"अध्याय १५ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्। | ||
+ | यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५- ११॥ | ||
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जिन जतन किये तिन योगी ही, | जिन जतन किये तिन योगी ही, | ||
यहि देह की देहिन जान सकै, | यहि देह की देहिन जान सकै, | ||
बिनु ज्ञान के, जतन कियौ जन वे, | बिनु ज्ञान के, जतन कियौ जन वे, | ||
नाहीं देहिन कौ पहचान सकै | नाहीं देहिन कौ पहचान सकै | ||
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+ | यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। | ||
+ | यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१५- १२॥ | ||
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रवि माहीं स्थित तेज मेरौ, | रवि माहीं स्थित तेज मेरौ, | ||
जग मोसों प्रकाशित होय रह्यो, | जग मोसों प्रकाशित होय रह्यो, | ||
शशि और अनल कौ तेज सबहिं, | शशि और अनल कौ तेज सबहिं, | ||
मोसों उद्भासित होय रह्यो | मोसों उद्भासित होय रह्यो | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा। | ||
+ | पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५- १३॥ | ||
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में धरनी माहीं करि प्रवेश | में धरनी माहीं करि प्रवेश | ||
निज ओजन सों प्रानिन धारूं | निज ओजन सों प्रानिन धारूं | ||
शशि रूप में बन के सोम सुधा , | शशि रूप में बन के सोम सुधा , | ||
औषधियन पुष्ट, जगत तारूं | औषधियन पुष्ट, जगत तारूं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। | ||
+ | प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५- १४॥ | ||
+ | </span> | ||
धरि वैश्वानर अग्नि को रूप, | धरि वैश्वानर अग्नि को रूप, | ||
प्राण और अपान सों युक्त भये, | प्राण और अपान सों युक्त भये, | ||
विधि चार के अन्न पचावत हूँ, | विधि चार के अन्न पचावत हूँ, | ||
प्राणी जो मोसों युक्त भये | प्राणी जो मोसों युक्त भये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च। | ||
+ | वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५- १५॥ | ||
+ | </span> | ||
वेदज्ञ तथा वेदांत हूँ मैं, | वेदज्ञ तथा वेदांत हूँ मैं, | ||
ज्ञातव्य हूँ मैं ही वेदन सों. | ज्ञातव्य हूँ मैं ही वेदन सों. | ||
सब प्रानिन के हिय माहीं बसों | सब प्रानिन के हिय माहीं बसों | ||
मैं सुमिरन ज्ञान अपोहन सों | मैं सुमिरन ज्ञान अपोहन सों | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। | ||
+ | क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५- १६॥ | ||
+ | </span> | ||
दुइ भांति के होत जना जग में, | दुइ भांति के होत जना जग में, | ||
अविनासी एक विनासत हैं, | अविनासी एक विनासत हैं, | ||
यहि देहिन तौ अविनासी तथा, | यहि देहिन तौ अविनासी तथा, | ||
प्राणिन की देह नसावत है | प्राणिन की देह नसावत है | ||
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+ | उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। | ||
+ | यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१५- १७॥ | ||
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श्रेय पुरुष है अन्य कोऊ , | श्रेय पुरुष है अन्य कोऊ , | ||
वही तीनहूँ लोक समायो है, | वही तीनहूँ लोक समायो है, | ||
धारक, पोषक, व्यापक प्रभु ने, | धारक, पोषक, व्यापक प्रभु ने, | ||
सगरौ, ब्रह्माण्ड बनायो है | सगरौ, ब्रह्माण्ड बनायो है | ||
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+ | यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। | ||
+ | अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१५- १८॥ | ||
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जड़ से हूँ परे जीवात्मा सों, | जड़ से हूँ परे जीवात्मा सों, | ||
भी उत्तम हूँ पुरुषोत्तम हूँ, | भी उत्तम हूँ पुरुषोत्तम हूँ, | ||
अथ लोकन और वेदन माहीं | अथ लोकन और वेदन माहीं | ||
मैं जात कह्यो सर्वोत्तम हूँ | मैं जात कह्यो सर्वोत्तम हूँ | ||
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+ | यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्। | ||
+ | स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१५- १९॥ | ||
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हे अर्जुन ! मोहे ज्ञानी जना | हे अर्जुन ! मोहे ज्ञानी जना | ||
पुरुषोत्तम तत्त्वन सों जाने. | पुरुषोत्तम तत्त्वन सों जाने. | ||
वे नित्य निरंतर नियमन सों. | वे नित्य निरंतर नियमन सों. | ||
परमेश प्रभो को ही ध्यावें | परमेश प्रभो को ही ध्यावें | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ। | ||
+ | एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥१५- २०॥ | ||
+ | </span> | ||
निष्पाप हे अर्जुन! ऐसो यहि, | निष्पाप हे अर्जुन! ऐसो यहि, | ||
अति गोप रहस्य मैं तोसों कह्यो . | अति गोप रहस्य मैं तोसों कह्यो . |
02:20, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५- ११॥
जिन जतन किये तिन योगी ही,
यहि देह की देहिन जान सकै,
बिनु ज्ञान के, जतन कियौ जन वे,
नाहीं देहिन कौ पहचान सकै
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥१५- १२॥
रवि माहीं स्थित तेज मेरौ,
जग मोसों प्रकाशित होय रह्यो,
शशि और अनल कौ तेज सबहिं,
मोसों उद्भासित होय रह्यो
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः॥१५- १३॥
में धरनी माहीं करि प्रवेश
निज ओजन सों प्रानिन धारूं
शशि रूप में बन के सोम सुधा ,
औषधियन पुष्ट, जगत तारूं
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५- १४॥
धरि वैश्वानर अग्नि को रूप,
प्राण और अपान सों युक्त भये,
विधि चार के अन्न पचावत हूँ,
प्राणी जो मोसों युक्त भये
सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५- १५॥
वेदज्ञ तथा वेदांत हूँ मैं,
ज्ञातव्य हूँ मैं ही वेदन सों.
सब प्रानिन के हिय माहीं बसों
मैं सुमिरन ज्ञान अपोहन सों
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५- १६॥
दुइ भांति के होत जना जग में,
अविनासी एक विनासत हैं,
यहि देहिन तौ अविनासी तथा,
प्राणिन की देह नसावत है
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१५- १७॥
श्रेय पुरुष है अन्य कोऊ ,
वही तीनहूँ लोक समायो है,
धारक, पोषक, व्यापक प्रभु ने,
सगरौ, ब्रह्माण्ड बनायो है
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१५- १८॥
जड़ से हूँ परे जीवात्मा सों,
भी उत्तम हूँ पुरुषोत्तम हूँ,
अथ लोकन और वेदन माहीं
मैं जात कह्यो सर्वोत्तम हूँ
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१५- १९॥
हे अर्जुन ! मोहे ज्ञानी जना
पुरुषोत्तम तत्त्वन सों जाने.
वे नित्य निरंतर नियमन सों.
परमेश प्रभो को ही ध्यावें
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥१५- २०॥
निष्पाप हे अर्जुन! ऐसो यहि,
अति गोप रहस्य मैं तोसों कह्यो .
जेहि जानि के जो जन ज्ञानी भयौ ,
कृत कृत्य कृतार्थ , भयौ सों भयौ