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मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां उर्फ “'''ग़ालिब'''” (27 दिसंबर 1796 – 15 फरवरी 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। | मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां उर्फ “'''ग़ालिब'''” (27 दिसंबर 1796 – 15 फरवरी 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। | ||
− | सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, लेकिन | + | सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, लेकिन उफ़ुक़ पर थोड़ी- सी लाली। यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी, दिल्ली की तारीख़ी इमारतें। पुराने खण्डरात। सर्दियों की धुंध - कोहरा - ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला - हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद।<br> |
− | एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान - एक मेहराब का टूटा सा कोना -<br> | + | एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान - एक मेहराब का टूटा-सा कोना -<br> |
− | दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे। | + | दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे। डेवढ़ी पर बँधी एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ - धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश। पान वाले की बंद दुकान के पास दीवारों पर पान की पीक के छींटे। यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी। उन्हीं तस्वीरों पर एक आवाज़ उभरती है -<br> |
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गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा<br> | गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा<br> | ||
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एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !<br> | एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !<br> | ||
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे<br> | और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे<br> | ||
− | ऐसे दीवारों से मुँह | + | ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ<br> |
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− | इसी बेनूर अँधेरी सी गली क़ासिम से<br> | + | इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से<br> |
− | एक तरतीब | + | एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है<br> |
− | एक | + | एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हाखुलता है <br> |
− | असद उल्लाह | + | असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब' का पता मिलता है'''- गुलज़ार''' <br> |
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== |
12:44, 13 मार्च 2010 का अवतरण
“हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़े-बयाँ और”
मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां उर्फ “ग़ालिब” (27 दिसंबर 1796 – 15 फरवरी 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे।
सुबह का झटपटा, चारों तरफ़ अँधेरा, लेकिन उफ़ुक़ पर थोड़ी- सी लाली। यह क़िस्सा दिल्ली का, सन १८६७ ईसवी, दिल्ली की तारीख़ी इमारतें। पुराने खण्डरात। सर्दियों की धुंध - कोहरा - ख़ानदान - तैमूरिया की निशानी लाल क़िला - हुमायूँ का मकबरा - जामा मस्जिद।
एक नीम तारीक कूँचा, गली क़ासिम जान - एक मेहराब का टूटा-सा कोना -
दरवाज़ों पर लटके टाट के बोसीदा परदे। डेवढ़ी पर बँधी एक बकरी के मिमियाने की आवाज़ - धुंधलके से झाँकते एक मस्जिद के नकूश। पान वाले की बंद दुकान के पास दीवारों पर पान की पीक के छींटे। यही वह गली थी जहाँ ग़ालिब की रिहाइश थी। उन्हीं तस्वीरों पर एक आवाज़ उभरती है -
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा-से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हाखुलता है
असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब' का पता मिलता है- गुलज़ार
जीवन परिचय
जन्म और परिवार
ग़ालिब का जन्म आगरा मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था । उन्होने अपने पिता और चाचा को बचपन मे ही खो दिया था, ग़ालिब का जिवनयापन मुलत: अपने चाचा के मरनोपरांत मिलने वाले पेंशन से होता था (वो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी मे सैन्य अधिकारी थे) ।
शिक्षा
ग़ालिब की प्रारम्भिक शिक्षा के बारे मे स्पष्टतः कुछ कहाँ नहीं जा सकता लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होने 12 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी मे गद्य तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिया था ।
वैवाहिक जीवन
13 वर्ष की आयु मे उनका विवाह हो गया था । विवाह के बाद वह दिल्ली आ गये थे जहाँ उनकि तमाम उम्र बिती । अपने पेंशन के सिलसिले मे उन्हें कोलकाता कि लम्बी यत्रा भी करनी परी थी, जिसका जिक्र उनकी गजलो मे जगह – जगह पर मिलता है ।