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"धरती एक बार फिर अनन्त हो गयी है! / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

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जहाँ भी हो तुम
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तुम तक पहुंचे यह मेरा शब्द
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बारिश, हवा, तूफान, जंगल, मैदान, पर्वत
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पार करता
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जादू की दीवारों के पार
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सोने के पहाड़ों के पार
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समय के अंतरालों को लांघता
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आंसू बनकर, प्रेम बनकर,चुंबन बनकर
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गीत बनकर, स्पर्श बनकर
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पहुंचे यह तुम तक
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विंध्य के वन-प्रांतर में
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गंगा के कछारों पर
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जहां भी हो तुम
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मैंने गाए तुम्हारी भव्यता के गान
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मैं रोया तुम्हारे लिये
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धरती के कितने मौसम बिछा दिए
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तुम्हारी अगवानी में
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हर मोड़ पर तुम ओझल होती रहीं
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कभी किसी नगर की गलियों में
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कभी किसी सूनी पगडंडी पर
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किसी ख़ामोश झील के किनारे मायावी रात में
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कभी विंध्य के उदास गांव के खेतों के पार
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मालवा के पठारों पर
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अवध के मैदानों में
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यमुना के रेतीले कछार पर
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हवा में उड़े तुम्हारे सिंदरी आंचल की झलक
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तुम्हारा धानी लिबास दिखता रहा
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तुम्हारे पैरों की थाम गूंजती रही
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बांसों के वन से गुज़रती हवा के पंखॊं पर
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लदी मिली तुम्हारी खनकती हंसी
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वे बोल कहां नहीं बिखरे मिले
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किस गली, किस गांव में नहीं  ?
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हर बार लगा बस छूने भर की दूरी पर हो तुम
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मैंने छुआ है तुम्हें
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भावना की कितनी गहरी लहरों से
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चूमे तुम्हारे पांव
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तुम्हारे केशों ने वसंत बिखरा दिया
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खेतों में, मैदानों में
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विरानों में ...
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हर जगह वसंत की आहट थी
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उन्हीं वसंत के फूलों को मैंने गूंथा
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और दिशाओं के हरकारे
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ले गये उन्हें
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मिट्टी के पास, पानी के पास, हवा के पास
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चट्टानों पर, दरख़्तों पर
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बादलों पर ...
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मैंने प्रेम किया तुमसे
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तुम्हें सौगात में दी एक नदी
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तुमने मुझे लहरें दीं
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मैंने तुम्हें दिशायें
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तुमने मुझे तारे
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मैंने तुम्हें दी यह धरती
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तुमने मुझे पूरी आकाशगंगा
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यह कैसी प्रेमकथा थी
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कौन-सी दुनिया में घटती हुई ?
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कभी लगता कि यह कौन-सा स्वप्न है
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जिसमें छायाओं की तरह तुम आती-जाती हो ?
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यह कौन-सा यथार्थ जिसमें
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सपनों की तरह तुम दिखती-ओझल होती, इशारे करती
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ख्वाब की उन्हीं महीन डोरियों पर चलती
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चेतना में समा जाती हो
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तुम जो इतिहास की कंटीली बाड़ें लांघती
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संपत्ति की जंजीरों को तोड़कर
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उन्मुक्त एक व्यक्ति
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एक प्रतिमा गढ़ रही हो मुझमे
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खुद की
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धरती एक बार फिर अनंत हो गई है..
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कितनी राहें हैं
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कितनी फ़सलों से गुजरती
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धान के हरियाले खेतों पर झूमती हरियाली के बीच
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यह तुम
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कितने युगों को पार कर
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कितनी सदियों के मुहाने चल कर
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लो यह मेरे शब्द
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तुम्हें चूमते हैं
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दुलराते हैं तुम्हारा हर अंग
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तुम हंसती हो
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दर्द से, भावना से, लदी इस हंसी में
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कितना वैभव है ।
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16:56, 10 फ़रवरी 2010 के समय का अवतरण

जहाँ भी हो तुम
तुम तक पहुंचे यह मेरा शब्द
बारिश, हवा, तूफान, जंगल, मैदान, पर्वत
पार करता
जादू की दीवारों के पार
सोने के पहाड़ों के पार
समय के अंतरालों को लांघता
आंसू बनकर, प्रेम बनकर,चुंबन बनकर
गीत बनकर, स्पर्श बनकर
पहुंचे यह तुम तक
विंध्य के वन-प्रांतर में
गंगा के कछारों पर
जहां भी हो तुम

मैंने गाए तुम्हारी भव्यता के गान
मैं रोया तुम्हारे लिये
धरती के कितने मौसम बिछा दिए
तुम्हारी अगवानी में

हर मोड़ पर तुम ओझल होती रहीं

कभी किसी नगर की गलियों में
कभी किसी सूनी पगडंडी पर
किसी ख़ामोश झील के किनारे मायावी रात में
कभी विंध्य के उदास गांव के खेतों के पार
मालवा के पठारों पर
अवध के मैदानों में
यमुना के रेतीले कछार पर
हवा में उड़े तुम्हारे सिंदरी आंचल की झलक
तुम्हारा धानी लिबास दिखता रहा
तुम्हारे पैरों की थाम गूंजती रही

बांसों के वन से गुज़रती हवा के पंखॊं पर
लदी मिली तुम्हारी खनकती हंसी
वे बोल कहां नहीं बिखरे मिले
किस गली, किस गांव में नहीं  ?

हर बार लगा बस छूने भर की दूरी पर हो तुम
मैंने छुआ है तुम्हें
भावना की कितनी गहरी लहरों से
चूमे तुम्हारे पांव
तुम्हारे केशों ने वसंत बिखरा दिया
खेतों में, मैदानों में
विरानों में ...
हर जगह वसंत की आहट थी

उन्हीं वसंत के फूलों को मैंने गूंथा
और दिशाओं के हरकारे
ले गये उन्हें
मिट्टी के पास, पानी के पास, हवा के पास
चट्टानों पर, दरख़्तों पर
बादलों पर ...

मैंने प्रेम किया तुमसे
तुम्हें सौगात में दी एक नदी
तुमने मुझे लहरें दीं
मैंने तुम्हें दिशायें
तुमने मुझे तारे
मैंने तुम्हें दी यह धरती
तुमने मुझे पूरी आकाशगंगा

यह कैसी प्रेमकथा थी
कौन-सी दुनिया में घटती हुई ?

कभी लगता कि यह कौन-सा स्वप्न है
जिसमें छायाओं की तरह तुम आती-जाती हो ?

यह कौन-सा यथार्थ जिसमें
सपनों की तरह तुम दिखती-ओझल होती, इशारे करती
ख्वाब की उन्हीं महीन डोरियों पर चलती
चेतना में समा जाती हो

तुम जो इतिहास की कंटीली बाड़ें लांघती
संपत्ति की जंजीरों को तोड़कर
उन्मुक्त एक व्यक्ति
एक प्रतिमा गढ़ रही हो मुझमे
खुद की

धरती एक बार फिर अनंत हो गई है..

कितनी राहें हैं
कितनी फ़सलों से गुजरती
धान के हरियाले खेतों पर झूमती हरियाली के बीच

यह तुम
कितने युगों को पार कर
कितनी सदियों के मुहाने चल कर
लो यह मेरे शब्द
तुम्हें चूमते हैं
दुलराते हैं तुम्हारा हर अंग
तुम हंसती हो
दर्द से, भावना से, लदी इस हंसी में
कितना वैभव है ।