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"मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तिहाब में / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में  
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मैं जानता हूँ, जो वो लिखेंगे जवाब में  
  
क़ासिद के आते आते ख़त इक और लिख रखूँ <br>
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मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में <br><br>
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साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में  
  
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मैं मुज़्तरिब<ref>बेचैन</ref> हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब<ref>प्रतिद्वंदी</ref> से
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डाला है तुमको वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में
  
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मै और हज़्ज़-ए-वस्ल<ref>मिलने का खुशी</ref> ख़ुदा-साज़<ref>खुदा की देन</ref> बात है
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है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के
जाँ नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब में <br><br>
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है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में
  
है तेवरी चड़ी हुई अंदर नक़ाब के <br>
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लाखों लगाव, एक चुराना निगाह का
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लाखों लगाव, इक चुराना निगाह का <br>
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वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
लाखों बनाव, इक बिगड़ना इताब में <br><br>
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वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये <br>
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वो सेह्र मुद्दा तल्बी में न काम आये <br>
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'ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी  
जिस सेह्र से सफ़िना रवाँ हो सराब में <br><br>
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"ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी कभी <br>
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पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में<br><br>
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21:15, 5 मार्च 2010 के समय का अवतरण

मिलती है ख़ूए-यार<ref>प्रेयसी का स्वभाव</ref> से नार<ref>आग(नरक)</ref> इल्तिहाब<ref>लपट</ref> में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अ़ज़ाब<ref>दुःख</ref> में

कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में
शब-हाए-हिज्र<ref>वियोग की रातें</ref> को भी रखूँ गर हिसाब में

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अ़हद<ref>वादा</ref> कर गये आये जो ख़्वाब में

क़ासिद<ref>संदेशवाहक</ref> के आते-आते ख़त इक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ, जो वो लिखेंगे जवाब में

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

जो मुन्किर-ए-वफ़ा<ref>वफ़ा से इंकार करनेवाला</ref> हो फ़रेब उस पे क्या चले
क्यों बदगुमां हूँ दोस्त से, दुश्मन के बाब<ref>सम्बंध</ref> में

मैं मुज़्तरिब<ref>बेचैन</ref> हूँ वस्ल में ख़ौफ़-ए-रक़ीब<ref>प्रतिद्वंदी</ref> से
डाला है तुमको वह्म ने किस पेच-ओ-ताब में

मै और हज़्ज़-ए-वस्ल<ref>मिलने का खुशी</ref> ख़ुदा-साज़<ref>खुदा की देन</ref> बात है
जां नज़्र देनी भूल गया इज़्तिराब<ref>विकलता</ref> में

है तेवरी चढ़ी हुई अंदर नक़ाब के
है इक शिकन पड़ी हुई तर्फ़-ए-नक़ाब में

लाखों लगाव, एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव, एक बिगड़ना इताब<ref>गुस्सा</ref> में

वो नाला दिल में ख़स के बराबर जगह न पाये
जिस नाले से शिगाफ़ पड़े आफ़ताब<ref>सूरत</ref> में

वो सेह़र<ref>जादू-मंत्र</ref> मुद्दआ़-तलबी<ref>इच्छापूर्ती</ref> में न काम आये
जिस सेहर से सफ़ीना<ref>नाव</ref> रवां<ref>चलता</ref> हो सराब<ref>मरीचिका</ref> में

'ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्रो<ref>जिस दिन बादल छाया हो</ref>-शब-ए-माहताब<ref>चाँदनी रात</ref> में

शब्दार्थ
<references/>