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आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह,
अकथ कथानि की व्यथा सौं अकुलात हैं ।
कहै रतनाकर बुझाइ कछु रोकै पाय,
पुनि कछु ध्यान उर धाइ उरझात हैं ॥
उसीस उसांसनि सौं बहि बहि आंसनि सौं,
भूरि भरे हिय के हुलास न उरात हैं ।
सीरे तपे विविध संदेसनि सो बातनि की,
घातनि की झोंक मैं लगेई चले जात हैं ॥21॥