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"मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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फिर वज़ा-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़्श्गाँ किये हुए <br><br>
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बरसों हुए हैं चाक गिरेबां किये हुए  
  
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फिर गर्म-नाला हाये-शररबार<ref>आग बरसाने वाले से आर्तनाद में लीन</ref> है नफ़स
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मुद्दत हुई है सैर-ए-चराग़ाँ किये हुए <br><br>
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फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल को चला है इश्क़ <br>
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बाहमदिगर<ref>आपस में</ref> हुए हैं दिल--दीदा फिर रक़ीब
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नज़्ज़ारा--ख़याल का सामां किये हुए  
  
बाहमदिगर हुए हैं दिल--दीदा फिर रक़ीब <br>
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दिल फिर तवाफ़--कू-ए-मलामत<ref>प्रेयसी की गली(जहाँ धिक्कार मिलता है)</ref> को जाये है
नज़्ज़ारा-ओ-ख़याल का सामाँ किये हुए <br><br>
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दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत को जाये है <br>
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फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
पिंदार का सनमकदा वीराँ किये हुए <br><br>
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फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब <br>
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दौड़े है फिर हरेक गुल-ओ-लाला पर ख़याल
अर्ज़-ए-मता-ए-अक़्ल-ओ-दिल-ओ-जाँ किये हुए <br><br>
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सदगुलसिताँ निगाह का सामाँ किये हुए <br><br>
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जां नज़र-ए-दिलफ़रेबी-ए-उन्वां किये हुए
  
फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार खोलना <br>
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माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम पर हवस <br>
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ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशाँ किये हुए <br><br>
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सुर्मे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़गां<ref>पलकों की कटार</ref> किये हुए
  
चाहे फिर किसी को मुक़ाबिल में आरज़ू <br>
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सुर्मे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़्श्गाँ किये हुए <br><br>
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इक नौबहार-ए-नाज़ को ताके है फिर निगाह <br>
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फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
चेहर फ़ुरोग़-ए-मै से गुलिस्ताँ किये हुए <br><br>
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फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें <br>
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जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत, कि रात दिन
सर ज़ेर बार-ए-मिन्नत-ए-दर्बाँ किये हुए <br><br>
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"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क<ref>आँसुओं का उबाल</ref> से
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"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क से<br>  
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बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ाँ किये हुए <br><br>
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21:34, 8 मार्च 2010 का अवतरण

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए
जोश-ए-क़दह<ref>प्यालों की भरमार से</ref> से बज़्म-ए-चिराग़ां किये हुए

करता हूँ जमा फिर जिगर-ए-लख़्त-लख़्त<ref>ज़िगर के टुकड़ों को</ref> को
अर्सा हुआ है दावत-ए-मिज़गां<ref>पलकों की दावत(जो जिगर खिलाकर की जाती है)</ref> किये हुए

फिर वज़ा-ए-एहतियात से रुकने लगा है दम
बरसों हुए हैं चाक गिरेबां किये हुए

फिर गर्म-नाला हाये-शररबार<ref>आग बरसाने वाले से आर्तनाद में लीन</ref> है नफ़स
मुद्दत हुई है सैर-ए-चिराग़ां<ref>दीपोत्सव की सैर</ref> किये हुए

फिर पुर्सिश-ए-जराहत-ए-दिल<ref>दिल के घाव का हालचाल पूछना</ref> को चला है इश्क़
सामान-ए-सद-हज़ार-नमकदां<ref>लाख़ों नमकदान लिए हुए</ref> किये हुए

फिर भर रहा है ख़ामा-ए-मिज़गां<ref>पलकों की लेखनी</ref> ब-ख़ून-ए-दिल
साज़-ए-चमन-तराज़ी-ए-दामां<ref>दामन पर फूलों के चमन खिलाने का प्रबंध</ref> किये हुए

बाहमदिगर<ref>आपस में</ref> हुए हैं दिल-ओ-दीदा फिर रक़ीब
नज़्ज़ारा-ओ-ख़याल का सामां किये हुए

दिल फिर तवाफ़-ए-कू-ए-मलामत<ref>प्रेयसी की गली(जहाँ धिक्कार मिलता है)</ref> को जाये है
पिंदार<ref>अहम</ref> का सनम-कदा<ref>देवालय</ref> वीरां किये हुए

फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
अर्ज़-ए-मताअ़ ए-अ़क़्ल-ओ-दिल-ओ-जां<ref>बुद्धी, ह्रदय और प्राणों का समर्पण</ref> किये हुए

दौड़े है फिर हरेक गुल-ओ-लाला पर ख़याल
सद-गुलसितां निगाह का सामां किये हुए

फिर चाहता हूँ नामा-ए-दिलदार<ref>प्रियतम का पत्र</ref> खोलना
जां नज़र-ए-दिलफ़रेबी-ए-उन्वां किये हुए

माँगे है फिर किसी को लब-ए-बाम<ref>होठों पर</ref> पर हवस<ref>तीव्र लालसा</ref>
ज़ुल्फ़-ए-सियाह रुख़ पे परेशां<ref>कोली ज़ुल्फ़ें चेहरे पर बिखेरे हुए</ref> किये हुए

चाहे फिर किसी को मुक़ाबिल<ref>(अपने) सामने</ref> में आरज़ू
सुर्मे से तेज़ दश्ना-ए-मिज़गां<ref>पलकों की कटार</ref> किये हुए

इक नौबहार-ए-नाज़<ref>जवानी की बहार</ref> को ताके है फिर निगाह
चेहरा फ़ुरोग़-ए-मै से गुलिस्तां किये हुए

फिर जी में है कि दर पे किसी के पड़े रहें
सर ज़रे-बार-ए-मिन्नत-ए-दरबां किये हुए

जी ढूँढता है फिर वही फ़ुर्सत, कि रात दिन
बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानां<ref>प्रेयसी की कल्पना</ref> किये हुए

"ग़ालिब" हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए-अश्क<ref>आँसुओं का उबाल</ref> से
बैठे हैं हम तहय्या-ए-तूफ़ां<ref>तूफ़ान बरपा करने का दृढ़ निश्चय</ref> किये हुए

शब्दार्थ
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