"हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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− | + | जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा | |
− | + | कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है | |
− | + | रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल | |
− | + | जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है | |
− | + | वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़ | |
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− | + | पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार | |
− | + | ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू<ref>बोतल, प्याला, मधु-पात्र और मधु-कलश</ref> क्या है | |
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08:16, 3 मार्च 2010 का अवतरण
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
न शो'ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ीए-अ़दू<ref>दुश्मन के सिखाने-पढ़ाने का डर</ref> क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू<ref>सुगंधित शराब</ref> क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू<ref>बोतल, प्याला, मधु-पात्र और मधु-कलश</ref> क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
हुआ है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है