"रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 8" के अवतरणों में अंतर
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युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से ,<br> | युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से ,<br> |
01:54, 25 जनवरी 2008 का अवतरण
युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से ,
प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से ,
दृगों में मोद के मोती सजाये ,
बडे ही व्यग्र हरि के पास आये .
कहा, ''केशव! बडा था त्रास मुझको ,
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको ,
कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा ,
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा .''
''इसी के त्रास में अन्तर पगा था ,
हमें वनवास में भी भय लगा था .
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ?
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था .''
''बली योध्दा बडा विकराल था वह !
हरे! कैसा भयानक काल था वह ?
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे !
शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !''
''मिला कैसे समय निर्भीत है यह ?
हुई सौभाग्य से ही जीत है यह ?
नहीं यदि आज ही वह काल सोता ,
न जानें, क्या समर का हाल होता ?''
उदासी में भरे भगवान् बोले ,
''न भूलें आप केवल जीत को ले .
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है .
विभा का सार शील पुनीत में है .''
''विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ?
विभा उसकी अजय हंसती कहां है ?
भरी वह जीत के हुङकार में है ,
छिपी अथवा लहू की धार में है ?''
''हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ?
मिला किसको विजय का ताज रण में ?
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ?
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या ?''
''समस्या शील की, सचमुच गहन है .
समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है .
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है .
जिसे तजता, उसी को मानता है .''
''मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह .
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह .
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था ,
बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था .''
''हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का ,
दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का .
बडा बेजोड दानी था, सदय था ,
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था .''
''किया किसका नहीं कल्याण उसने ?
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?
जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर ,
मरा वह आज रण में नि:स्व होकर .''
''उगी थी ज्योति जग को तारने को .
न जनमा था पुरुष वह हारने को .
मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित ,
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित .''
''दया कर शत्रु को भी त्राण देकर ,
खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर ,
गया है कर्ण भू को दीन करके ,
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके .''
''युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह ,
विपक्षी था, हमारा काल था वह .
अहा! वह शील में कितना विनत था ?
दया में, धर्म में कैसा निरत था !''
''समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये ,
पितामह की तरह सम्मान करिये .
मनुजता का नया नेता उठा है .
जगत् से ज्योति का जेता उठा है !''