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"तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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[[Category:लम्बी कविता]]
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|रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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[[Category:लम्बी रचना]]
  
 
+
*[[तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग १]]
::[1]<br>
+
*[[तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग २]]
भारत के नभ के प्रभापूर्य<br>
+
*[[तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग ३]]
शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य<br>
+
*[[तुलसीदास / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग ४]]
अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;<br>
+
उर के आसन पर शिरस्त्राण<br>
+
शासन करते हैं मुसलमान;<br>
+
है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल।<br><br>
+
::[2]<br>
+
शत-शत शब्दों का सांध्य काल<br>
+
यह आकुंचित भ्रू कुटिल-भाल<br>
+
छाया अंबर पर जलद-जाल ज्यों दुस्तर;<br>
+
आया पहले पंजाब प्रान्त,<br>
+
कोशल-बिहार तदनन्त क्रांत,<br>
+
क्रमशः प्रदेश सब हुए भ्रान्त, घिर-घिरकर।<br><br>
+
::[3]<br>
+
मोगल-दल बल के जलद-यान,<br>
+
दर्पित-पद उन्मद पठान<br>
+
बहा रहे दिग्देशज्ञान, शर-खरतर,<br>
+
छाया ऊपर घन-अन्धकार--<br>
+
टूटता वज्र यह दुर्निवार,<br>
+
नीचे प्लावन की प्रलय-धार, ध्वनि हर-हर।<br><br>
+
::[4]<br>
+
रिपु के समक्ष जो था प्रचण्ड<br>
+
आतप ज्यों तम पर करोद्दण्ड;<br>
+
निश्चल अब वही बुँदेलखण्ड, आभा गत,<br>
+
निःशेष सुरभि, कुरबक-समान<br>
+
संलग्न वृन्त पर, चिन्त्य प्राण,<br>
+
बीता उत्सव ज्यों, चिन्ह म्लान छाया श्लथ।<br><br>
+
::[5]<br>
+
वीरों का गढ़,  वह कालिंजर,<br>
+
सिंहों के लिए आज पिंजर<br>
+
नर हैं भीतर बाहर किन्नर-गण गाते<br>
+
पीकर ज्यों प्राणों का आसव<br>
+
देखा असुरों ने दैहिक दव,<br>
+
बन्धन में फँस आत्मा-बांधव दुख पाते।<br><br>
+
::[6]<br>
+
लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,<br>
+
हो शायित देश की पृथ्वी पर,<br>
+
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण<br>
+
भारत के उर के राजपूत,<br>
+
उड़ गये आज वे देवदूत,<br>
+
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण।<br><br>
+
::[7]<br>
+
यों मोगल-पद-तल प्रथम तूर्ण<br>
+
सम्बद्ध देश-बल चूर्ण-चूर्ण<br>
+
इसलाम कलाओं से प्रपूर्ण जन-जनपद<br>
+
संचित जीवन की क्षिप्रधार,<br>
+
इसलाम  -  सागराभिमुख पार,<br>
+
बहती नदियाँ, नद जन-जन हार वंशवद।<br><br>
+
::[8]<br>
+
अब धौत धरा खिल गया गगन,<br>
+
उर-उर को मधुर तापप्रशमन<br>
+
बहती समीर, चिर-आलिंगन ज्यों उन्मन।<br>
+
झरते हैं शशधर से क्षण-क्षण<br>
+
पृथ्वी के अधरों पर निःश्वन<br>
+
ज्योतिर्मय प्राणों के चुम्बन, संजीवन<br><br>
+
::[9]<br>
+
भूला दुख, अब सुख-स्वरित जाल<br>
+
फैला-यह केवल-कल्प काल--<br>
+
कामिनी-कुमुद-कर-कलित ताल पर चलता<br>
+
प्राणों की छबि मृदु-मन्द-स्पन्द,<br>
+
लघु-गति, नियमित-पद, ललित छन्द<br>
+
होगा कोई, जो निरानन्द, कर मलता।<br><br>
+
::[10]<br>
+
सोचता कहाँ रे, किधर कूल<br>
+
कहता तरंग का प्रमुद फूल<br>
+
यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता<br>
+
छल-छल-छल कहता यद्यपि जल,<br>
+
वह मन्त्र मुग्ध सुनता कल-कल<br>
+
निष्क्रिय शोभा-प्रिय कूलोपल ज्यों रहता।<br><br>
+
::[11]<br>
+
पड़ते हैं जो दिल्ली-पथ पर<br>
+
यमुना के तट के श्रेष्ठ नगर,<br>
+
वे हैं समृद्धि की दूर-प्रसर माया में;<br>
+
यह एक उन्ही में राजापुर,<br>
+
है पूर्ण, कुशल, व्यवसाय-प्रचुर,<br>
+
ज्योतिश्चुम्बिनी कलश-मधु-उर छाया में।<br><br>
+
 
+
::[12]<br>
+
युवकों में प्रमुख रत्न-चेतन<br>
+
समधीत - शास्त्र - काव्यालोचन<br>
+
जो, तुलसीदास, वही ब्राह्मण-कुल-दीपक;<br>
+
आयत-दृग, पुष्ट देह, गत-भय,<br>
+
अपने प्रकाश में निःसंशय<br>
+
प्रतिभा का मन्द-स्मित परिचय, संस्मारक;<br><br>
+
 
+
::[13]<br>
+
नीली उस यमुना के तट पर<br>
+
राजापुर का नागरिक मुखर<br>
+
क्रीड़ितवय-विद्याध्ययनान्तर है संस्थित;<br>
+
प्रियजन को जीवन चारु, चपल<br>
+
जल की शोभा का-सा उत्पल,<br>
+
सौरभोत्कलित अम्बर-तल, स्थल-स्थल, दिक-दिक।<br><br>
+
 
+
::[14]<br>
+
एक दिन सखागण संग, पास,<br>
+
चल चित्रकूटगिरी, सहोच्छवास,<br>
+
देखा पावन वन, नव प्रकाश मन आया;<br>
+
वह भाषा-छिपती छवि सुन्दर<br>
+
कुछ खुलती आभा में रँगकर,<br>
+
वह भाव कुरल-कुहरे-सा भरकर भाया।<br><br>
+
 
+
::[15]<br>
+
केवल विस्मित मन चिन्त्य नयन;<br>
+
परिचित कुछ, भूला ज्यों प्रियजन-<br>
+
ज्यों दूर दृष्टि की धूमिल-तन तट-रेखा,<br>
+
हो मध्य तरंगाकुल सागर,<br>
+
निःशब्द  स्वप्नसंस्कारागर;<br>
+
जल में अस्फुट छवि छायाधर, यों देखा।<br><br>
+
 
+
::[16]<br>
+
तरु-तरु वीरुध्-वीरुध् तृण-तृण<br>
+
जाने क्या हँसते मसृण-मसृण,<br>
+
जैसे प्राणों से हुए उऋण, कुछ लखकर;<br>
+
भर लेने को उर में, अथाह,<br>
+
बाहों में फैलाया उछाह;<br>
+
गिनते थे दिन, अब सफल-चाह पल रखकर।<br><br>
+
 
+
::[17]<br>
+
कहता प्रति जड़ "जंगम-जीवन!<br>
+
भूले थे अब तक बन्धु, प्रमन?<br>
+
यह हताश्वास मन भार श्वास भर बहता;<br>
+
तुम रहे छोड़ गृह मेरे कवि,<br>
+
देखो यह धूलि-धूसरित छवि,<br>
+
छाया इस पर केवल जड़ रवि खर दहता।"<br><br>
+
 
+
::[18]<br>
+
"हनती आँखों की ज्वाला चल,<br>
+
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,<br>
+
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;<br>
+
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,<br>
+
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;<br>
+
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"<br><br>
+
 
+
::[19]<br>
+
"फिर असुरों से होती क्षण-क्षण<br>
+
स्मृति की पृथ्वी यह, दलित-चरण;<br>
+
वे सुप्त भाव, गुप्ताभूषण अब हैं सब<br>
+
इस जग के मग के मुक्त-प्राण!<br>
+
गाओ-विहंग! -सद्ध्वनित गान,<br>
+
त्यागोज्जीवित, वह ऊर्ध्व ध्यान, धारा-स्तव।"<br><br>
+
 
+
::[20]<br>
+
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,<br>
+
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,<br>
+
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;<br>
+
अन्यथा यहाँ क्या?  अन्धकार,<br>
+
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,<br>
+
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!<br><br>
+
 
+
::[21]<br>
+
"अब स्मर के शर-केशर से झर<br>
+
रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;<br>
+
छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;<br>
+
छिप रहे उसी से वे प्रियतमम<br>
+
छवि के निश्छल देवता परम;<br>
+
जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"<br><br>
+
 
+
::[22]<br>
+
बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल<br>
+
वन को कर जाती है व्याकुल,<br>
+
हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;<br>
+
वह उस शाखा का वन-विहग<br>
+
छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।<br><br>
+
 
+
::[23]<br>
+
दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,<br>
+
कर रहा पार मन नभोदेश,<br>
+
सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,<br>
+
छोड़ता रंग  फिर-फिर सँवार<br>
+
उड़ती तरंग ऊपर अपार<br>
+
संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।<br><br>
+
 
+
::[24]<br>
+
उस मानस उर्ध्व देश में भी<br>
+
ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की<br>
+
देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--<br>
+
भारत का सम्यक देशकाल;<br>
+
खिंचता जैसे तम-शेष जाल,<br>
+
खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।<br><br>
+
 
+
::[25]<br>
+
बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल<br>
+
क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;<br>
+
पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;<br>
+
हो रहा भस्म अपना जीवन,<br>
+
चेतना-हीन फिर भी चेतन;<br>
+
अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।<br><br>
+
 
+
::[26]<br>
+
इसने ही जैसे बार-बार<br>
+
दूसरी शक्ति की की पुकार--<br>
+
साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;<br>
+
यह उसी शक्ति से है वलयित<br>
+
चित देश-काल का सम्यक् जित,<br>
+
ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!<br><br>
+
 
+
::[27]<br>
+
विधि की इच्छा सर्वत्र अटल;<br>
+
यह देश प्रथम ही था हत-बल;<br>
+
वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;<br>
+
तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व<br>
+
क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;<br>
+
द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।<br><br>
+
 
+
::[28]<br>
+
चलते फिरते पर निस्सहाय,<br>
+
वे दीन, क्षीण कंकालकाय;<br>
+
आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;<br>
+
रण के अश्वों से शस्य सकल<br>
+
दलमल जाते ज्यों, दल के दल<br>
+
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।<br><br>
+
 
+
::[29]<br>
+
वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष,<br>
+
पाते प्रहार अब हताश्वास;<br>
+
सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के<br>
+
होना ही उनका धर्म परम,<br>
+
वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,<br>
+
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!<br><br>
+
 
+
::[30]<br>
+
रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम<br>
+
जो पहला पद, अब मद-विष-सम;<br>
+
द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,<br>
+
जो देशकाल को आवृत कर<br>
+
फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,<br>
+
देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।<br><br>
+
::[31]<br>
+
इस छाया के भीतर है सब,<br>
+
है बँधा हुआ सारा कलरव,<br>
+
भूले सब इस तम का आसव पी-पीकर।<br>
+
इसके भीतर रह देश-काल<br>
+
हो सकेगा न रे मुक्त-भाल,<br>
+
पहले का सा उन्नत विशाल ज्योतिःसर।<br><br>
+
 
+
::[32]<br>
+
दीनों की भी दुर्बल पुकार<br>
+
कर सकती नहीं कदापि पार<br>
+
पार्थिवैश्वर्य का अन्धकार पीड़ाकर,<br>
+
जब तक कांक्षाओं के प्रहार<br>
+
अपने साधन को बार-बार<br>
+
होंगे भारत पर इस प्रकार तृष्णापर।<br><br>
+
 
+
::[33]<br>
+
सोचा कवि ने, मानस-तरंग,<br>
+
यह भारत-संस्कृति पर सभंग<br>
+
फैली जो, लेती संग-संग, जन-गण को;<br>
+
इस अनिल-वाह के पार प्रखर<br>
+
किरणों का वह ज्योतिर्मय घर,<br>
+
रविकुल-जीवन-चुम्बनकर मानस-धन जो।<br><br>
+
 
+
::[34]<br>
+
है वही मुक्ति का सत्य रूप,<br>
+
यह कूप-कूप भव-अन्ध कूप;<br>
+
वह रंक, यहाँ जो हुआ भूप, निश्चय रे।<br>
+
चाहिए उसे और भी और,<br>
+
फिर साधारण को कहाँ ठौर?<br>
+
जीवन के जग के, यही तौर हैं जय के।<br><br>
+
 
+
::[35]<br>
+
करना होगा यह तिमिर पार-<br>
+
देखना सत्य का मिहिर-द्वार-<br>
+
बहना जीवन के प्रखर ज्वार में निश्चय-<br>
+
लड़ना विरोध से द्वन्द्व-समर,<br>
+
रह सत्य-मार्ग पर स्थिर निर्भर-<br>
+
जाना, भिन्न भी देह, निज घर निःसंशय।<br><br>
+
 
+
::[36]<br>
+
कल्मषोत्सार कवि के दुर्दम<br>
+
चेतनोर्मियों के प्राण प्रथम<br>
+
वह रुद्ध द्वार का छाया-तम तरने को--<br>
+
करने को ज्ञानोद्धत प्रहार--<br>
+
तोड़ने को विषम वज्र-द्वार;<br>
+
उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को।<br><br>
+
 
+
::[37]<br>
+
उस क्षण, उस छाया के ऊपर,<br>
+
नभ-तम की-सी तारिका सुघर;<br>
+
आ पड़ी, दृष्टि में, जीवन पर, सुन्दरतम<br>
+
प्रेयसी, प्राणसंगिनी, नाम<br>
+
शुभ रत्नावली-सरोज-दाम<br>
+
वामा, इस पथ पर हुई वाम सरितोपम।<br><br>
+
 
+
::[38]<br>
+
'जाते हो कहाँ?' तुले तिर्यक्<br>
+
दृग, पहनाकर ज्योतिर्मय स्रक्<br>
+
प्रियतम को ज्यों, बोले सम्यक् शासन से;<br>
+
फिर लिये मूँद वे पल पक्ष्मल--<br>
+
इन्दीवर के-से कोश विमल;<br>
+
फिर हुई अदृश्य शक्ति पुष्कल उस तन से।<br><br>
+
 
+
::[39]<br>
+
उस ऊँचे नभ का, गुंजनपर,<br>
+
मंजुल जीवन का मन-मधुकर,<br>
+
खुलती उस दृग-छवि में बँधकर, सौरभ को<br>
+
बैठा ही था सुख से क्षण-भर,<br>
+
मुँद गये पलों के दल मृदुतर,<br>
+
रह गया उसी उर के भीतर, अक्षम हो।<br><br>
+
 
+
::[40]<br>
+
उसके अदृश्य होते ही रे,<br>
+
उतरा वह मन धीरे-धीरे,<br>
+
केशर-रज-कण अब हैं हीरे-पर्वतचय;<br>
+
यह वही प्रकृति पर रूप अन्य;<br>
+
जगमग-जगमग सब वेश वन्य;<br>
+
सुरभित दिशि-दिशि, कवि हुआ धन्य, मायाशय।<br><br>
+
 
+
::[41]<br>
+
यह श्री पावन, गृहिणी उदार;<br>
+
गिरि-वर उरोज, सरि पयोधार;<br>
+
कर वन-तरु; फैला फल निहारती देती;<br>
+
सब जीवों पर है एक दृष्टि,<br>
+
तृण-तृण पर उसकी सुधा-वृष्टि,<br>
+
प्रेयसी, बदलती वसन सृष्टि नव लेती।<br><br>
+
 
+
::[42]<br>
+
ये जिस कर के रे झंकृत स्वर<br>
+
गूँजते हुए इतने सुखकर,
+
खुलते खोलते प्राण के स्तर भर जाते;<br>
+
व्याकुल आलिंगन को, दुस्तर,<br>
+
रागिनी की लहर गिरि-वन-सर<br>
+
तरती जो ध्वनित, भाव सुन्दर कहलाते।<br><br>
+
 
+
::[43]<br>
+
यों धीरे-धीरे उतर-उतर<br>
+
आया मन निज पहली स्थिति पर;<br>
+
खोले दृग, वैसी ही प्रान्तर की रेखा;<br>
+
विश्राम के लिए मित्र-प्रवर<br>
+
बैठे थे ज्यों, बैठे पथ पर;<br>
+
वह खड़ा हुआ, त्यों ही रहकर यह देखा।<br><br>
+
 
+
::[44]<br>
+
फिर पंचतीर्थ को चढ़े सकल<br>
+
गिरिमाला पर, हैं प्राण चपल<br>
+
सन्दर्शन को, आतुर-पद चलकर पहुँचे।<br>
+
फिर कोटितीर्थ देवांगनादि<br>
+
लख सार्थक-श्रम हो विगत-व्याधि<br>
+
नग्न-पद चले, कंटक, उपाधि भी, न कुँचे।<br><br>
+
 
+
::[45]<br>
+
आये हनुमद्धारा द्रुततर,<br>
+
झरता झरना वीर पर प्रखर,<br>
+
लखकर कवि रहा भाव में भरकर क्षण-भर;<br>
+
फिर उतरे गिरि, चल किया पार<br>
+
पथ-पयस्विनी सरि मृदुल धार;<br>
+
स्नानान्त, भजन, भोजन, विहार, गिरि-पद पर।<br><br>
+
 
+
::[46]<br>
+
कामदागिरि का कर परिक्रमण<br>
+
आये जानकी-कुण्ड सब जन;<br>
+
फिर स्फटिकशिला, अनसूया-वन सरि-उद्गम,<br>
+
फिर भरतकूप, रह इस प्रकार,<br>
+
कुछ दिन सब जन कर वन-विहार<br>
+
लौटे निज-निज गृह हृदय धार छवि निरुपम।<br><br>
+
 
+
::[47]<br>
+
प्रेयसी के अलक नील, व्योम;<br>
+
दृग-पल कलंक--मुख मंजु सोम;<br>
+
निःसृत प्रकाश जो, तरुण क्षोम प्रिय तन पर;<br>
+
पुलकित प्रतिपल मानस-चकोर<br>
+
देखता भूल दिक् उसी ओर;<br>
+
कुल इच्छाओं का वही छोर जीवन भर।<br><br>
+
 
+
::[48]<br>
+
जिस शुचि प्रकाश का सौर-जगत्<br>
+
रुचि-रुचि में खुला, असत् भी, सत्,<br>
+
वह बँधा हुआ है एक महत् परिचय से;<br>
+
अविनश्वर वही ज्ञान भीतर,<br>
+
बाहर भ्रम, भ्रमरों को, भास्वर<br>
+
वह रत्नावली-सूत्रधार पर आशय से।<br><br>
+
 
+
::[49]<br>
+
देखता, नवल चल दीप युगल<br>
+
नयनों के, आभा के कोमल;<br>
+
प्रेयसी के, प्रणय के, निस्तल विभ्रम के,<br>
+
गृह की सीमा के स्वच्छभास--<br>
+
भीतर के, बाहर के प्रकाश,<br>
+
जीवन के, भावों के विलास, शम-दम के।<br><br>
+
 
+
::[50]<br>
+
पर वही द्वन्द्व के कारण,<br>
+
बन्ध की श्रृंखला के धारण,<br>
+
निर्वाण के पथिक के वारण, करुणामय;<br>
+
वे पलकों के उस पार, अर्थ<br>
+
हो सका न, वे ऐसे समर्थ;<br>
+
सारा विवाद हो गया व्यर्थ, जीवन-क्षय।<br><br>
+
 
+
::[51]<br>
+
उस प्रियावरण प्रकाश में बँध,<br>
+
सोचता, "सहज पड़ते पग सध;<br>
+
शोभा को लिये ऊर्ध्व औ अध घर बाहर<br>
+
यह विश्व, सूर्य, तारक-मण्डल,<br>
+
दिन, पक्ष, मास, ऋतु, वर्ष चपल;<br>
+
बँध गति-प्रकाश में बुद्ध सकल पूर्वापर।"<br><br>
+
 
+
::[52]<br>
+
"बन्ध के बिना कह, कहाँ प्रगति ?<br>
+
गति-हीन जीव को कहाँ सुरति ?<br>
+
रति-रहित कहाँ सुख केवल क्षति-केवल क्षति;<br>
+
यह क्रम विनाश इससे चलकर<br>
+
आता सत्वर मन निम्न उतर;<br>
+
छूटता अन्त में चेतन स्तर, जाती मति।"<br><br>
+
 
+
::[53]<br>
+
"देखो प्रसून को वह उन्मुख !<br>
+
रँग-रेणु-गन्ध भर व्याकुल-सुख,<br>
+
देखता ज्योतिमुखः आया दुख पीड़ा सह।<br>
+
चटका कलि का अवरोध सदल,<br>
+
वह शोधशक्ति, जो गन्धोच्छल,<br>
+
खुल पड़ती पल-प्रकाश को, चल परिचय वह।"<br><br>
+
 
+
::[54]<br>
+
"जिस तरह गन्ध से बँधा फूल,<br>
+
फैलता दूर तक भी समूल;<br>
+
अप्रतिम प्रिया से, त्यों दुकूल-प्रतिभा में<br>
+
मैं बँधा एक शुचि आलिंगन,<br>
+
आकृति में निराकार, चुम्बन;<br>
+
युक्त भी मुक्त यों आजीवन, लघिमा में।"<br><br>
+
 
+
::[55]<br>
+
सोचता कौन प्रतिहत चेतन-<br>
+
वे नहीं प्रिया के नयन, नयन;<br>
+
वह केवल वहाँ मीन-केतन, युवती में;<br>
+
अपने वश में कर पुरुष देश<br>
+
है उड़ा रहा ध्वज-मुक्तकेश;<br>
+
तरुणी-तनु आलम्बन-विशेष, पृथ्वी में?<br><br>
+
 
+
::[56]<br>
+
वह ऐसी जो अनुकूल युक्ती,<br>
+
जीव के भाव की नहीं मुक्ति;<br>
+
वह एक भुक्ति, ज्यों मिली शुक्ति से मुक्ता;<br>
+
जो ज्ञानदीप्ति, वह दूर अजर,<br>
+
विश्व के प्राण के भी ऊपर;<br>
+
माया वह , जो जीव से सुघर संयुक्ता।<br><br>
+
 
+
::[57]<br>
+
मृत्तिका एक कर सार ग्रहण<br>
+
खुलते रहते बहुवर्ण, सुमन,<br>
+
त्यों रत्नावली-हार में बँध मन चमका,<br>
+
पाकर नयनों की ज्योति प्रखर,<br>
+
ज्यों रविकर से श्यामल जलधर,<br>
+
बह वर्णों के भावों से भरकर दमका।<br><br>
+
 
+
::[58]<br>
+
वह रत्नावली नाम-शोभन<br>
+
पति-रति में प्रतन, अतः लोभन<br>
+
अपरिचित-पुण्य अक्षय क्षोभन धन कोई,<br>
+
प्रियकरालम्ब को सत्य-यष्टि,<br>
+
प्रतिभा में श्रद्धा की समष्टि;<br>
+
मायामन में प्रिय-शयन व्यष्टि भर सोयी:-<br><br>
+
 
+
::[59]<br>
+
लखती ऊषारुण, मौन, राग,<br>
+
सोते पति से वह रही जाग;<br>
+
प्रेम के फाग में आग त्याग की तरुणा;<br>
+
प्रिय के जड़ युग कूलों को भर<br>
+
बहती ज्यों स्वर्गंगा सस्वर;<br>
+
नश्वरता पर अलोक-सुघर दृक्-करुणा।<br><br>
+
 
+
::[60]<br>
+
धीरे-धीर वह हुआ पार<br>
+
तारा-द्युति से बँध अन्धकार;<br>
+
एक दिन विदा को बन्धु द्वार पर आया;<br>
+
लख रत्नावली खुली सहास;<br>
+
अवरोध-रहित बढ़ गयी पास;<br>
+
बोला भाई, हँसती उदास तू छाया-<br><br>
+
 
+
::[61]<br>
+
"हो गयी रतन, कितनी दुर्बल,<br>
+
चिन्ता में बहन, गयी तू गल<br>
+
माँ, बापूजी, भाभियाँ सकल पड़ोस की<br>
+
हैं विकल देखने को सत्वर<br>
+
सहेलियाँ सब, ताने देकर<br>
+
कहती हैं, बेचा वर के कर, आ न सकी"<br><br>
+
 
+
::[62]<br>
+
"तुझसे पीछे भेजी जाकर<br>
+
आयीं वे कई बार नैहर;<br>
+
पर तुझे भेजते क्यों श्रीवरजी डरते ?<br>
+
हम कई बार आ-आकर घर<br>
+
लौटे पाकर झूठे उत्तर;<br>
+
क्यों बहन, नहीं तू सम, उन पर बल करते ?<br><br>
+
 
+
::[63]<br>
+
"आँसुओं भरी माँ दुख के स्वर<br>
+
बोलीं, रतन  से कहो जाकर,<br>
+
क्या नहीं मोह कुछ माता पर अब तुमको ?<br>
+
जामाताजी वाली ममता<br>
+
माँ से तो पाती उत्तमता।"<br>
+
बोले बापू, योगी रमता मैं अब तो-<br><br>
+
 
+
::[64]<br>
+
"कुछ ही दिन को हूँ कल-द्रुम;<br>
+
छू लूँ पद फिर कह देना तुम।"<br>
+
बोली भाभी, लाना कुंकुम-शोभा को;<br>
+
फिर किया अनावश्यक प्रलाप,<br>
+
जिसमें जैसी स्नेह की छाप !<br>
+
पर अकथनीय करुणा-विलाप जो माँ को।<br><br>
+
 
+
::[65]<br>
+
"हम बिना तुम्हारे आये घर,<br>
+
गाँव की दृष्टि से गये उतर;<br>
+
क्यों बहन, ब्याह हो जाने पर, घर पहला<br>
+
केवल कहने को है नैहर?-<br>
+
दे सकता नहीं स्नेह-आदर?-<br>
+
पूजे पद, हम इसलिए अपर?" उर दहला<br><br>
+
 
+
::[66]<br>
+
उस प्रतिमा का, आया तब खुल<br>
+
मर्यादागर्भित धर्म विपुल,<br>
+
धुल अश्रु-धार से हुई अतुल छवि पावन,<br>
+
वह घेर-घेर निस्सीम गगन<br>
+
उमड़े भावों के घन पर घन,<br>
+
फैला, ढक सघन स्नेह-उपवन, वह सावन।<br><br>
+
 
+
::[67]<br>
+
बोली वह, मृदु-गम्भीर-घोष,<br>
+
"मैं साथ तुम्हारे, करो तोष।"<br>
+
जिस पृथ्वी से निकली सदोष वह सीता,<br>
+
अंक में उसी के आज लीन-<br>
+
निज मर्यादा पर समासीन;<br>
+
दे गयी सुहृद् को स्नेह-क्षीण गत गीता।<br><br>
+
 
+
::[68]<br>
+
बोला भाई, तो "चलो अभी,<br>
+
अन्यथा, न होंगे सफल कभी<br>
+
हम, उनके आ जाने पर, जी यह कहता।<br>
+
जब लौटें वह, हम करें पार<br>
+
राजापुर के ये सभी मार्ग, द्वार।"<br>
+
चल दी प्रतिमा। घर अन्धकार अब बहता।<br><br>
+
 
+
::[69]<br>
+
लेते सौदा जब खड़े हाट,<br>
+
तुलसी के मन आया उचाट;<br>
+
सोचा, अबके किस घाट उतारें इनको;<br>
+
जब देखो, तब द्वार पर खड़े<br>
+
उधार लाये हम, चले बड़े !<br>
+
दे दिया दान तो अड़े पड़े अब किनक ?<br><br>
+
 
+
::[70]<br>
+
सामग्री ले लौटे जब घर,<br>
+
देखा नीलम-सोपानों पर<br>
+
नभ के चढ़ती आभा सुन्दर पग धर-धर;<br>
+
श्वेत, श्याम, रक्त, पराग-पीत,<br>
+
अपने सुख से ज्यों सुमन भीत;<br>
+
गाती यमुना नृत्यपर, गीत कल-कल स्वर।<br><br>
+
 
+
::[71]<br>
+
देखा वह नहीं प्रिया जीवन;<br>
+
नत-नयन भवन, विषण्ण आँगन;<br>
+
आवरण शून्य वे बिना वरण-मधुरा के<br>
+
अपहृत-श्री सुख-स्नेह का सद्य,<br>
+
निःसुरभि, हत, हेमन्त-पद्म !<br>
+
नैतिक-नीरस, निष्प्रीति, छद्म ज्यों, पाते।<br><br>
+
 
+
::[72]<br>
+
यह नहीं आज गृह, छाया-उर,<br>
+
गीति से प्रिया की मुखर, मधुर;<br>
+
गति-नृत्य, तालशिंजित-नूपुर चरणारुण;<br>
+
व्यंजित नयनों  का भाव सघन<br>
+
भर रंजित जो करता क्षण-क्षण;<br>
+
कहता कोई मन से, उन्मन, सुर रे, सुन।<br><br>
+
 
+
::[73]<br>
+
वह आज हो गयी दूर तान,<br>
+
इसलिए मधुर वह और गान,<br>
+
सुनने को व्याकुल हुए प्राण प्रियतम के;<br>
+
छूटा जग का व्यवहार - ज्ञान,<br>
+
पग उठे उसी मग को अजान,<br>
+
कुल-मान-ध्यान श्लथ स्नेह-दान-सक्षम से।<br><br>
+
 
+
::[74]<br>
+
मग में पिक-कुहरिल डाल,<br>
+
हैं हरित विटप सब सुमन - माल,<br>
+
हिलतीं लतिकाएँ ताल-ताल पर सस्मित।<br>
+
पड़ता उन पर ज्योतिः प्रपात,<br>
+
हैं चमक रहे सब कनक-गात,<br>
+
बहती मधु-धीर समीर ज्ञात, आलिंगित।<br><br>
+
 
+
::[75]<br>
+
धूसरित बाल-दल, पुण्य-रेणु,<br>
+
लख चरण-वारण-चपल धेनु,<br>
+
आ गयी याद उस मधुर-वेणु-वादन की;<br>
+
वह यमुना-तट, वह वृन्दावन,<br>
+
चपलानन्दित यह सघन गगन;<br>
+
गोपी-जन-यौवन-मोहन-तन वह वन-श्री।<br><br>
+
 
+
::[76]<br>
+
सुनते सुख की वंशी के सुर,<br>
+
पहुँचे रत्नधर रमा के पुर;<br>
+
लख सादर उठी समाज श्वशुर-परिजन की;<br>
+
बैठाला देकर मान-पान;<br>
+
कुछ जन बतलाये कान-कान;<br>
+
सुन बोली भाभी, यह पहचान रतन की !<br><br>
+
 
+
::[77]<br>
+
जल गये व्यंग्य से सकल अंग,<br>
+
चमकी चल-दृग ज्वाला-तरंग,<br>
+
पर रही मौन धर अप्रसंग वह बाला;<br>
+
पति की इस मति-गति से मरकर,<br>
+
उर की उर में ज्यों, ताप-क्षर,<br>
+
रह गयी सुरभि की म्लान-अधर वर-माला।<br><br>
+
 
+
::[78]<br>
+
बोली मन में होकर अक्षम,<br>
+
रक्खो, मर्यादा पुरुषोत्तम !<br>
+
लाज का आज भूषण, अक्लम, नारी का;<br>
+
खींचता छोर, यह कौन ओर<br>
+
पैठा उनमें जो अधम चौर ?<br>
+
खुलता अब अंचल, नाथ, पौर साड़ी का !<br><br>
+
 
+
::[79]<br>
+
कुछ काल रहा यों स्तब्ध भवन,<br>
+
ज्यों आँधी के उठने का क्षण;<br>
+
प्रिय श्रीवरजी को जिवाँ शयन करने को<br>
+
ले चली साथ भावज हरती<br>
+
निज प्रियालाप से वश करती,<br>
+
वह मधु-शीकर निर्झर झरती झरने को।<br><br>
+
 
+
::[80]<br>
+
जेंए फिर चल गृह के सब जन,<br>
+
फिर लौटे निज-निज कक्ष शयन;<br>
+
प्रिय-नयनों में बँध प्रिया-नयन चयनोत्कल<br>
+
पलकों से स्फरित, स्फुरित-राग<br>
+
सुनहला भरे पहला सुहाग,<br>
+
रग-रग से रँग रे रहे जाग स्वप्नोत्पल।<br><br>
+
 
+
::[81]<br>
+
कवि-रुचि में घिर छलकता रुचिर,<br>
+
जो, न था भाव वह छवि का स्थिर-<br>
+
बहती उलटी ही आज रुधिर-धारा वह,<br>
+
लख-लख प्रियतम-मुख पूर्ण-इन्दु<br>
+
लहराया जो उर मधुर सिन्धु,<br>
+
विपरीत, ज्वार, जल-विन्दु-विन्दु द्वारा वह।<br><br>
+
 
+
::[82]<br>
+
अस्तु रे, विवश, मारुत-प्रेरित,<br>
+
पर्वत-समीप आकर ज्यों स्थित<br>
+
घन-नीलालका दामिनी जित ललना वह;<br>
+
उन्मुक्त-गुच्छ चक्रांक-पुच्छ,<br>
+
लख नर्तित कवि-शिखि-मन समुच्च<br>
+
वह जीवन की समझा न तुच्छ छलना वह।<br><br>
+
 
+
::[83]<br>
+
बिखरी छूटी शफरी-अलकें,<br>
+
निष्पात नयन-नीरज पलकें,<br>
+
भावातुर पृथु उर की छलकें उपशमिता,<br>
+
निःसम्बल केवल ध्यान-मग्न,<br>
+
जागी योगिनी अरूप-लग्न,<br>
+
वह खड़ी शीर्ण प्रिय-भाव-मग्न निरुपमिता।<br>
+
 
+
::[84]<br>
+
कुछ समय अनन्तर, स्थित रहकर<br>,
+
स्वर्गीयाभा वह स्वरित प्रखर<br>
+
स्वर में झर-झर जीवन भरकर ज्यों बोली;<br>
+
अचपल ध्वनि की चमकी चपला,<br>
+
बल की महिमा बोली अबला,<br>
+
जागी जल पर कमला, अमला मति डोली-<br><br>
+
 
+
::[85]<br>
+
"धिक धाये तुम यों अनाहूत,<br>
+
धो दिया श्रेष्ठ कुल-धर्म धूत,<br>
+
राम के नहीं, काम के सूत कहलाये !<br>
+
हो बिके जहाँ तुम बिना दाम,<br>
+
वह नहीं और कुछ-हाड़, चाम !<br>
+
कैसी शिक्षा, कैसे विराम पर आये !"<br>
+
 
+
::[86]<br>
+
जागा, जागा संस्कार प्रबल,<br>
+
रे गया काम तत्क्षण वह जल,<br>
+
देखा, वामा वह न थी, अनल-प्रतिमा वह;<br>
+
इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान,<br>
+
हो गया भस्म वह प्रथम भान,<br>
+
छूटा जग का जो रहा ध्यान, जड़िमा वह।<br><br>
+
 
+
::[87]<br>
+
देखा, शारदा नील-वसना<br>
+
हैं सम्मुख स्वयं सृष्टि-रशना,<br>
+
जीवन-समीर-शुचि-निःश्वसना, वरदात्री,<br>
+
वाणी वह स्वयं सुवदित स्वर<br>
+
फूटी तर अमृताक्षर-निर्झर,<br>
+
यह विश्व हंस, हैं चरण सुघर जिस पर श्री।<br><br>
+
 
+
::[88]<br>
+
दृष्टि से भारती से बँधकर<br>
+
कवि उठता हुआ चला ऊपर;<br>
+
केवल अम्बर-केवल अम्बर फिर देखा;<br>
+
धूमायमान वह घूर्ण्य प्रसर<br>
+
धूसर समुद्र शशि-ताराहर,<br>
+
सूझता नहीं क्या ऊर्ध्व, अधर, क्षर रेखा।<br><br>
+
 
+
::[89]<br>
+
चमकी तब तक तारा नवीन,<br>
+
द्युति-नील-नील, जिसमें विलीन
+
हो गयीं भारती, रूप-क्षीण महिमा अब;<br>
+
आभा भी क्रमशः हुई मन्द,<br>
+
निस्तब्ध व्योम-गति-रहित छन्द;<br>
+
आनन्द रहा, मिट गये द्वन्द्व, बन्धन सब।<br><br>
+
 
+
::[90]<br>
+
थे मुँदे नयन, ज्ञानोन्मीलित,<br>
+
कलि में सौरभ ज्यों, चित में स्थित;<br>
+
अपनी असीमता में अवसित प्राणाशय;<br>
+
जिस कलिका में कवि रहा बन्द,<br>
+
वह आज उसी में खुली मन्द,<br>
+
भारती-रूप में सुरभि-छन्द निष्प्रश्रय।<br><br>
+
::[91]<br>
+
जब आया फिर देहात्मबोध,<br>
+
बाहर चलने का हुआ शोध,<br>
+
रह निर्विरोध, गति हुई रोध-प्रतिकूला,<br>
+
खोलती मृदुल दल बन्द सकल<br>
+
गुदगुदा विपुल धारा अविचल<br>
+
बह चली सुरभि की ज्यों उत्कल, निःशूला-<br><br>
+
::[92]<br>
+
बाजीं बहती लहरें कलकल,<br>
+
जागे भावाकुल शब्दोच्छल,<br>
+
गूँजा जग का कानन-मण्डल, पर्वत-तल<br>
+
सूना उर ऋषियों का ऊना<br>
+
सुनता स्वर, हो हर्षित, दूना,<br>
+
आसुर भावों से जो भूना, था निश्चल।<br><br>
+
::[93]<br>
+
जागो, जागो आया प्रभात,<br>
+
बीती वह, बीती अन्ध रात,<br>
+
झरता भर ज्योतिर्मय प्रपात पूर्वाचल<br>
+
बाँधो, बाँधो किरणें चेतन,<br>
+
तेजस्वी, है तमजिज्जीवन,<br>
+
आती भारत की ज्योर्धन महिमाबल।<br><br>
+
::[94]<br>
+
होगा फिर से दुर्धर्ष समर<br>
+
जड़ से चेतन का निशिवासर,<br>
+
कवि का प्रति छवि से जीवनहर, जीवन भर<br>
+
भारती इधर, हैं उधर सकल<br>
+
जड़ जीवन के संचित कौशल<br>
+
जय इधर, ईश, हैं उधर सबल माया-कर।<br><br>
+
::[95]<br>
+
हो रहे आज जो खिन्न-खिन्न<br>
+
छुट-छुटकर दल से भिन्न-भिन्न<br>
+
वह अकल-कला, गह सकल छिन्न, जोड़ेगी,<br>
+
रवि-कर ज्यों विन्दु-विन्दु जीवन<br>
+
संचित कर करता है वर्षण,<br>
+
लहरा भव-पादप, मर्षण-मन मोड़ेगी।<br><br>
+
::[96]<br>
+
देश-काल के शर से बिंधकर<br>
+
यह जागा कवि अशेष-छविधर<br>
+
इनका स्वर भर भारती मुखर होयेंगी<br>
+
निश्चेतन, निज तन मिला विकल,<br>
+
छलका शत-शत कल्मष के छल<br>
+
बहतीं जो, वे रागिनी सकल सोयेंगी।<br><br>
+
::[97]<br>
+
तम के अमार्ज्य रे तार-तार<br>
+
जो, उन पर पड़ी प्रकाश-धार<br>
+
जग-वीणा के स्वर के बहार रे, जागो<br>
+
इस कर अपने कारुणिक प्राण<br>
+
कर लो समक्ष देदिप्यमान-<br>
+
दे गीत विश्व को रुको, दान फिर माँगो।<br><br>
+
::[98]<br>
+
क्या हुआ कहाँ, कुछ नहीं सुना,<br>
+
कवि ने निज मन भाव में गुना,<br>
+
साधना जगी केवल अधुना प्राणों की,<br>
+
देखा सामने, मूर्ति छल-छल<br>
+
नयनों में छलक रही, अचपल,<br>
+
उपमिता न हुई समुच्च सकल तानों की।<br><br>
+
::[99]<br>
+
जगमग जीवन का अन्त्य भाष-<br>
+
जो दिया मुझे तुमने प्रकाश,<br>
+
अब रहा नहीं लेशावकाश रहने का<br>
+
मेरा उससे गृह के भीतर,<br>
+
देखूँगा नहीं कभी फिरकर,<br>
+
लेता मैं, जो वर जीवन-भर बहने का।<br><br>
+
::[100]<br>
+
चल मन्द चरण आये बाहर,<br>
+
उर में परिचित वह मूर्ति सुघर<br>
+
जागी विश्वाश्रय महिमाधर, फिर देखा-<br>
+
संकुचित, खोलती श्वेत पटल<br>
+
बदली, कमला तिरती सुख-जलष<br>
+
प्राची-दिगन्त-उर में पुष्कल रवि-रेखा।<br><br>
+

23:48, 3 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण