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"वसंत के इस निर्जन में / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

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मन का सौंदर्य नष्त नहीं होता
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बह जाई हैं कितनी नदियाँ
 
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कितने पर्वत-शिखरों से होकर
 
कितने पर्वत-शिखरों से होकर

16:37, 12 फ़रवरी 2010 का अवतरण

मन का सौंदर्य नष्ट नहीं होता
बह जाई हैं कितनी नदियाँ
कितने पर्वत-शिखरों से होकर
कितनी ऋतुएं
झरते पत्तों
रसमाते फूलों से होकर

पर मिटती नहीं मन से
सौंदर्य की छापें
कोमलता के बिम्ब
धूसर नहीं होते

प्रेम का पहला गीत
किसी वसंत के निर्जन में
गूंजता रहता है
अविराम !