"अध्याय १६ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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श्री भगवानुवाच | श्री भगवानुवाच | ||
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+ | अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः। | ||
+ | दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१६- १॥ | ||
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सात्विक दान, दमन, दृढ़ता | सात्विक दान, दमन, दृढ़ता | ||
स्वाध्याय, यज्ञ , हिय - निर्मलता. | स्वाध्याय, यज्ञ , हिय - निर्मलता. | ||
तात्विक प्रज्ञा, दृढ़ योग वृत्ति , | तात्विक प्रज्ञा, दृढ़ योग वृत्ति , | ||
तन-मन, वाणी की पावनता | तन-मन, वाणी की पावनता | ||
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+ | अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्। | ||
+ | दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥१६- २॥ | ||
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अक्रोध, अहिंसा, सत्य वचन , | अक्रोध, अहिंसा, सत्य वचन , | ||
जिन होत दया सब प्रानिन में. | जिन होत दया सब प्रानिन में. | ||
दृढ़ चित्त न काहू की निंदा , | दृढ़ चित्त न काहू की निंदा , | ||
आसक्ति न नैकु सी इन्द्रिन में | आसक्ति न नैकु सी इन्द्रिन में | ||
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+ | तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता। | ||
+ | भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥१६- ३॥ | ||
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जेहि, धैर्य, क्षमा , अद्रोह शुचि, | जेहि, धैर्य, क्षमा , अद्रोह शुचि, | ||
अभिमान न नैकहूँ होत मना. | अभिमान न नैकहूँ होत मना. | ||
यहि दिव्य विभूतिन पायै भये के, | यहि दिव्य विभूतिन पायै भये के, | ||
सात्विक लक्षन होत जना | सात्विक लक्षन होत जना | ||
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+ | दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च। | ||
+ | अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्॥१६- ४॥ | ||
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अभिमान अहम् और दंभ घनयो, | अभिमान अहम् और दंभ घनयो, | ||
अति क्रोध है, वाणी पाथर सी. | अति क्रोध है, वाणी पाथर सी. | ||
यहि आसुरी पुरुषंन के लक्षन, | यहि आसुरी पुरुषंन के लक्षन, | ||
अज्ञान विकारन , आकर सी | अज्ञान विकारन , आकर सी | ||
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+ | दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। | ||
+ | मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥१६- ५॥ | ||
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सुन दिव्य विभूति तो मुक्त करे, | सुन दिव्य विभूति तो मुक्त करे, | ||
संशय बिनु आसुरी बांधत है. | संशय बिनु आसुरी बांधत है. | ||
अथ अर्जुन! नैकु न शोक करै, | अथ अर्जुन! नैकु न शोक करै, | ||
तू दिव्य विभूतिन पावति है | तू दिव्य विभूतिन पावति है | ||
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+ | द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च। | ||
+ | दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥१६- ६॥ | ||
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यही लोक में अर्जुन ! प्रानिन के , | यही लोक में अर्जुन ! प्रानिन के , | ||
दुई भांति के होत सुभाव यहाँ, | दुई भांति के होत सुभाव यहाँ, | ||
एक देव असुर , दोनहूँ मोसों, | एक देव असुर , दोनहूँ मोसों, | ||
सुनि आसुरी वृति प्रभाव यहॉं | सुनि आसुरी वृति प्रभाव यहॉं | ||
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+ | प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः। | ||
+ | न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥१६- ७॥ | ||
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आसुरी जन करम -अकरमन में, | आसुरी जन करम -अकरमन में, | ||
तौ नैकु न अंतर जानत हैं, | तौ नैकु न अंतर जानत हैं, | ||
आचार- विचारन सत्य-हीन , | आचार- विचारन सत्य-हीन , | ||
कर्तव्यंहूँ नाहीं पिछानत हैं | कर्तव्यंहूँ नाहीं पिछानत हैं | ||
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+ | असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्। | ||
+ | अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥१६- ८॥ | ||
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नारी-नर योग सों भोगन कौ, | नारी-नर योग सों भोगन कौ, | ||
जग आपु बनयो , बिनु ईश्वर के, | जग आपु बनयो , बिनु ईश्वर के, | ||
आधार कहूं कछु होत नाहीं | आधार कहूं कछु होत नाहीं | ||
अस होत भाव तामस नर के | अस होत भाव तामस नर के | ||
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+ | एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः। | ||
+ | प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥१६- ९॥ | ||
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मिथ्या अज्ञान कौ अबलंबन, | मिथ्या अज्ञान कौ अबलंबन, | ||
कर बुद्धि विहीन भये नर जो. | कर बुद्धि विहीन भये नर जो. | ||
बहु क्रूर करम अपकार करैं, | बहु क्रूर करम अपकार करैं, | ||
तम बुद्धि प्रधान, असुर नर जो | तम बुद्धि प्रधान, असुर नर जो | ||
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+ | काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः। | ||
+ | मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥१६- १०॥ | ||
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मान दंभ, मद युक्त मना, | मान दंभ, मद युक्त मना, | ||
अति दुर्लभ चाहन आस बना, | अति दुर्लभ चाहन आस बना, | ||
अज्ञान विमोहित होत घना. | अज्ञान विमोहित होत घना. | ||
जग में अस विचरत दुष्ट जना | जग में अस विचरत दुष्ट जना | ||
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+ | चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः। | ||
+ | कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥१६- ११॥ | ||
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अंत लौ चिंता अनंत रहे, | अंत लौ चिंता अनंत रहे, | ||
अति लिप्त रहें जो भोगन में, | अति लिप्त रहें जो भोगन में, | ||
बस ऐसो जगत आनंद अहा! | बस ऐसो जगत आनंद अहा! | ||
परतीति अस अज्ञानी जन में | परतीति अस अज्ञानी जन में | ||
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+ | आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः। | ||
+ | ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥१६- १२॥ | ||
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जिन आस की फाँसी बँधाये भये, | जिन आस की फाँसी बँधाये भये, | ||
और क्रोधन काम परायण हैं, | और क्रोधन काम परायण हैं, |
02:46, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
अथ षोडशोअध्यायः
श्री भगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम्॥१६- १॥
सात्विक दान, दमन, दृढ़ता
स्वाध्याय, यज्ञ , हिय - निर्मलता.
तात्विक प्रज्ञा, दृढ़ योग वृत्ति ,
तन-मन, वाणी की पावनता
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥१६- २॥
अक्रोध, अहिंसा, सत्य वचन ,
जिन होत दया सब प्रानिन में.
दृढ़ चित्त न काहू की निंदा ,
आसक्ति न नैकु सी इन्द्रिन में
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता।
भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत॥१६- ३॥
जेहि, धैर्य, क्षमा , अद्रोह शुचि,
अभिमान न नैकहूँ होत मना.
यहि दिव्य विभूतिन पायै भये के,
सात्विक लक्षन होत जना
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम्॥१६- ४॥
अभिमान अहम् और दंभ घनयो,
अति क्रोध है, वाणी पाथर सी.
यहि आसुरी पुरुषंन के लक्षन,
अज्ञान विकारन , आकर सी
दैवी संपद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः संपदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥१६- ५॥
सुन दिव्य विभूति तो मुक्त करे,
संशय बिनु आसुरी बांधत है.
अथ अर्जुन! नैकु न शोक करै,
तू दिव्य विभूतिन पावति है
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु॥१६- ६॥
यही लोक में अर्जुन ! प्रानिन के ,
दुई भांति के होत सुभाव यहाँ,
एक देव असुर , दोनहूँ मोसों,
सुनि आसुरी वृति प्रभाव यहॉं
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥१६- ७॥
आसुरी जन करम -अकरमन में,
तौ नैकु न अंतर जानत हैं,
आचार- विचारन सत्य-हीन ,
कर्तव्यंहूँ नाहीं पिछानत हैं
असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्॥१६- ८॥
नारी-नर योग सों भोगन कौ,
जग आपु बनयो , बिनु ईश्वर के,
आधार कहूं कछु होत नाहीं
अस होत भाव तामस नर के
एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥१६- ९॥
मिथ्या अज्ञान कौ अबलंबन,
कर बुद्धि विहीन भये नर जो.
बहु क्रूर करम अपकार करैं,
तम बुद्धि प्रधान, असुर नर जो
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥१६- १०॥
मान दंभ, मद युक्त मना,
अति दुर्लभ चाहन आस बना,
अज्ञान विमोहित होत घना.
जग में अस विचरत दुष्ट जना
चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥१६- ११॥
अंत लौ चिंता अनंत रहे,
अति लिप्त रहें जो भोगन में,
बस ऐसो जगत आनंद अहा!
परतीति अस अज्ञानी जन में
आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्॥१६- १२॥
जिन आस की फाँसी बँधाये भये,
और क्रोधन काम परायण हैं,
अन्याय सों संग्रह अर्थ करैं ,
वे देत बिसारि नारायण हैं