा , | नर योनी, करम विधान यथा , | ||
जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी | जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा। | ||
+ | अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥ | ||
+ | </span> | ||
आद्यंत विहीना , ये वृक्ष घनयो, | आद्यंत विहीना , ये वृक्ष घनयो, | ||
जस होत कथित तस होत नहीं, | जस होत कथित तस होत नहीं, | ||
दृढ़ मूल अहंता की मोह जड़न | दृढ़ मूल अहंता की मोह जड़न | ||
कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं | कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। | ||
+ | तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥ | ||
+ | </span> | ||
मानुष ढूंढ वही प्रभु ठौर जो , | मानुष ढूंढ वही प्रभु ठौर जो , | ||
जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं, | जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं, | ||
ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन, | ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन, | ||
की सरनागति, भावै मही | की सरनागति, भावै मही | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। | ||
+ | द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन मोह व् मान भी शेष भयौ , | जिन मोह व् मान भी शेष भयौ , | ||
अध्यातमन चाह विशेष भयौ. | अध्यातमन चाह विशेष भयौ. | ||
सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ. | सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ. | ||
तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ | तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। | ||
+ | यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५- ६॥ | ||
+ | </span> | ||
सूरज ना ही मयंक , अनल करै , | सूरज ना ही मयंक , अनल करै , | ||
कोऊ प्रकास , परम पद कौ, | कोऊ प्रकास , परम पद कौ, | ||
जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ, | जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ, | ||
वही धाम परम पद अनहद कौ | वही धाम परम पद अनहद कौ | ||
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+ | ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। | ||
+ | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥ | ||
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यहि देह में देहिन अंश मेरौ, | यहि देह में देहिन अंश मेरौ, | ||
त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ. | त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ. | ||
मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं, | मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं, | ||
एकमेव सनातन अंश मेरौ | एकमेव सनातन अंश मेरौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः। | ||
+ | गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥ | ||
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यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि , | यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि , | ||
जस वायु में गंध समावत है, | जस वायु में गंध समावत है, | ||
तस देहिन देह के भावन कौ , | तस देहिन देह के भावन कौ , | ||
नव देह में हूँ लइ जावत है | नव देह में हूँ लइ जावत है | ||
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+ | श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च। | ||
+ | अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥१५- ९॥ | ||
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यहि देहिन चक्षुन, श्रोत्र, त्वचा, | यहि देहिन चक्षुन, श्रोत्र, त्वचा, | ||
रसना मन प्राण सहारण सों, | रसना मन प्राण सहारण सों, | ||
यहि सेवत सगरे विषयन कौ , | यहि सेवत सगरे विषयन कौ , | ||
इन इन्द्रिन के आराधन सों | इन इन्द्रिन के आराधन सों | ||
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+ | उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्। | ||
+ | विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥ | ||
+ | </span> | ||
न काल प्रयाण , न जीवन में, | न काल प्रयाण , न जीवन में, | ||
न विषयन कौ भोगत क्षण में, | न विषयन कौ भोगत क्षण में, |
02:17, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
पञ्चदशोअध्याय
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५- १॥
अश्र्वत्थ वृक्ष सों विश्व विरल,
शाखा नीचे जड़ ऊपर है.
हैं वेद पात , जो भेद गुनै,
वेदज्ञ, वही ज्ञानी नर है
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५- २॥
अश्रवत्थ त्रिगुन जल सिंचन सों,
बहु शाख विविध, बहु योनी बनीं,
नर योनी, करम विधान यथा ,
जड़ विषयन की चहुँ ओर घनी
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५- ३॥
आद्यंत विहीना , ये वृक्ष घनयो,
जस होत कथित तस होत नहीं,
दृढ़ मूल अहंता की मोह जड़न
कौ, शस्त्र विराग सों काटौ यहीं
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्येयतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५- ४॥
मानुष ढूंढ वही प्रभु ठौर जो ,
जाय के पुनि- पुनि आवै नहीं,
ब्रह्म, असंग, अनंत,सनातन,
की सरनागति, भावै मही
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५- ५॥
जिन मोह व् मान भी शेष भयौ ,
अध्यातमन चाह विशेष भयौ.
सुख, काम शेष , दुःख द्वंद गयौ.
तिन ब्रह्म कौ भाव प्रवेश भयौ
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५- ६॥
सूरज ना ही मयंक , अनल करै ,
कोऊ प्रकास , परम पद कौ,
जिन पाय पुनि , नाहीं आवै कोऊ,
वही धाम परम पद अनहद कौ
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥१५- ७॥
यहि देह में देहिन अंश मेरौ,
त्रिगुनी माया सर्वांश मेरौ.
मन तथा पांच इन्द्रिन माहीं,
एकमेव सनातन अंश मेरौ
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहित्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥१५- ८॥
यहि तत्त्व गहन अति सूक्षम कि ,
जस वायु में गंध समावत है,
तस देहिन देह के भावन कौ ,
नव देह में हूँ लइ जावत है
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते॥१५- ९॥
यहि देहिन चक्षुन, श्रोत्र, त्वचा,
रसना मन प्राण सहारण सों,
यहि सेवत सगरे विषयन कौ ,
इन इन्द्रिन के आराधन सों
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः॥१५- १०॥
न काल प्रयाण , न जीवन में,
न विषयन कौ भोगत क्षण में,
न जाने मूढ़ कदापि कोऊ ,
लखि ज्ञान नयन सों हिय मन में