"अपनी तस्वीर से निकल कर / शलभ श्रीराम सिंह" के अवतरणों में अंतर
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10:50, 17 जनवरी 2010 के समय का अवतरण
अपनी तस्वीर से निकल कर
मेरी स्मृति में दाखिल हो रही है वह।
सर्दियों की गर्म धूप की तरह छूती हुई मुझे
छूती हुई गर्मियों की ठण्डी बयार की तरह
बरसात की फुहार की तरह छूती हुई
यादों के एक-एक गलियारे में दाखिल हो रही है वह।
साफ-साफ दिख रहे हैं
केवड़े की ताज़ा पंखुड़ियों जैसे उस के दोनों पाँव
दो चम्पई हथेलियाँ दिख रही हैं उसकी
अपनी हल्की गुलाबी रंगत में खुलती हुई
मेरी पीठ और गर्दन और कन्धों को छूती।
सुनाई पड़ रहे हैं धीमी-धीमी आवाज़ में
अफ़सोस और उल्लास में डूबे उसके बोल
दुःख-सुख की बातें करते।
उसकी निगाहों की थरथराहट और
मुस्कानों की घबराहट को
साफ-साफ देख रहा हूँ मैं
मेरे आस-पास की हवाओं में
आहिस्ता-आहिस्ता घुल रही है उसकी सांसें...
अपनी तस्वीर से निकलकर
मेरी स्मृति में दाखिल हो रही है वह।
रचनाकाल : 1992, विदिशा