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"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / सप्तम सर्ग / पृष्ठ ६" के अवतरणों में अंतर

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राजकुल के गुरु वरिष्ठ वसिष्ठ।
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प्राप्त कर उनके पदों की ओट,
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रो पड़े युग बन्धु उनमें लोट--
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"क्या हुआ गुरुदेव, यह अनिवार्य?"
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"वत्स, अनुपम लोक-शिक्षण-कार्य।
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त्याग का संचय, प्रणय का पर्व,
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सफल मेरा सूर्यकुलगुरु-गर्व!"
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"किन्तु मुझ पर आज सारी सृष्टि,
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कर रही मानों घृणा की वृष्टि।
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देव, देखूँ मैं किधर, किस भाँति?"
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"भरत, तुम आकुल न हो इस भाँति।
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वत्स, देखो तुम पिता की ओर,
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सत्य भी शव-सा अकम्प कठोर!
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और उनका प्रेम-ओघ अभग्न,
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वे स्वयं जिसमें हुए चिरमग्न!
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और देखो भातृवर की ओर,
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त्याग का जिसके न ओर, न छोर।
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अतुल जिसकी पुण्य पितर-प्रीति--
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स्वकुल-मर्यादा, विनय, नय-नीति।
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19:23, 26 जनवरी 2010 का अवतरण

आ गये तब तक तपोव्रतनिष्ठ,
राजकुल के गुरु वरिष्ठ वसिष्ठ।
प्राप्त कर उनके पदों की ओट,
रो पड़े युग बन्धु उनमें लोट--
"क्या हुआ गुरुदेव, यह अनिवार्य?"
"वत्स, अनुपम लोक-शिक्षण-कार्य।
त्याग का संचय, प्रणय का पर्व,
सफल मेरा सूर्यकुलगुरु-गर्व!"
"किन्तु मुझ पर आज सारी सृष्टि,
कर रही मानों घृणा की वृष्टि।
देव, देखूँ मैं किधर, किस भाँति?"
"भरत, तुम आकुल न हो इस भाँति।
वत्स, देखो तुम पिता की ओर,
सत्य भी शव-सा अकम्प कठोर!
और उनका प्रेम-ओघ अभग्न,
वे स्वयं जिसमें हुए चिरमग्न!
और देखो भातृवर की ओर,
त्याग का जिसके न ओर, न छोर।
अतुल जिसकी पुण्य पितर-प्रीति--
स्वकुल-मर्यादा, विनय, नय-नीति।