<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : औरत की ज़िन्दगी भूख <br> '''रचनाकार:''' [[रघुवीर सहाय मासूम गाज़ियाबादी ]]</td>
</tr>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
भूख इन्सान के रिश्तों को मिटा देती है।
करके नंगा ये सरे आम नचा देती है।।
आप इन्सानी जफ़ाओं का गिला करते हैं।
रुह भी ज़िस्म को इक रोज़ दग़ा देती है।।
कितनी मज़बूर है वो माँ जो मशक़्क़त करके।
दूध क्या ख़ून भी छाती का सुखा देती है।।
कई कोठरियाँ थीं कतार मेंआप ज़रदार सही साहिब-ए-किरदार सही।उनमें किसी में एक औरत ले जाई गईथोड़ी देर बाद उसका रोना सुनाई दियापेट की आग नक़ाबों को हटा देती है।।
उसी रोने भूख दौलत की हो शौहरत की या अय्यारी की।हद से हमें जाननी थी एक पूरी कथाबढ़ती है तो नज़रों से गिरा देती है।।उसके बचपन अपने बच्चों को खिलौनों से जवानी तक की कथाखिलाने वालो!मुफ़लिसी हाथ में औज़ार थमा देती है।। भूख बच्चों के तबस्सुम पे असर करती है।और लडअकपन के निशानों को मिटा देती है।। देख ’मासूम’ मशक़्क़त तो हिना के बदले।हाथ छालों से क्या ज़ख़्मों से सजा देती है।।
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