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"देर से / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
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− | + | कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब | |
− | कभी | + | हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब |
− | + | जहाँ भी गया मैं गया देर से | |
− | + | ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है | |
− | + | यही है जुदाई, यही मेल है | |
− | + | मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक | |
− | + | बनी वो ख़मोशी, सदा देर से | |
− | + | सजा दिन भी रौशन हुई रात भी | |
− | + | भरे जाम लगराई बरसात भी | |
− | + | रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी | |
− | + | जो होना था जल्दी हुआ देर से | |
− | + | भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी | |
− | + | मिली न कहीं से कोई रौशनी | |
− | + | छुपा था कहीं भीड़ में आदमी | |
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हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से | हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से | ||
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19:24, 2 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
कहीं छत थी, दीवारो-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से
हुआ न कोई काम मामूल से
गुजारे शबों-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से
कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आयी शब
हुए बन्द दरवाज़े खुल-खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से
ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई, यही मेल है
मैं मुड़-मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़मोशी, सदा देर से
सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लगराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से
भटकती रही यूँ ही हर बन्दगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझमें रौशन ख़ुदा देर से