"मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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− | फिर | + | दौड़े है फिर हरेक गुल-ओ-लाला पर ख़याल |
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− | + | सर ज़रे-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबां किये हुए | |
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21:34, 8 मार्च 2010 का अवतरण
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह<ref>प्यालों की भरमार से</ref> से बज़्म-ए-चिराग़ां किये हुए
करता हूँ जमा फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त<ref>ज़िगर के टुकड़ों को</ref> को
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़गां<ref>पलकों की दावत(जो जिगर खिलाकर की जाती है)</ref> किये हुए
फिर वज़ा-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक गिरेबां किये हुए
फिर गर्म-नाला हाये-शररबार<ref>आग बरसाने वाले से आर्तनाद में लीन</ref> है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चिराग़ां<ref>दीपोत्सव की सैर</ref> किये हुए
फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल<ref>दिल के घाव का हालचाल पूछना</ref> को चला है इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार-नमकदां<ref>लाख़ों नमकदान लिए हुए</ref> किये हुए
फिर भर रहा है ख़ामा-ए-मिज़गां<ref>पलकों की लेखनी</ref> ब-ख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन-तराज़ी-ए-दामां<ref>दामन पर फूलों के चमन खिलाने का प्रबंध</ref> किये हुए
बाहमदिगर<ref>आपस में</ref> हुए हैं दिल-ओ-दीदा फिर रक़ीब
नज़्ज़ारा-ओ-ख़याल का सामां किये हुए
दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत<ref>प्रेयसी की गली(जहाँ धिक्कार मिलता है)</ref> को जाये है
पिंदार<ref>अहम</ref> का सनम-कदा<ref>देवालय</ref> वीरां किये हुए
फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
अर्ज़-ए-मताअ़ ए-अ़क़्ल-ओ-दिल-ओ-जां<ref>बुद्धी, ह्रदय और प्राणों का समर्पण</ref> किये हुए
दौड़े है फिर हरेक गुल-ओ-लाला पर ख़याल
सद-गुलसितां निगाह का सामां किये हुए
फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार<ref>प्रियतम का पत्र</ref> खोलना
जां नज़र-ए-दिलफ़रेबी-ए-उन्वां किये हुए
माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम<ref>होठों पर</ref> पर हवस<ref>तीव्र लालसा</ref>
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशां<ref>कोली ज़ुल्फ़ें चेहरे पर बिखेरे हुए</ref> किये हुए
चाहे फिर किसी को मुक़ाबिल<ref>(अपने) सामने</ref> में आरज़ू
सुर्मे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़गां<ref>पलकों की कटार</ref> किये हुए
इक नौबहार-ए-नाज़<ref>जवानी की बहार</ref> को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़ुरोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए
फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
सर ज़रे-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबां किये हुए
जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत, कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां<ref>प्रेयसी की कल्पना</ref> किये हुए
"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क<ref>आँसुओं का उबाल</ref> से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ां<ref>तूफ़ान बरपा करने का दृढ़ निश्चय</ref> किये हुए