"आशा / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
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शुष्क डालियों से वृक्षों की | शुष्क डालियों से वृक्षों की | ||
− | अग्नि-अर्चिया हुई समृद्ध। | + | अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध। |
+ | |||
+ | आहुति के नव धूमगंध से | ||
+ | |||
+ | नभ-कानन हो गया समृद्ध। | ||
+ | |||
और सोचकर अपने मन में | और सोचकर अपने मन में | ||
"जैसे हम हैं बचे हुए- | "जैसे हम हैं बचे हुए- | ||
− | |||
क्या आश्चर्य और कोई हो | क्या आश्चर्य और कोई हो | ||
जीवन-लीला रचे हुए," | जीवन-लीला रचे हुए," | ||
+ | |||
अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ | अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ | ||
कहीं दूर रख आते थे, | कहीं दूर रख आते थे, | ||
− | |||
होगा इससे तृप्त अपरिचित | होगा इससे तृप्त अपरिचित | ||
समझ सहज सुख पाते थे। | समझ सहज सुख पाते थे। | ||
+ | |||
दुख का गहन पाठ पढ़कर | दुख का गहन पाठ पढ़कर | ||
अब सहानुभूति समझते थे, | अब सहानुभूति समझते थे, | ||
− | |||
नीरवता की गहराई में | नीरवता की गहराई में | ||
मग्न अकेले रहते थे। | मग्न अकेले रहते थे। | ||
+ | |||
मनन किया करते वे बैठे | मनन किया करते वे बैठे | ||
ज्वलित अग्नि के पास वहाँ, | ज्वलित अग्नि के पास वहाँ, | ||
− | |||
एक सजीव, तपस्या जैसे | एक सजीव, तपस्या जैसे | ||
पतझड़ में कर वास रहा। | पतझड़ में कर वास रहा। | ||
+ | |||
फिर भी धड़कन कभी हृदय में | फिर भी धड़कन कभी हृदय में | ||
होती चिंता कभी नवीन, | होती चिंता कभी नवीन, | ||
− | |||
यों ही लगा बीतने उनका | यों ही लगा बीतने उनका | ||
जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन। | जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन। | ||
+ | |||
प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे | प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे | ||
अंधकार की माया में, | अंधकार की माया में, | ||
− | |||
रंग बदलते जो पल-पल में | रंग बदलते जो पल-पल में | ||
उस विराट की छाया में। | उस विराट की छाया में। | ||
+ | |||
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते | अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते | ||
प्रकृति सकर्मक रही समस्त, | प्रकृति सकर्मक रही समस्त, | ||
− | |||
निज अस्तित्व बना रखने में | निज अस्तित्व बना रखने में | ||
जीवन हुआ था व्यस्त। | जीवन हुआ था व्यस्त। | ||
+ | |||
तप में निरत हुए मनु, | तप में निरत हुए मनु, | ||
नियमित-कर्म लगे अपना करने, | नियमित-कर्म लगे अपना करने, | ||
− | |||
विश्वरंग में कर्मजाल के | विश्वरंग में कर्मजाल के | ||
सूत्र लगे घन हो घिरने। | सूत्र लगे घन हो घिरने। | ||
+ | |||
उस एकांत नियति-शासन में | उस एकांत नियति-शासन में | ||
चले विवश धीरे-धीरे, | चले विवश धीरे-धीरे, | ||
− | |||
एक शांत स्पंदन लहरों का | एक शांत स्पंदन लहरों का | ||
होता ज्यों सागर-तीरे। | होता ज्यों सागर-तीरे। | ||
+ | |||
विजन जगत की तंद्रा में | विजन जगत की तंद्रा में | ||
तब चलता था सूना सपना, | तब चलता था सूना सपना, | ||
− | |||
ग्रह-पथ के आलोक-वृत से | ग्रह-पथ के आलोक-वृत से | ||
काल जाल तनता अपना। | काल जाल तनता अपना। | ||
+ | |||
प्रहर, दिवस, रजनी आती थी | प्रहर, दिवस, रजनी आती थी | ||
− | चल-जाती संदेश- | + | चल-जाती संदेश-विहीन, |
− | + | ||
एक विरागपूर्ण संसृति में | एक विरागपूर्ण संसृति में | ||
ज्यों निष्फल आंरभ नवीन। | ज्यों निष्फल आंरभ नवीन। | ||
+ | |||
धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित | धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित | ||
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सुंदर स्वच्छ निशीथ, | सुंदर स्वच्छ निशीथ, | ||
− | + | जिसमें शीतल पावन गा रहा | |
− | जिसमें शीतल पावन गा | + | |
पुलकित हो पावन उद्गगीथ। | पुलकित हो पावन उद्गगीथ। | ||
+ | |||
नीचे दूर-दूर विस्तृत था | नीचे दूर-दूर विस्तृत था | ||
उर्मिल सागर व्यथित, अधीर | उर्मिल सागर व्यथित, अधीर | ||
− | |||
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा | अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा | ||
चंद्रिका-निधि गंभीर। | चंद्रिका-निधि गंभीर। | ||
+ | |||
खुलीं उस रमणीय दृश्य में | खुलीं उस रमणीय दृश्य में | ||
− | + | अलस चेतना की आँखे, | |
− | + | हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक | |
− | हृदय-कुसुम की | + | |
मधु से वे भीगी पाँखे। | मधु से वे भीगी पाँखे। | ||
+ | |||
व्यक्त नील में चल प्रकाश का | व्यक्त नील में चल प्रकाश का | ||
कंपन सुख बन बजता था, | कंपन सुख बन बजता था, | ||
− | |||
एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का | एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का | ||
मधुर रहस्य उलझता था। | मधुर रहस्य उलझता था। | ||
+ | |||
नव हो जगी अनादि वासना | नव हो जगी अनादि वासना | ||
मधुर प्राकृतिक भूख-समान, | मधुर प्राकृतिक भूख-समान, | ||
− | |||
चिर-परिचित-सा चाह रहा था | चिर-परिचित-सा चाह रहा था | ||
द्वंद्व सुखद करके अनुमान। | द्वंद्व सुखद करके अनुमान। | ||
+ | |||
दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण की | दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण की | ||
बाला का अक्षय श्रृंगार, | बाला का अक्षय श्रृंगार, | ||
− | |||
मिलन लगा हँसने जीवन के | मिलन लगा हँसने जीवन के | ||
उर्मिल सागर के उस पार। | उर्मिल सागर के उस पार। | ||
+ | |||
तप से संयम का संचित बल, | तप से संयम का संचित बल, | ||
तृषित और व्याकुल था आज- | तृषित और व्याकुल था आज- | ||
− | |||
अट्टाहास कर उठा रिक्त का | अट्टाहास कर उठा रिक्त का | ||
वह अधीर-तम-सूना राज। | वह अधीर-तम-सूना राज। | ||
+ | |||
धीर-समीर-परस से पुलकित | धीर-समीर-परस से पुलकित | ||
विकल हो चला श्रांत-शरीर, | विकल हो चला श्रांत-शरीर, | ||
− | |||
आशा की उलझी अलकों से | आशा की उलझी अलकों से | ||
उठी लहर मधुगंध अधीर। | उठी लहर मधुगंध अधीर। | ||
+ | |||
मनु का मन था विकल हो उठा | मनु का मन था विकल हो उठा | ||
संवेदन से खाकर चोट, | संवेदन से खाकर चोट, | ||
− | |||
संवेदन जीवन जगती को | संवेदन जीवन जगती को | ||
जो कटुता से देता घोंट। | जो कटुता से देता घोंट। | ||
+ | |||
"आह कल्पना का सुंदर | "आह कल्पना का सुंदर | ||
यह जगत मधुर कितना होता | यह जगत मधुर कितना होता | ||
− | |||
सुख-स्वप्नों का दल छाया में | सुख-स्वप्नों का दल छाया में | ||
पुलकित हो जगता-सोता। | पुलकित हो जगता-सोता। | ||
+ | |||
संवेदन का और हृदय का | संवेदन का और हृदय का | ||
पंक्ति 221: | पंक्ति 226: | ||
यह संघर्ष न हो सकता, | यह संघर्ष न हो सकता, | ||
+ | फिर अभाव असफलताओं की | ||
− | + | गाथा कौन कहाँ बकता? | |
− | + | ||
− | गाथा कौन कहाँ बकता | + | |
कब तक और अकेले? | कब तक और अकेले? | ||
कह दो हे मेरे जीवन बोलो? | कह दो हे मेरे जीवन बोलो? | ||
− | |||
किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत, | किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत, | ||
अपनी निधि न व्यर्थ खोलो। | अपनी निधि न व्यर्थ खोलो। | ||
+ | |||
"तम के सुंदरतम रहस्य, | "तम के सुंदरतम रहस्य, | ||
हे कांति-किरण-रंजित तारा | हे कांति-किरण-रंजित तारा | ||
− | |||
व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु, | व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु, | ||
भरे नव रस सारा। | भरे नव रस सारा। | ||
+ | |||
आतप-तपित जीवन-सुख की | आतप-तपित जीवन-सुख की | ||
शांतिमयी छाया के देश, | शांतिमयी छाया के देश, | ||
− | |||
हे अनंत की गणना | हे अनंत की गणना | ||
− | देते तुम कितना मधुमय | + | देते तुम कितना मधुमय संदेश। |
+ | |||
आह शून्यते चुप होने में | आह शून्यते चुप होने में | ||
तू क्यों इतनी चतुर हुई? | तू क्यों इतनी चतुर हुई? | ||
+ | |||
+ | इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों | ||
+ | |||
+ | अब इतनी मधुर हुई?" | ||
− | "जब | + | "जब कामना सिंधु तट आई |
ले संध्या का तारा दीप, | ले संध्या का तारा दीप, | ||
− | + | फाड़ सुनहली साड़ी उसकी | |
− | तू हँसती क्यों | + | तू हँसती क्यों अरी प्रतीप? |
पंक्ति 276: | पंक्ति 285: | ||
− | विश्व कमल की मृदुल | + | विश्व कमल की मृदुल मधुकरी |
− | + | रजनी तू किस कोने से- | |
आती चूम-चूम चल जाती | आती चूम-चूम चल जाती | ||
पंक्ति 343: | पंक्ति 352: | ||
जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग? | जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग? | ||
− | या भूली-सी | + | या भूली-सी खोज़ रही कुछ |
जीवन की छाती के दाग" | जीवन की छाती के दाग" |
14:20, 18 मई 2007 का अवतरण
रचनाकार: जयशंकर प्रसाद
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उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है
क्षितिज बीच अरुणोदय कांत,
लगे देखने लुब्ध नयन से
प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।
पाकयज्ञ करना निश्चित कर
लगे शालियों को चुनने,
उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना
लगी धूम-पट थी बुनने।
शुष्क डालियों से वृक्षों की
अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।
आहुति के नव धूमगंध से
नभ-कानन हो गया समृद्ध।
और सोचकर अपने मन में
"जैसे हम हैं बचे हुए-
क्या आश्चर्य और कोई हो
जीवन-लीला रचे हुए,"
अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ
कहीं दूर रख आते थे,
होगा इससे तृप्त अपरिचित
समझ सहज सुख पाते थे।
दुख का गहन पाठ पढ़कर
अब सहानुभूति समझते थे,
नीरवता की गहराई में
मग्न अकेले रहते थे।
मनन किया करते वे बैठे
ज्वलित अग्नि के पास वहाँ,
एक सजीव, तपस्या जैसे
पतझड़ में कर वास रहा।
फिर भी धड़कन कभी हृदय में
होती चिंता कभी नवीन,
यों ही लगा बीतने उनका
जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।
प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे
अंधकार की माया में,
रंग बदलते जो पल-पल में
उस विराट की छाया में।
अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते
प्रकृति सकर्मक रही समस्त,
निज अस्तित्व बना रखने में
जीवन हुआ था व्यस्त।
तप में निरत हुए मनु,
नियमित-कर्म लगे अपना करने,
विश्वरंग में कर्मजाल के
सूत्र लगे घन हो घिरने।
उस एकांत नियति-शासन में
चले विवश धीरे-धीरे,
एक शांत स्पंदन लहरों का
होता ज्यों सागर-तीरे।
विजन जगत की तंद्रा में
तब चलता था सूना सपना,
ग्रह-पथ के आलोक-वृत से
काल जाल तनता अपना।
प्रहर, दिवस, रजनी आती थी
चल-जाती संदेश-विहीन,
एक विरागपूर्ण संसृति में
ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।
धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित
सुंदर स्वच्छ निशीथ,
जिसमें शीतल पावन गा रहा
पुलकित हो पावन उद्गगीथ।
नीचे दूर-दूर विस्तृत था
उर्मिल सागर व्यथित, अधीर
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा
चंद्रिका-निधि गंभीर।
खुलीं उस रमणीय दृश्य में
अलस चेतना की आँखे,
हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक
मधु से वे भीगी पाँखे।
व्यक्त नील में चल प्रकाश का
कंपन सुख बन बजता था,
एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का
मधुर रहस्य उलझता था।
नव हो जगी अनादि वासना
मधुर प्राकृतिक भूख-समान,
चिर-परिचित-सा चाह रहा था
द्वंद्व सुखद करके अनुमान।
दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण की
बाला का अक्षय श्रृंगार,
मिलन लगा हँसने जीवन के
उर्मिल सागर के उस पार।
तप से संयम का संचित बल,
तृषित और व्याकुल था आज-
अट्टाहास कर उठा रिक्त का
वह अधीर-तम-सूना राज।
धीर-समीर-परस से पुलकित
विकल हो चला श्रांत-शरीर,
आशा की उलझी अलकों से
उठी लहर मधुगंध अधीर।
मनु का मन था विकल हो उठा
संवेदन से खाकर चोट,
संवेदन जीवन जगती को
जो कटुता से देता घोंट।
"आह कल्पना का सुंदर
यह जगत मधुर कितना होता
सुख-स्वप्नों का दल छाया में
पुलकित हो जगता-सोता।
संवेदन का और हृदय का
यह संघर्ष न हो सकता,
फिर अभाव असफलताओं की
गाथा कौन कहाँ बकता?
कब तक और अकेले?
कह दो हे मेरे जीवन बोलो?
किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,
अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।
"तम के सुंदरतम रहस्य,
हे कांति-किरण-रंजित तारा
व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु,
भरे नव रस सारा।
आतप-तपित जीवन-सुख की
शांतिमयी छाया के देश,
हे अनंत की गणना
देते तुम कितना मधुमय संदेश।
आह शून्यते चुप होने में
तू क्यों इतनी चतुर हुई?
इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों
अब इतनी मधुर हुई?"
"जब कामना सिंधु तट आई
ले संध्या का तारा दीप,
फाड़ सुनहली साड़ी उसकी
तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?
इस अनंत काले शासन का
वह जब उच्छंखल इतिहास,
आँसू और' तम घोल लिख रही तू
सहसा करती मृदु हास।
विश्व कमल की मृदुल मधुकरी
रजनी तू किस कोने से-
आती चूम-चूम चल जाती
पढ़ी हुई किस टोने से।
किस दिंगत रेखा में इतनी
संचित कर सिसकी-सी साँस,
यों समीर मिस हाँफ रही-सी
चली जा रही किसके पास।
विकल खिलखिलाती है क्यों तू?
इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर,
तुहिन कणों, फेनिल लहरों में,
मच जावेगी फिर अधेर।
घूँघट उठा देख मुस्कयाती
किसे ठिठकती-सी आती,
विजन गगन में किस भूल सी
किसको स्मृति-पथ में लाती।
रजत-कुसुम के नव पराग-सी
उडा न दे तू इतनी धूल-
इस ज्योत्सना की, अरी बावली
तू इसमें जावेगी भूल।
पगली हाँ सम्हाल ले,
कैसे छूट पडा़ तेरा अँचल?
देख, बिखरती है मणिराजी-
अरी उठा बेसुध चंचल।
फटा हुआ था नील वसन क्या
ओ यौवन की मतवाली।
देख अकिंचन जगत लूटता
तेरी छवि भोली भाली
ऐसे अतुल अंनत विभव में
जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?
या भूली-सी खोज़ रही कुछ
जीवन की छाती के दाग"
"मैं भी भूल गया हूँ कुछ,
हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था?
प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या?
मन जिसमें सुख सोता था
मिले कहीं वह पडा अचानक
उसको भी न लुटा देना
देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग,
न उसे भुला देना"