भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ज़फ़र / अरुण देव" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> उस कंधे पर अतीत का वै…)
 
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
विरासत की महानता भारी होती है
 
विरासत की महानता भारी होती है
  
ढहते सल्तनत के बेरंग तख़्त पर बैठ
+
ढहती सल्तनत के बेरंग तख़्त पर बैठ
 
ज़फ़र लिखने लगा था कविता
 
ज़फ़र लिखने लगा था कविता
 
वह फकीराना बादशाह क्या करता शासन के उस गद्य का
 
वह फकीराना बादशाह क्या करता शासन के उस गद्य का

21:06, 7 मार्च 2010 के समय का अवतरण

उस कंधे पर अतीत का वैभव था
अब वह एक बोझ था
झुक गए थे कंधे
विरासत की महानता भारी होती है

ढहती सल्तनत के बेरंग तख़्त पर बैठ
ज़फ़र लिखने लगा था कविता
वह फकीराना बादशाह क्या करता शासन के उस गद्य का

उसकी कविता निर्मल बहती प्रेम और करुणा के बीच
जिस पर कभी-कभी उतर आते तसव्वुफ़ के श्वेत हंस

कविता के बाहर कड़ी धूप थी
चमक रहा था पश्चिम का सूर्य
बिगड़ने लगा था दिल्ली का रंगों-रूप
क्या करते ज़ौक़, क्या हो सकता था ग़ालिब से

उस आँच की तपिश से सुलगने लगी थी दिल्ली
वह आग जो
उठ रही थी मेरठ, लखनऊ, झाँसी, कानपुर, बरेली, जगदीशपुर से

शहंशाह-ए-हिंदुस्तान
लाल किले के बाहर खड़ा था वसंत की अगवानी में

इस दुखांत महाकाव्य के अंतिम सर्ग में खड़ा वह
कितना बादशाह था कितना कवि कहना मुश्किल है

ख़िज़ा के बाद चमन में गर्दो–गुबार था
यार की गली से दूर
इंतज़ार और आरजू में कट रही थी उसकी उम्र
थी तो अब शायरी थी
नूर की तरह चमकती हुई
उसके ही कुए–यार में।