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"एक लुटी हुई बस्ती की कहानी / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर

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उजली हवाओं की पेशानियों की
  
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रहमत के
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वुजू करती तुम्हें
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खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
बरकत के<br>
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पैग़ाम लिक्खे—<br>
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वुजू करती तुम्हें<br>
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झिलमिलाए अँधेरे<br>
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--भजन गाते आँचल ने<br>
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खुले द्वार !<br>
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बच्चों ने बस्ता उठाया<br>
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बुजुर्गों ने—<br>
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पेड़ों को पानी पिलाया<br>
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पुलिस ने<br>
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खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था<br>
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वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था
 
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था
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20:16, 2 फ़रवरी 2010 का अवतरण

बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की

रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
--भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
--नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।

खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था