भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अध्याय १६ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)
 
पंक्ति 8: पंक्ति 8:
  
 
श्री भगवानुवाच
 
श्री भगवानुवाच
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
 +
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१६- १॥
 +
</span>
 
सात्विक दान, दमन, दृढ़ता
 
सात्विक दान, दमन, दृढ़ता
 
स्वाध्याय, यज्ञ , हिय - निर्मलता.
 
स्वाध्याय, यज्ञ , हिय - निर्मलता.
 
तात्विक प्रज्ञा, दृढ़ योग वृत्ति ,
 
तात्विक प्रज्ञा, दृढ़ योग वृत्ति ,
 
तन-मन,  वाणी की पावनता
 
तन-मन,  वाणी की पावनता
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
 +
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥१६- २॥
 +
</span>
 
अक्रोध, अहिंसा, सत्य वचन ,
 
अक्रोध, अहिंसा, सत्य वचन ,
 
जिन होत दया सब प्रानिन में.
 
जिन होत दया सब प्रानिन में.
 
दृढ़ चित्त न काहू की निंदा ,
 
दृढ़ चित्त न काहू की निंदा ,
 
आसक्ति न नैकु सी इन्द्रिन में
 
आसक्ति न नैकु सी इन्द्रिन में
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
 +
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥१६- ३॥
 +
</span>
 
जेहि, धैर्य, क्षमा , अद्रोह शुचि,
 
जेहि, धैर्य, क्षमा , अद्रोह शुचि,
 
अभिमान न नैकहूँ होत मना.
 
अभिमान न नैकहूँ होत मना.
 
यहि दिव्य विभूतिन पायै भये के,
 
यहि दिव्य विभूतिन पायै भये के,
 
सात्विक लक्षन होत जना
 
सात्विक लक्षन होत जना
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
 +
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्॥१६- ४॥
 +
</span>
 
अभिमान अहम् और दंभ घनयो,
 
अभिमान अहम् और दंभ घनयो,
 
अति क्रोध है, वाणी पाथर  सी.
 
अति क्रोध है, वाणी पाथर  सी.
 
यहि आसुरी पुरुषंन  के लक्षन,
 
यहि आसुरी पुरुषंन  के लक्षन,
 
अज्ञान विकारन , आकर सी
 
अज्ञान विकारन , आकर सी
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
 +
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥१६- ५॥
 +
</span>
 
सुन दिव्य विभूति तो मुक्त करे,
 
सुन दिव्य विभूति तो मुक्त करे,
 
संशय बिनु आसुरी बांधत  है.
 
संशय बिनु आसुरी बांधत  है.
 
अथ अर्जुन!  नैकु न शोक करै,
 
अथ अर्जुन!  नैकु न शोक करै,
 
तू दिव्य विभूतिन पावति है
 
तू दिव्य विभूतिन पावति है
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
 +
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥१६- ६॥
 +
</span>
 
यही लोक में अर्जुन ! प्रानिन के ,
 
यही लोक में अर्जुन ! प्रानिन के ,
 
दुई  भांति के होत सुभाव यहाँ,
 
दुई  भांति के होत सुभाव यहाँ,
 
एक देव असुर , दोनहूँ मोसों,
 
एक देव असुर , दोनहूँ मोसों,
 
सुनि आसुरी वृति प्रभाव यहॉं
 
सुनि आसुरी वृति प्रभाव यहॉं
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
 +
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥१६- ७॥
 +
</span>
 
आसुरी जन करम -अकरमन में,
 
आसुरी जन करम -अकरमन में,
 
तौ नैकु न अंतर जानत  हैं,
 
तौ नैकु न अंतर जानत  हैं,
 
आचार- विचारन सत्य-हीन ,
 
आचार- विचारन सत्य-हीन ,
 
कर्तव्यंहूँ  नाहीं पिछानत हैं
 
कर्तव्यंहूँ  नाहीं पिछानत हैं
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
 +
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥१६- ८॥
 +
</span>
 
नारी-नर योग सों भोगन  कौ,
 
नारी-नर योग सों भोगन  कौ,
 
जग आपु बनयो , बिनु ईश्वर के,
 
जग आपु बनयो , बिनु ईश्वर के,
 
आधार कहूं कछु होत नाहीं
 
आधार कहूं कछु होत नाहीं
 
अस होत भाव तामस नर के
 
अस होत भाव तामस नर के
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
 +
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥१६- ९॥
 +
</span>
 
मिथ्या अज्ञान कौ अबलंबन,
 
मिथ्या अज्ञान कौ अबलंबन,
 
कर बुद्धि विहीन भये नर जो.
 
कर बुद्धि विहीन भये नर जो.
 
बहु क्रूर करम अपकार करैं,
 
बहु क्रूर करम अपकार करैं,
 
तम बुद्धि प्रधान, असुर नर जो
 
तम बुद्धि प्रधान, असुर नर जो
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
 +
मोहाद्‌गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥१६- १०॥
 +
</span>
 
मान दंभ, मद  युक्त मना,
 
मान दंभ, मद  युक्त मना,
 
अति दुर्लभ चाहन  आस बना,
 
अति दुर्लभ चाहन  आस बना,
 
अज्ञान विमोहित होत घना.
 
अज्ञान विमोहित होत घना.
 
जग में अस विचरत दुष्ट जना
 
जग में अस विचरत दुष्ट जना
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
 +
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥१६- ११॥
 +
</span>
 
अंत लौ चिंता अनंत रहे,
 
अंत लौ चिंता अनंत रहे,
 
अति लिप्त रहें जो भोगन में,
 
अति लिप्त रहें जो भोगन में,
 
बस ऐसो जगत आनंद अहा!
 
बस ऐसो जगत आनंद अहा!
 
परतीति अस अज्ञानी जन में
 
परतीति अस अज्ञानी जन में
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
 +
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥१६- १२॥
 +
</span>
 
जिन आस की फाँसी बँधाये भये,
 
जिन आस की फाँसी बँधाये भये,
 
और क्रोधन काम परायण हैं,
 
और क्रोधन काम परायण हैं,

02:46, 11 जनवरी 2010 का अवतरण

अथ षोडशोअध्यायः

श्री भगवानुवाच

अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१६- १॥

सात्विक दान, दमन, दृढ़ता
स्वाध्याय, यज्ञ , हिय - निर्मलता.
तात्विक प्रज्ञा, दृढ़ योग वृत्ति ,
तन-मन, वाणी की पावनता

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥१६- २॥

अक्रोध, अहिंसा, सत्य वचन ,
जिन होत दया सब प्रानिन में.
दृढ़ चित्त न काहू की निंदा ,
आसक्ति न नैकु सी इन्द्रिन में

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥१६- ३॥

जेहि, धैर्य, क्षमा , अद्रोह शुचि,
अभिमान न नैकहूँ होत मना.
यहि दिव्य विभूतिन पायै भये के,
सात्विक लक्षन होत जना

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्॥१६- ४॥

अभिमान अहम् और दंभ घनयो,
अति क्रोध है, वाणी पाथर सी.
यहि आसुरी पुरुषंन के लक्षन,
अज्ञान विकारन , आकर सी

दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥१६- ५॥

सुन दिव्य विभूति तो मुक्त करे,
संशय बिनु आसुरी बांधत है.
अथ अर्जुन! नैकु न शोक करै,
तू दिव्य विभूतिन पावति है

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥१६- ६॥

यही लोक में अर्जुन ! प्रानिन के ,
दुई भांति के होत सुभाव यहाँ,
एक देव असुर , दोनहूँ मोसों,
सुनि आसुरी वृति प्रभाव यहॉं

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥१६- ७॥

आसुरी जन करम -अकरमन में,
तौ नैकु न अंतर जानत हैं,
आचार- विचारन सत्य-हीन ,
कर्तव्यंहूँ नाहीं पिछानत हैं

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥१६- ८॥

नारी-नर योग सों भोगन कौ,
जग आपु बनयो , बिनु ईश्वर के,
आधार कहूं कछु होत नाहीं
अस होत भाव तामस नर के

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥१६- ९॥

मिथ्या अज्ञान कौ अबलंबन,
कर बुद्धि विहीन भये नर जो.
बहु क्रूर करम अपकार करैं,
तम बुद्धि प्रधान, असुर नर जो

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्‌गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥१६- १०॥

मान दंभ, मद युक्त मना,
अति दुर्लभ चाहन आस बना,
अज्ञान विमोहित होत घना.
जग में अस विचरत दुष्ट जना

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥१६- ११॥

अंत लौ चिंता अनंत रहे,
अति लिप्त रहें जो भोगन में,
बस ऐसो जगत आनंद अहा!
परतीति अस अज्ञानी जन में

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥१६- १२॥

जिन आस की फाँसी बँधाये भये,
और क्रोधन काम परायण हैं,
अन्याय सों संग्रह अर्थ करैं ,
वे देत बिसारि नारायण हैं