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"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ ६" के अवतरणों में अंतर

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तम में तू भी कम नहीं, जी, जुगनू, बड़भाग,
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भवन भवन में दीप हैं, जा, वन वन में जाग।
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हा! वह सुहृदयता भी क्रीड़ा में है कठोरता जड़िता,
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तड़प तड़प उठती है स्वजनि, घनालिंगिता तड़िता!
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गाढ़ तिमिर की बाढ़ में डूब रही सब सृष्टि,
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मानों चक्कर में पड़ी चकराती है दृष्टि।
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लाईं सखि, मालिनें थीं डाली उस वार जब,
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:जम्बूफल जीजी ने लिये थे, तुझे याद है?
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मैं ने थे रसाल लिये, देवर खड़े थे पास,
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:हँस कर बोल उठे--’निज निज स्वाद है!’
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मैं ने कहा--’रसिक, तुम्हारी रुचि काहे पर?’
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:बोले--’देवि, दोनों ओर मेरा रस-वाद है,
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दोनों का प्रसाद-भागी हूँ मैं’ हाय! आली आज
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:विधि के प्रमाद से विनोद भी विषाद है!
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निचोड़ पृथ्वी पर वृष्टि-पानी,
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सुखा विचित्राम्बर सृष्टिरानी!
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तथापि क्या मानस रिक्त मेरा?
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बना अभी अंचल सिक्त मेरा।
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:सखि, छिन धूप और छिन छाया,
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:यह सब चौमासे की माया!
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गया श्वास फिर भी यदि आया,
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तो सजीव है कृश भी काया।
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हमने उसको रोक न पाया,
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तो निज दर्शन-योग-गमाया।
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:ले लो, दैव जहाँ जो लाया।
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:यह सब चौमासे की माया!
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पथ तक जकड़े हैं झाड़ियाँ डाल घेरा,
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उपवन वन-सा हा! हो गया आज मेरा।
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प्रियतम वनचारी गेह में भी रहेंगे,
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कह सखि, मुझसे वे लौट के क्या कहेंगे?
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करें परिष्कृत मालिनें आली, यह उद्यान;
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करते होंगे गहन में प्रियतम इसका ध्यान।
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रह चिरदिन तू हरी-भरी,
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बढ़, सुख से बढ़ सृष्टि-सुन्दरी!
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सुध प्रियतम की मिले मुझे,
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फल जन-दीवन-दान का तुझे।
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निरख सखी ये खंजन आये।  
 
निरख सखी ये खंजन आये।  
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स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये,  
 
स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये,  
 
नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये  ॥३॥   
 
नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये  ॥३॥   
 
शिशिर, न फिर गिरि वन में।
 
जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में।
 
कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में, 
 
सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में।
 
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में,
 
तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में।
 
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में,
 
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में  ॥४॥ 
 
 
यही आता है इस मन में।
 
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।
 
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
 
व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।
 
हर्ष डूबा हो रोदन में,
 
यही आता है इस मन में,
 
बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
 
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट।
 
रहें रत वे निज साधन में,
 
यही आता है इस मन में।
 
जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,
 
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात। 
 
प्रेम की ही जय जीवन में,
 
यही आता है इस मन में  ॥५॥ 
 
  
 
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17:51, 7 फ़रवरी 2010 का अवतरण

तम में तू भी कम नहीं, जी, जुगनू, बड़भाग,
भवन भवन में दीप हैं, जा, वन वन में जाग।

हा! वह सुहृदयता भी क्रीड़ा में है कठोरता जड़िता,
तड़प तड़प उठती है स्वजनि, घनालिंगिता तड़िता!

गाढ़ तिमिर की बाढ़ में डूब रही सब सृष्टि,
मानों चक्कर में पड़ी चकराती है दृष्टि।

लाईं सखि, मालिनें थीं डाली उस वार जब,
जम्बूफल जीजी ने लिये थे, तुझे याद है?
मैं ने थे रसाल लिये, देवर खड़े थे पास,
हँस कर बोल उठे--’निज निज स्वाद है!’
मैं ने कहा--’रसिक, तुम्हारी रुचि काहे पर?’
बोले--’देवि, दोनों ओर मेरा रस-वाद है,
दोनों का प्रसाद-भागी हूँ मैं’ हाय! आली आज
विधि के प्रमाद से विनोद भी विषाद है!
निचोड़ पृथ्वी पर वृष्टि-पानी,
सुखा विचित्राम्बर सृष्टिरानी!
तथापि क्या मानस रिक्त मेरा?
बना अभी अंचल सिक्त मेरा।
सखि, छिन धूप और छिन छाया,
यह सब चौमासे की माया!
गया श्वास फिर भी यदि आया,
तो सजीव है कृश भी काया।
हमने उसको रोक न पाया,
तो निज दर्शन-योग-गमाया।
ले लो, दैव जहाँ जो लाया।
यह सब चौमासे की माया!

पथ तक जकड़े हैं झाड़ियाँ डाल घेरा,
उपवन वन-सा हा! हो गया आज मेरा।
प्रियतम वनचारी गेह में भी रहेंगे,
कह सखि, मुझसे वे लौट के क्या कहेंगे?

करें परिष्कृत मालिनें आली, यह उद्यान;
करते होंगे गहन में प्रियतम इसका ध्यान।

रह चिरदिन तू हरी-भरी,
बढ़, सुख से बढ़ सृष्टि-सुन्दरी!
सुध प्रियतम की मिले मुझे,
फल जन-दीवन-दान का तुझे।




निरख सखी ये खंजन आये।
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये।
फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये,
घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये।
कर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काये,
फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये।
स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये,
नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये ॥३॥