"अध्याय १८ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
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+ | न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः। | ||
+ | सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥१८- ४०॥ | ||
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सब ब्रह्म, शूद्र, वैष्णव, क्षत्रिय. | सब ब्रह्म, शूद्र, वैष्णव, क्षत्रिय. | ||
के होत विभाग स्वभावन सों. | के होत विभाग स्वभावन सों. | ||
बहु करम आधार परन्तप हैं, | बहु करम आधार परन्तप हैं, | ||
गुण करम स्वभाव विभागन सों. | गुण करम स्वभाव विभागन सों. | ||
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+ | ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप। | ||
+ | कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१८- ४१॥ | ||
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तप, ज्ञान, क्षमा, शम, दम, शुद्धि, | तप, ज्ञान, क्षमा, शम, दम, शुद्धि, | ||
परब्रह्म कौ ज्ञान जो होत महे, | परब्रह्म कौ ज्ञान जो होत महे, | ||
तन पावन, मन आस्तिक बुद्धि, | तन पावन, मन आस्तिक बुद्धि, | ||
विप्रन के करम सुभाव अहे. | विप्रन के करम सुभाव अहे. | ||
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+ | शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। | ||
+ | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८- ४२॥ | ||
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बल, शौर्य, चतुरता, धैर्य, धृति. | बल, शौर्य, चतुरता, धैर्य, धृति. | ||
और ना ही पलायन युद्धन सों, | और ना ही पलायन युद्धन सों, | ||
मन दास भाव और दान वृति, | मन दास भाव और दान वृति, | ||
अस होत हैं लक्षन क्षत्रिय सों. | अस होत हैं लक्षन क्षत्रिय सों. | ||
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गौ पालन खेती क्रय-विक्रय | गौ पालन खेती क्रय-विक्रय | ||
यहि वैश्य कौ करम भाव बन्यौ, | यहि वैश्य कौ करम भाव बन्यौ, | ||
सब वर्णों की सेवा शूद्रन. | सब वर्णों की सेवा शूद्रन. | ||
अस करम विभाग सुभाव रच्यौ. | अस करम विभाग सुभाव रच्यौ. | ||
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रत आपुनि-आपुनि करमन में, | रत आपुनि-आपुनि करमन में, | ||
नर ब्रह्म को पावत हैं ऐसे, | नर ब्रह्म को पावत हैं ऐसे, | ||
निज करम करत , मन ब्रह्म में रत, | निज करम करत , मन ब्रह्म में रत, | ||
नर होय सकै, यहि सुन कैसे? | नर होय सकै, यहि सुन कैसे? | ||
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मन, करम, वचन, निज करमन रत, | मन, करम, वचन, निज करमन रत, | ||
और अंतर माहीं प्रभु सुमिरै. | और अंतर माहीं प्रभु सुमिरै. | ||
पर सृष्टि रचयिता व्यापक कौ, | पर सृष्टि रचयिता व्यापक कौ, | ||
निज करम अनंतर ना बिसरै. | निज करम अनंतर ना बिसरै. | ||
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गुण हीन धरम, तबहूँ आपुनि, | गुण हीन धरम, तबहूँ आपुनि, | ||
पर धर्म सों आपुनि धरम भल्यौ. | पर धर्म सों आपुनि धरम भल्यौ. | ||
गुण करम सुभावन करम करै, | गुण करम सुभावन करम करै, | ||
नाहीं पाप लगै यहि करम करयौ | नाहीं पाप लगै यहि करम करयौ | ||
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निज धरम माहीं कौन्तेय सुनौ, | निज धरम माहीं कौन्तेय सुनौ, | ||
कोऊ दोष हो तबहूँ नाहीं तजै, | कोऊ दोष हो तबहूँ नाहीं तजै, | ||
जस धूम्र सों अगनि, करम सबहिं, | जस धूम्र सों अगनि, करम सबहिं, | ||
तस दोषन युक्त, रहैं सों रहैं. | तस दोषन युक्त, रहैं सों रहैं. | ||
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बिनु राग विराग जो होत जा, | बिनु राग विराग जो होत जा, | ||
लियौ जीत भी अंतर्मन अपना, | लियौ जीत भी अंतर्मन अपना, | ||
पद पाय परम संन्यास योग, | पद पाय परम संन्यास योग, | ||
सों पावत सिद्धि, सिद्ध जना. | सों पावत सिद्धि, सिद्ध जना. | ||
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जिन चित्तन शुद्धि, सिद्ध भये, | जिन चित्तन शुद्धि, सिद्ध भये, | ||
तिन सच्चिदानंद कौ पावै, तथा. | तिन सच्चिदानंद कौ पावै, तथा. | ||
जिन ज्ञान तत्व की निष्ठा परा, | जिन ज्ञान तत्व की निष्ठा परा, | ||
तस मोसों सुनौ कौन्तेय यथा. | तस मोसों सुनौ कौन्तेय यथा. | ||
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जिन बुद्धि विशुद्ध सों युक्त भये, | जिन बुद्धि विशुद्ध सों युक्त भये, | ||
एकांत में जिनकौ लगै जिया. | एकांत में जिनकौ लगै जिया. | ||
मन वाणी तन सब जीत लियौ, | मन वाणी तन सब जीत लियौ, | ||
अति अल्प आहार ही लागै प्रिया. | अति अल्प आहार ही लागै प्रिया. | ||
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मन जाको विरक्त भयौ जग सों, | मन जाको विरक्त भयौ जग सों, | ||
और चित्त भयौ दृढ़ वैरागी. | और चित्त भयौ दृढ़ वैरागी. | ||
जिन ध्यान सतत मन साध लियौ, | जिन ध्यान सतत मन साध लियौ, | ||
तजै, रागन, विषयन बड़ भागी. | तजै, रागन, विषयन बड़ भागी. | ||
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बल, दर्प, अहम्, संग्रह, ममता, | बल, दर्प, अहम्, संग्रह, ममता, | ||
सब कामहिं क्रोध कौ त्याग दियौ. | सब कामहिं क्रोध कौ त्याग दियौ. | ||
शुभ शांत हैं अंतर्मन जिनके, | शुभ शांत हैं अंतर्मन जिनके, | ||
तिन ब्रह्म के जोग, सुभाव लियौ. | तिन ब्रह्म के जोग, सुभाव लियौ. | ||
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जिन ब्रह्म के भाव विलीन भये, | जिन ब्रह्म के भाव विलीन भये, | ||
मन हर्ष न नैकु मलीन भये. | मन हर्ष न नैकु मलीन भये. | ||
तिन दुखन चाह विहीन भये, | तिन दुखन चाह विहीन भये, | ||
सम भव सों ब्रह्म में लीन भये. | सम भव सों ब्रह्म में लीन भये. | ||
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जेहि भक्त तत्व सों जानि लियौ, | जेहि भक्त तत्व सों जानि लियौ, | ||
तत्त्वज्ञ मोहे एक मानि लियौ. | तत्त्वज्ञ मोहे एक मानि लियौ. | ||
भगवान् भक्त कौ भाव अनन्य सों, | भगवान् भक्त कौ भाव अनन्य सों, | ||
आपुनि जस ही जानि लियौ. | आपुनि जस ही जानि लियौ. | ||
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निष्काम करम , योगी कर्मठ, | निष्काम करम , योगी कर्मठ, | ||
करै करम तथापि नाहीं करै, | करै करम तथापि नाहीं करै, | ||
अथ मोरे परायण, मोरी कृपा, | अथ मोरे परायण, मोरी कृपा, | ||
सोई पावै परम पद और तरै. | सोई पावै परम पद और तरै. | ||
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अब मोरे परायण अर्जुन ! हो, | अब मोरे परायण अर्जुन ! हो, | ||
सब करमन कौ अरपन करिकै, | सब करमन कौ अरपन करिकै, | ||
निष्काम करम अबलम्ब हिया, | निष्काम करम अबलम्ब हिया, | ||
मोहे चित्त में सांचे मन धरिकै. | मोहे चित्त में सांचे मन धरिकै. | ||
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मन चित्त सों तू मेरौ हुए जा, | मन चित्त सों तू मेरौ हुए जा, | ||
तरि जइहौ कृपा सों कष्ट कटें. | तरि जइहौ कृपा सों कष्ट कटें. | ||
यदि नाहीं अहम् कारन सुनिहौ, | यदि नाहीं अहम् कारन सुनिहौ, | ||
यहि जन्म बृथा ही नष्ट, मिटे. | यहि जन्म बृथा ही नष्ट, मिटे. | ||
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अबलम्ब अहम् कौ मानत जो, | अबलम्ब अहम् कौ मानत जो, | ||
नाहीं जुद्ध करू, यदि ठानत है, | नाहीं जुद्ध करू, यदि ठानत है, | ||
मिथ प्रण, पार्थ! सुभाव तेरौ, | मिथ प्रण, पार्थ! सुभाव तेरौ, | ||
तोहे जुद्ध क्षेत्र में लावत है. | तोहे जुद्ध क्षेत्र में लावत है. | ||
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यदि करम मोह वश नाहीं करै, | यदि करम मोह वश नाहीं करै, | ||
तबहूँ तू पूर्व सुभावन सों. | तबहूँ तू पूर्व सुभावन सों. | ||
हुए प्रेरित करिहौ करम यथा, | हुए प्रेरित करिहौ करम यथा, | ||
करि नाहीं सकै मन भावन सों. | करि नाहीं सकै मन भावन सों. | ||
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सब प्रानिन के हिय माहीं प्रभो, | सब प्रानिन के हिय माहीं प्रभो, | ||
आरूढ़ रहत अंतर्यामी. | आरूढ़ रहत अंतर्यामी. | ||
अनुसार भ्रमित निज करमन के | अनुसार भ्रमित निज करमन के | ||
माया सों जीव को अविरामी. | माया सों जीव को अविरामी. | ||
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एकमेव अनन्य शरण तोहे, | एकमेव अनन्य शरण तोहे, | ||
हे भारत तू शरणागत हो, | हे भारत तू शरणागत हो, | ||
एकमेव कृपा सों धाम परम, | एकमेव कृपा सों धाम परम, | ||
मिलै शांति सनातन, स्वागत हो. | मिलै शांति सनातन, स्वागत हो. | ||
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यहि गोप रहस्य रहस्यन कौ, | यहि गोप रहस्य रहस्यन कौ, | ||
सत ज्ञान कह्यौ , अर्जुन तोसों, | सत ज्ञान कह्यौ , अर्जुन तोसों, | ||
चिंतन ज्ञान अखिल करिकै, | चिंतन ज्ञान अखिल करिकै, | ||
फिरि जस जी होय करौ तैसों. | फिरि जस जी होय करौ तैसों. | ||
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अति गोपन गोप रहस्य सुनयो, | अति गोपन गोप रहस्य सुनयो, | ||
पुनि-पुन में पार्थ ! कहहूँ तोसों. | पुनि-पुन में पार्थ ! कहहूँ तोसों. | ||
मम श्रेय सखा! मन प्रेय सखा! | मम श्रेय सखा! मन प्रेय सखा! | ||
हितकारी वचन सुनहूँ , मोसों. | हितकारी वचन सुनहूँ , मोसों. | ||
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निष्काम करम, अविराम मनन, | निष्काम करम, अविराम मनन, | ||
विह्वल मन मोहें नमन करिकै. | विह्वल मन मोहें नमन करिकै. | ||
मम मित्र परम, प्रिय मैं तेरौ. | मम मित्र परम, प्रिय मैं तेरौ. | ||
सौं लेत हूँ मोसों ही मिलिहै. | सौं लेत हूँ मोसों ही मिलिहै. | ||
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तजि सारे धरम, बस एक मरम , | तजि सारे धरम, बस एक मरम , | ||
श्री कृष्ण! मैं चित्त कौ लीन करै. | श्री कृष्ण! मैं चित्त कौ लीन करै. | ||
शरणागत भाव अनन्य हिया, | शरणागत भाव अनन्य हिया, | ||
अघ मुक्ति, ना चित्त मलीन करै. | अघ मुक्ति, ना चित्त मलीन करै. | ||
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तप भक्ति विहीन मेरौ निंदक, | तप भक्ति विहीन मेरौ निंदक, | ||
जिन गीता मर्म की चाह नाहीं. | जिन गीता मर्म की चाह नाहीं. | ||
यहि मर्म कदापि ना तासों कह्यो , | यहि मर्म कदापि ना तासों कह्यो , | ||
जेहि के हिया ब्भक्ति प्रवाह नाहीं. | जेहि के हिया ब्भक्ति प्रवाह नाहीं. | ||
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जिन मोसों प्रेम अनन्य करै, | जिन मोसों प्रेम अनन्य करै, | ||
गीता को सार कहौ तिनसों, | गीता को सार कहौ तिनसों, | ||
अथ गीता सार प्रसारक तौ, | अथ गीता सार प्रसारक तौ, | ||
बिनु संशय ही मिलिहै मोसों. | बिनु संशय ही मिलिहै मोसों. | ||
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अथ गीता सार प्रसारक सों, | अथ गीता सार प्रसारक सों, | ||
प्रिय कोऊ नाहीं मनुष्यं में | प्रिय कोऊ नाहीं मनुष्यं में | ||
धरनी मांहीं तासों बढ़कर, | धरनी मांहीं तासों बढ़कर, | ||
प्रिय दूसर कोऊ अणु-कण में. | प्रिय दूसर कोऊ अणु-कण में. | ||
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जिन गीता कौ संवाद रूप, | जिन गीता कौ संवाद रूप, | ||
और मर्म कौ अध्ययन नित्य करै, | और मर्म कौ अध्ययन नित्य करै, | ||
करि ज्ञान यज्ञ , मोहे पूजै, | करि ज्ञान यज्ञ , मोहे पूजै, | ||
यहि मोरी मति, यहि कृत्य करै. | यहि मोरी मति, यहि कृत्य करै. | ||
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जिन दोष दृष्टि तौ शेष भई, | जिन दोष दृष्टि तौ शेष भई, | ||
गीता में भक्ति विशेष भई. | गीता में भक्ति विशेष भई. | ||
सुनि लेत ही गीता पाप कटें | सुनि लेत ही गीता पाप कटें | ||
शुभ लोकन माहीं प्रवेश भई. | शुभ लोकन माहीं प्रवेश भई. | ||
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मन चित्त लगाय धनंजय हे! | मन चित्त लगाय धनंजय हे! | ||
क्या तत्व वचन तैनें श्रवण कियौ, | क्या तत्व वचन तैनें श्रवण कियौ, | ||
बिनु ज्ञान जनित सम्मोह पार्थ! | बिनु ज्ञान जनित सम्मोह पार्थ! | ||
क्या नैकहूँ तैनें, क्षरण कियौ? | क्या नैकहूँ तैनें, क्षरण कियौ? | ||
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अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
वासुदेव ! कृपा सों मेरौ तो, | वासुदेव ! कृपा सों मेरौ तो, | ||
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अब जैसो, कहौ कृष्णा मैं करुँ, | अब जैसो, कहौ कृष्णा मैं करुँ, | ||
बिनु संशय, मनः स्थिति आई. | बिनु संशय, मनः स्थिति आई. | ||
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संजय उवाच | संजय उवाच | ||
इति अर्जुन और श्री श्री कृष्णा, | इति अर्जुन और श्री श्री कृष्णा, | ||
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यहि अद्भुत मर्म है गीता कौ, | यहि अद्भुत मर्म है गीता कौ, | ||
जेहि संजय राजन सों कहयौ. | जेहि संजय राजन सों कहयौ. | ||
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श्री व्यास कृपा सों योग कौ गोप, | श्री व्यास कृपा सों योग कौ गोप, | ||
रहस्य सुनयौ, परमेश्वर सों | रहस्य सुनयौ, परमेश्वर सों | ||
साकार स्वयं श्री कृष्ण कहैं. | साकार स्वयं श्री कृष्ण कहैं. | ||
मैं धन्य! सुनयौ परमेश्वर सों. | मैं धन्य! सुनयौ परमेश्वर सों. | ||
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बहु होत हर्ष अद्भुत राजन, | बहु होत हर्ष अद्भुत राजन, | ||
रोमांचित पुनि-पुनि होय घनयौ, | रोमांचित पुनि-पुनि होय घनयौ, | ||
अच्युत - अर्जुन संवाद मरम, | अच्युत - अर्जुन संवाद मरम, | ||
मोहे पल-पल सुमिरन होय रह्यौ. | मोहे पल-पल सुमिरन होय रह्यौ. | ||
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हे राजन! पुनि-पुनि हरि श्री कौ, | हे राजन! पुनि-पुनि हरि श्री कौ, | ||
वही अद्भुत रूप लुभाय रह्यौ . | वही अद्भुत रूप लुभाय रह्यौ . | ||
अति अद्भुत दिव्य अलौकिक क्षण, | अति अद्भुत दिव्य अलौकिक क्षण, | ||
मम पुनरपि चित्त रिझाय रह्यौ. | मम पुनरपि चित्त रिझाय रह्यौ. | ||
+ | <span class="upnishad_mantra"> | ||
+ | </span> | ||
यत्र कृष्ण श्री योगेश्वर! | यत्र कृष्ण श्री योगेश्वर! | ||
और पार्थ धनुर्धर रहैं जहाँ. | और पार्थ धनुर्धर रहैं जहाँ. |
04:20, 11 जनवरी 2010 का अवतरण
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः॥१८- ४०॥
सब ब्रह्म, शूद्र, वैष्णव, क्षत्रिय.
के होत विभाग स्वभावन सों.
बहु करम आधार परन्तप हैं,
गुण करम स्वभाव विभागन सों.
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः॥१८- ४१॥
तप, ज्ञान, क्षमा, शम, दम, शुद्धि,
परब्रह्म कौ ज्ञान जो होत महे,
तन पावन, मन आस्तिक बुद्धि,
विप्रन के करम सुभाव अहे.
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥१८- ४२॥
बल, शौर्य, चतुरता, धैर्य, धृति.
और ना ही पलायन युद्धन सों,
मन दास भाव और दान वृति,
अस होत हैं लक्षन क्षत्रिय सों.
गौ पालन खेती क्रय-विक्रय
यहि वैश्य कौ करम भाव बन्यौ,
सब वर्णों की सेवा शूद्रन.
अस करम विभाग सुभाव रच्यौ.
रत आपुनि-आपुनि करमन में,
नर ब्रह्म को पावत हैं ऐसे,
निज करम करत , मन ब्रह्म में रत,
नर होय सकै, यहि सुन कैसे?
मन, करम, वचन, निज करमन रत,
और अंतर माहीं प्रभु सुमिरै.
पर सृष्टि रचयिता व्यापक कौ,
निज करम अनंतर ना बिसरै.
गुण हीन धरम, तबहूँ आपुनि,
पर धर्म सों आपुनि धरम भल्यौ.
गुण करम सुभावन करम करै,
नाहीं पाप लगै यहि करम करयौ
निज धरम माहीं कौन्तेय सुनौ,
कोऊ दोष हो तबहूँ नाहीं तजै,
जस धूम्र सों अगनि, करम सबहिं,
तस दोषन युक्त, रहैं सों रहैं.
बिनु राग विराग जो होत जा,
लियौ जीत भी अंतर्मन अपना,
पद पाय परम संन्यास योग,
सों पावत सिद्धि, सिद्ध जना.
जिन चित्तन शुद्धि, सिद्ध भये,
तिन सच्चिदानंद कौ पावै, तथा.
जिन ज्ञान तत्व की निष्ठा परा,
तस मोसों सुनौ कौन्तेय यथा.
जिन बुद्धि विशुद्ध सों युक्त भये,
एकांत में जिनकौ लगै जिया.
मन वाणी तन सब जीत लियौ,
अति अल्प आहार ही लागै प्रिया.
मन जाको विरक्त भयौ जग सों,
और चित्त भयौ दृढ़ वैरागी.
जिन ध्यान सतत मन साध लियौ,
तजै, रागन, विषयन बड़ भागी.
बल, दर्प, अहम्, संग्रह, ममता,
सब कामहिं क्रोध कौ त्याग दियौ.
शुभ शांत हैं अंतर्मन जिनके,
तिन ब्रह्म के जोग, सुभाव लियौ.
जिन ब्रह्म के भाव विलीन भये,
मन हर्ष न नैकु मलीन भये.
तिन दुखन चाह विहीन भये,
सम भव सों ब्रह्म में लीन भये.
जेहि भक्त तत्व सों जानि लियौ,
तत्त्वज्ञ मोहे एक मानि लियौ.
भगवान् भक्त कौ भाव अनन्य सों,
आपुनि जस ही जानि लियौ.
निष्काम करम , योगी कर्मठ,
करै करम तथापि नाहीं करै,
अथ मोरे परायण, मोरी कृपा,
सोई पावै परम पद और तरै.
अब मोरे परायण अर्जुन ! हो,
सब करमन कौ अरपन करिकै,
निष्काम करम अबलम्ब हिया,
मोहे चित्त में सांचे मन धरिकै.
मन चित्त सों तू मेरौ हुए जा,
तरि जइहौ कृपा सों कष्ट कटें.
यदि नाहीं अहम् कारन सुनिहौ,
यहि जन्म बृथा ही नष्ट, मिटे.
अबलम्ब अहम् कौ मानत जो,
नाहीं जुद्ध करू, यदि ठानत है,
मिथ प्रण, पार्थ! सुभाव तेरौ,
तोहे जुद्ध क्षेत्र में लावत है.
यदि करम मोह वश नाहीं करै,
तबहूँ तू पूर्व सुभावन सों.
हुए प्रेरित करिहौ करम यथा,
करि नाहीं सकै मन भावन सों.
सब प्रानिन के हिय माहीं प्रभो,
आरूढ़ रहत अंतर्यामी.
अनुसार भ्रमित निज करमन के
माया सों जीव को अविरामी.
एकमेव अनन्य शरण तोहे,
हे भारत तू शरणागत हो,
एकमेव कृपा सों धाम परम,
मिलै शांति सनातन, स्वागत हो.
यहि गोप रहस्य रहस्यन कौ,
सत ज्ञान कह्यौ , अर्जुन तोसों,
चिंतन ज्ञान अखिल करिकै,
फिरि जस जी होय करौ तैसों.
अति गोपन गोप रहस्य सुनयो,
पुनि-पुन में पार्थ ! कहहूँ तोसों.
मम श्रेय सखा! मन प्रेय सखा!
हितकारी वचन सुनहूँ , मोसों.
निष्काम करम, अविराम मनन,
विह्वल मन मोहें नमन करिकै.
मम मित्र परम, प्रिय मैं तेरौ.
सौं लेत हूँ मोसों ही मिलिहै.
तजि सारे धरम, बस एक मरम ,
श्री कृष्ण! मैं चित्त कौ लीन करै.
शरणागत भाव अनन्य हिया,
अघ मुक्ति, ना चित्त मलीन करै.
तप भक्ति विहीन मेरौ निंदक,
जिन गीता मर्म की चाह नाहीं.
यहि मर्म कदापि ना तासों कह्यो ,
जेहि के हिया ब्भक्ति प्रवाह नाहीं.
जिन मोसों प्रेम अनन्य करै,
गीता को सार कहौ तिनसों,
अथ गीता सार प्रसारक तौ,
बिनु संशय ही मिलिहै मोसों.
अथ गीता सार प्रसारक सों,
प्रिय कोऊ नाहीं मनुष्यं में
धरनी मांहीं तासों बढ़कर,
प्रिय दूसर कोऊ अणु-कण में.
जिन गीता कौ संवाद रूप,
और मर्म कौ अध्ययन नित्य करै,
करि ज्ञान यज्ञ , मोहे पूजै,
यहि मोरी मति, यहि कृत्य करै.
जिन दोष दृष्टि तौ शेष भई,
गीता में भक्ति विशेष भई.
सुनि लेत ही गीता पाप कटें
शुभ लोकन माहीं प्रवेश भई.
मन चित्त लगाय धनंजय हे!
क्या तत्व वचन तैनें श्रवण कियौ,
बिनु ज्ञान जनित सम्मोह पार्थ!
क्या नैकहूँ तैनें, क्षरण कियौ?
अर्जुन उवाच
वासुदेव ! कृपा सों मेरौ तो,
भयौ मोह नाश , सुमति पाई,
अब जैसो, कहौ कृष्णा मैं करुँ,
बिनु संशय, मनः स्थिति आई.
संजय उवाच
इति अर्जुन और श्री श्री कृष्णा,
संवाद, रोमांचित चित्त सुनयौ,
यहि अद्भुत मर्म है गीता कौ,
जेहि संजय राजन सों कहयौ.
श्री व्यास कृपा सों योग कौ गोप,
रहस्य सुनयौ, परमेश्वर सों
साकार स्वयं श्री कृष्ण कहैं.
मैं धन्य! सुनयौ परमेश्वर सों.
बहु होत हर्ष अद्भुत राजन,
रोमांचित पुनि-पुनि होय घनयौ,
अच्युत - अर्जुन संवाद मरम,
मोहे पल-पल सुमिरन होय रह्यौ.
हे राजन! पुनि-पुनि हरि श्री कौ,
वही अद्भुत रूप लुभाय रह्यौ .
अति अद्भुत दिव्य अलौकिक क्षण,
मम पुनरपि चित्त रिझाय रह्यौ.
यत्र कृष्ण श्री योगेश्वर!
और पार्थ धनुर्धर रहैं जहाँ.
बहु नीति, विभूति श्री ध्रुव जय ,
मोरे मत श्री सुख बसै वहॉं.
ॐ तत् सत