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00:47, 2 मार्च 2010 का अवतरण
हर ओर क्षितिज कि सड़क
गाढ़े कोलतार से ढँक जाती है
चलना दुश्वार हो जाता है
सारे मतभेद अस्तित्व खो देते हैं
दिमाग गहरे नशे में डूब जाते हैं
तब आनेवाली सुबह कि सजावट के लिए
मैं काली रात में घर से निकलता हूँ
इन घंटों में मन में अजीब सा
चैन फैल जाता है
संसार अपनी सीमाएं सिकोड़ लेता है
और जितनी छोटी सीमाएं होती हैं
उतना ही गहरा सुकून
इसलिए काम के अलावा कोई धुन
परेशान नहीं कर पाती
सुबह के तीन और चार के बीच
नींद सहनशक्ति को चुनौती देती है
तब सड़कों का गोरखा चौकीदार भी
हार मान जाता है
लेकिन मैं हार नहीं मानता
खेलता हूँ पूरा दांव
अलसुबह सूरज नई सुबह लिए
घर लौटता है
मैं घर लौटता हूँ
बदन में शाम लिए
मेरी चेतना पर अँधेरा घिर आता है
सूरज कि रोशनी से सराबोर कोलाहल के बीच
जब मैं सो जाता हूँ
अक्सर रात कि सुहानी नींदों का ख्वाब
देखता हूँ.