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"की वफ़ा हमसे तो ग़ैर उसे जफ़ा कहते हैं / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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<poem>की वफ़ा हमसे तो ग़ैर उसे जफ़ा कहते हैं
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होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं
  
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आज हम अपनी परीशानी-ए-ख़ातिर<ref>मन की परेशानी</ref> उनसे
होती आई है के अच्छों को बुरा कहते हैं <br><br>
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कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं  
  
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अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
कहने जाते तो हैं, पर देखिये क्या कहते हैं <br><br>
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दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्सत ग़म से
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और फिर कौन-से नाले को रसा<ref>प्रभावित करने वाला</ref> कहते हैं
  
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इक शरर दिल में है उससे कोई घबरायेगा क्या
ख़ार-ए-राह को तेरे हम मेह्र-ए-गिया कहते हैं <br><br>
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इक शरर दिल में है, उस से कोई घबरायेगा क्या <br>
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आग मतलूब है हमको, जो हवा कहते हैं <br><br>
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उसकी हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं  
  
देखिये लाती है उस शोख़ की नख़्वत क्या रंग <br>
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वहशत-ओ-शेफ़्ता अब मर्सिया कहवें शायद  
उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं <br><br>
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वहशत-ओ-शेफ़्ता अब मर्सिया कहें शायद <br>
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मर गया "ग़लिब"-ए-आशुफ़्तानवा कहते हैं<br><br>
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10:51, 2 मार्च 2010 का अवतरण

की वफ़ा हमसे तो ग़ैर उसे जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं

आज हम अपनी परीशानी-ए-ख़ातिर<ref>मन की परेशानी</ref> उनसे
कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं

अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
जो मै-ओ-नग़्मा<ref>शराब और संगीत</ref> को अ़न्दोहरूबा<ref>दुःख-दर्द हरने वाला</ref> कहते हैं

दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्सत ग़म से
और फिर कौन-से नाले को रसा<ref>प्रभावित करने वाला</ref> कहते हैं

है परे सरहदे-इदराक<ref>समझ की सीमा</ref> से अपना मस्जूद<ref>सिजदे का पात्र</ref>
क़िबले<ref>काबा</ref> को अहल-ए-नज़र क़िबलानुमा<ref>दिग्दर्शक यंत्र</ref> कहते हैं

पाए-अफ़गार<ref>पांव के घाव</ref> पे जब से तुझे रहम आया है
ख़ार-ए-रह<ref>मार्ग का कांटा</ref> को तेरे हम मेहर-गिया<ref>एक प्रकार की घास</ref> कहते हैं

इक शरर दिल में है उससे कोई घबरायेगा क्या
आग मतलूब है हमको जो हवा कहते हैं

देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत<ref>घमण्ड</ref> क्या रंग
उसकी हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं

वहशत-ओ-शेफ़्ता अब मर्सिया कहवें शायद
मर गया ग़ालिब-ए-आशुफ़्ता-नवा<ref>दुःखपूर्ण काव्य कहने वाला ग़ालिब</ref> कहते हैं

शब्दार्थ
<references/>