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"तुम्हें जानना / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर
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14:33, 10 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
जितना ही जानता जाता हूँ तुम्हें
उतना ही चढ़ता जाता है प्रेम
उतनी ही कठिन होती जाती
जिन्दगी की राह
चट्टानों को फोड़कर
एकांत में बहता
पानी का सोता
याद आता है
जितना ही जानता जाता हूं, तुम्हें
उतना ही जेय लगने लगता है समय
दुख उतना ही उर्वर
जीवन उतना ही अर्थमय
सुंदरता के कई अनकहे अर्थ
खुलने लगते हैं
और मन विस्मित रह जाता है
एक संकल्प आंखें खोलता है
यह राह कठिन
नई शक्ति दे जाती है पावों को !