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"मृत्यु-2 / ओसिप मंदेलश्ताम" के अवतरणों में अंतर

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गीली धरती की सहोदरा, उसका एक ही काम
 
गीली धरती की सहोदरा, उसका एक ही काम
 
 
रुदन यहाँ होता रहे, हर दिन सुबह-शाम
 
रुदन यहाँ होता रहे, हर दिन सुबह-शाम
 
  
 
रात-दिन जीवित लोगों का करती वह शिकार
 
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मृतकों के स्वागत में खोले मृत्युलोक के द्वार
 
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स्त्री वह ऎसी इत्वरी<ref>अभिसारिका</ref> कि उससे प्रेम अपराध
स्त्री वह ऎसी इत्वरी कि उससे प्रेम अपराध
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जिसे जकड़ ले भुजापाश में, उसका होता श्राद्ध
 
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देश भर में फैल गए हैं, अब उसके दूत अनेक
 
देश भर में फैल गए हैं, अब उसके दूत अनेक
 
 
छवि है उनकी देवदूत की और डोम का गणवेश
 
छवि है उनकी देवदूत की और डोम का गणवेश
 
  
 
जनकल्याण की बात करें वे, वादा करें सुख का
 
जनकल्याण की बात करें वे, वादा करें सुख का
 
 
कसमसाकर रह जाता जन, ये फन्दा हैं दुख का
 
कसमसाकर रह जाता जन, ये फन्दा हैं दुख का
 
  
 
यंत्रणा देते हमें उत्पीड़क ये, उपहार में देते मौत
 
यंत्रणा देते हमें उत्पीड़क ये, उपहार में देते मौत
 
 
देश को मरघट बना रही है, जीवन की वह सौत
 
देश को मरघट बना रही है, जीवन की वह सौत
  
  
इत्वरी(हिन्दी)=अभिसारिका
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(रचनाकाल : 4 मई 1937)
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'''रचनाकाल : 4 मई 1937'''
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16:22, 5 मार्च 2010 का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: ओसिप मंदेलश्ताम  » संग्रह: सूखे होंठों की प्यास
»  मृत्यु-2

गीली धरती की सहोदरा, उसका एक ही काम
रुदन यहाँ होता रहे, हर दिन सुबह-शाम

रात-दिन जीवित लोगों का करती वह शिकार
मृतकों के स्वागत में खोले मृत्युलोक के द्वार

स्त्री वह ऎसी इत्वरी<ref>अभिसारिका</ref> कि उससे प्रेम अपराध
जिसे जकड़ ले भुजापाश में, उसका होता श्राद्ध

देश भर में फैल गए हैं, अब उसके दूत अनेक
छवि है उनकी देवदूत की और डोम का गणवेश

जनकल्याण की बात करें वे, वादा करें सुख का
कसमसाकर रह जाता जन, ये फन्दा हैं दुख का

यंत्रणा देते हमें उत्पीड़क ये, उपहार में देते मौत
देश को मरघट बना रही है, जीवन की वह सौत


शब्दार्थ
<references/>


रचनाकाल : 4 मई 1937