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"नहीं कि मुझ को क़यामत का ऐतिक़ाद नहीं / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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नहीं कि मुझको क़यामत का एतिक़ाद नहीं <br>
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अलावा ईद के मिलती है और दिन भी शराब <br>
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जहाँ में हो ग़म-ओ-शादी बहम, हमें क्या काम <br>
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जहां में हो ग़म-ओ-शादी बहम, हमें क्या काम  
दिया है हमको ख़ुदा ने वो दिल के शाद नहीं <br><br>
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दिया है हमको ख़ुदा ने वो दिल के शाद नहीं  
  
तुम उन के वादे ज़िक्र उन से क्यूँ करो "ग़ालिब" <br>
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तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यों करो "ग़ालिब"  
ये क्या के तुम कहो और वो कहें के याद नहीं <br><br>
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ये क्या कि तुम कहो, और वो कहें के याद नहीं</poem>
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09:08, 5 मार्च 2010 के समय का अवतरण

नहीं, कि मुझको क़यामत का एतिक़ाद<ref>विश्वास</ref> नहीं
शब-ए-फ़िराक़<ref>वियोग की रात</ref> से रोज़-ए-जज़ा<ref>क़यामत का दिन</ref> ज़ियाद<ref>अधिक</ref> नहीं

कोई कहें कि शब-ए-मह<ref>चाँदनी रात</ref> में क्या बुराई है
बला से, आज अगर दिन को अब्र-ओ-बाद<ref>घटाएं और हवाएं</ref> नहीं

जो आऊँ सामने उनके, तो मरहबा<ref>शुभ-आगमन</ref> न कहें
जो जाऊँ वां से कहीं को तो ख़ैरबाद नहीं

कभी जो याद भी आता हूँ मैं तो कहते हैं
कि आज बज़्म में कुछ फ़ित्ना-ओ-फ़साद नहीं

अलावा ईद के मिलती है और दिन भी शराब
गदा<ref>भिखारी</ref>-ए-कूचा-ए-मैख़ाना नामुराद नहीं

जहां में हो ग़म-ओ-शादी बहम, हमें क्या काम
दिया है हमको ख़ुदा ने वो दिल के शाद नहीं

तुम उनके वादे का ज़िक्र उनसे क्यों करो "ग़ालिब"
ये क्या कि तुम कहो, और वो कहें के याद नहीं

शब्दार्थ
<references/>