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"कहाँ से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दाँ में / परवीन शाकिर" के अवतरणों में अंतर

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00:11, 7 मार्च 2010 का अवतरण

कहाँ से आती किरण ज़िंदगी के ज़िन्दाँ<ref>कारागार</ref> में
वो घर मिला था मुझे जिसमें कोई दर ही न था

बदन में फैल गया सुर्ख़ बेल की मानिंद
वो ज़ख़्म सूखता क्या जिसका चारागर<ref>चिकित्सक </ref> ही न था

हवा के लाए हुए बीज फिर हवा को गये
खिले थे फूल कुछ ऐसे कि जिनमें ज़र<ref>पुष्प रज</ref> ही न था

क़दम तो रेत पे साहिल ने भी न रखने दिया
बदन को जकड़े हुए सिर्फ़ इक भंवर ही न था

शब्दार्थ
<references/>