"ऐसे लौटता है प्यार / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२ |संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खि…) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} | ||
<Poem> | <Poem> | ||
+ | दूर तक छाये कुहासे में डूबी | ||
+ | पहाड़ियों का एक दृश्य | ||
+ | बार-बार फैलता है | ||
+ | बार-बार सागौन के दरख़्तों को झिंझोड़ती | ||
+ | चैत्र की हवा | ||
+ | निर्जन मैदानों में डाक देती है | ||
+ | देखो तो लौट आई है यह नदी | ||
+ | जिसके पानी पर | ||
+ | तुम्हारे चेहरे की छाया है | ||
+ | |||
+ | अपनी जड़ों से उन्मूलित लोगों तक | ||
+ | इसी तरह पहुँचता है प्यार | ||
+ | घाटियों, मैदानों, घने वनों कों पार करता | ||
+ | शहरों की तंग गलियों | ||
+ | रोशनी में डूबे कोलाहल के पार | ||
+ | लौटता है प्यार | ||
+ | एक नदी का | ||
+ | एक सूनी-सी पगडंडी का | ||
+ | और वसंत के विस्मय में डूबी | ||
+ | एक किशोरी का | ||
+ | |||
+ | एक शाम आती है | ||
+ | सिंदूरी रंग के डूब रहे सूरज की यादें लेकर | ||
+ | खपरैलों के ऊपर से उठता धुंआ | ||
+ | डूब रहा है पसरते अंधेरे में | ||
+ | एक घर के उढ़के किवाड़ों के पीछे | ||
+ | एक लड़की बैठी है | ||
+ | किसी ख़याल में खोई | ||
+ | |||
+ | लौटता है बारिश का तेज़ झकोरा | ||
+ | दूर तक भीगे वनों का सन्नाटा टूटता है | ||
+ | एक गीत से | ||
+ | |||
+ | बीते कितने बरसों में | ||
+ | मेरी याद में जिंदा रही है | ||
+ | वह नदी, पगडंडी, जंगली लतरें | ||
+ | अवसाद में डूबी शाम | ||
+ | जानता हूँ - | ||
+ | इतने बरसों में | ||
+ | तुम्हारी काया ने | ||
+ | इस सबका वैभव पाया होगा | ||
+ | |||
+ | कल्पना में चूमता हूँ तुम्हारे अंग | ||
+ | मेरी बांहों में तुम्हारी देह नहीं | ||
+ | समूचा एक वन-प्रांतर है | ||
+ | उसकी वह आदम-गंध | ||
+ | एक नदी, एक पगडंडी | ||
+ | एक निर्जन मैदान | ||
+ | एक नामहीन | ||
+ | फूल | ||
+ | एक शाम है ! | ||
+ | </poem> |
16:05, 10 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण
दूर तक छाये कुहासे में डूबी
पहाड़ियों का एक दृश्य
बार-बार फैलता है
बार-बार सागौन के दरख़्तों को झिंझोड़ती
चैत्र की हवा
निर्जन मैदानों में डाक देती है
देखो तो लौट आई है यह नदी
जिसके पानी पर
तुम्हारे चेहरे की छाया है
अपनी जड़ों से उन्मूलित लोगों तक
इसी तरह पहुँचता है प्यार
घाटियों, मैदानों, घने वनों कों पार करता
शहरों की तंग गलियों
रोशनी में डूबे कोलाहल के पार
लौटता है प्यार
एक नदी का
एक सूनी-सी पगडंडी का
और वसंत के विस्मय में डूबी
एक किशोरी का
एक शाम आती है
सिंदूरी रंग के डूब रहे सूरज की यादें लेकर
खपरैलों के ऊपर से उठता धुंआ
डूब रहा है पसरते अंधेरे में
एक घर के उढ़के किवाड़ों के पीछे
एक लड़की बैठी है
किसी ख़याल में खोई
लौटता है बारिश का तेज़ झकोरा
दूर तक भीगे वनों का सन्नाटा टूटता है
एक गीत से
बीते कितने बरसों में
मेरी याद में जिंदा रही है
वह नदी, पगडंडी, जंगली लतरें
अवसाद में डूबी शाम
जानता हूँ -
इतने बरसों में
तुम्हारी काया ने
इस सबका वैभव पाया होगा
कल्पना में चूमता हूँ तुम्हारे अंग
मेरी बांहों में तुम्हारी देह नहीं
समूचा एक वन-प्रांतर है
उसकी वह आदम-गंध
एक नदी, एक पगडंडी
एक निर्जन मैदान
एक नामहीन
फूल
एक शाम है !