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"ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया <br>
 
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वरना हम भी आदमी थे काम के<br><br>
 
वरना हम भी आदमी थे काम के<br><br>

08:24, 3 मार्च 2010 का अवतरण

ग़ैर ले महफ़िल में, बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा, कि ये
हथकंडे हैं चर्ख़-ए-नीली फाम के

ख़त लिखेंगे, गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी ज़मज़म पे मय और सुबह दम
धोए धब्बे जाम-ए-अहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेहत को ख़बर
देखिये, कब दिन फिरें हम्माम के

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के